छत्तीसगढ़ की परम्पराएं , तीज - त्योहार में
पर्यावरण चिंतन स्पष्ट परिलक्षित होता है ।मनुष्य
सदा से प्रकृति प्रेमी रहा है , प्रकृति से उसका जुड़ाव
चिर काल से रहा है । जन्म से लेकर मृत्युपर्यंत उसकी
हर क्रियाकलाप में प्रकृति शामिल होती है । शायद
इसीलिए मानव संस्कृति में अनायास ही प्रकृति जुड़ी
हुई है ।धर्म और परम्पराएं इस सम्बंध को और भी
मजबूत करती हैं ।
प्राचीनकाल से ही बरगद , पीपल , आँवला ,
तुलसी इत्यादि पौधों की पूजा करने की प्रथा है अतः
घर - घर में ये उपयोगी पौधे पाये जाते थे । आँवला
नवमी में आँवला पेड़ के नीचे सामूहिक भोजन करने
की परम्परा थी , जो जीवन में वृक्षों का महत्व बढाने
के साथ - साथ सामुदायिकता की भावना का भी प्रसार
करती थी ।
हरेली में घर - घर नीम की टहनी खोंसना , वट-
सावित्री पूजन में बरगद वृक्ष का महत्व , अमावश्या व
पूर्णिमा में पीपल के पेड़ में पानी डालना इत्यादि परम्पराएं प्रकृति के महत्व को प्रतिपादित करती हैं ।
प्रत्येक कथा - पूजन में दूब , आम के पत्तों , केले की पत्तियों का प्रयोग किया जाता है । दशहरे में रावण
मारने के बाद सोनपती बाँटना , पान खिलाना जीवन
को प्रकृति के अधिक करीब लाता है ।
हमारी परम्पराएं , रीति - रिवाज वृक्षारोपण एवं
उनके संरक्षण को प्रेरित करते हैं । सावन के माह में पेड़ों पर झूले डालना मन की उमंगों से हरीतिमा को
जोड़ता है । पुष्प घर की सजावट के साथ - साथ पूजन
के लिए भी आवश्यक हैं ।वसंत पंचमी के दिन टेशू के
फूल के द्वारा पूजन की जाती है । विविध त्योहारों में
विविध पुष्पों का प्रयोग किया जाता है , इस प्रकार
न जाने कितने पौधे लगाने की प्रेरणा दी जाती है ।
कहावतों व मुहावरों में भी पर्यावरण चिंतन दिखाई
पड़ता है । पाप - पुण्य का डर पैदा करना भी वृक्षों के
संरक्षण का एक तरीका था ।
" बर काटे ले ब्रह्म राक्षस , पीपर काटे ले चंडाल ।
मऔरे आमा ल काट दीहि त पर जाहि अकाल ।"
अर्थात बरगद के पेड़ को काटने वाला ब्रह्म - राक्षस
बन जाता है और पीपल काटने वाला चंडाल बन जाता है , किसी ने बौर लगे हुए आम को काट दिया तो अकाल पड़ने की सम्भावना है ।
प्राकृतिक आपदा या बीमारी का डर दिखाकर ,
धर्म के लिए आवश्यक जानकर लोग पर्यावरण को सुरक्षित रखें , जीव - जंतुओं को भी जीने दें , परम्पराओं में इन्हें जगह देने के पीछे प्राचीन समय में
यही सोच रही होगी । विवाह , मृत्यु , उपनयन इत्यादि
विविध संस्कारों में पौधे व जीव - जंतुओं को महत्व
दिया गया है ।जल , वायु , अग्नि ,पवन , धरती को
ईश्वर का प्रतिनिधि मानकर इनकी पूजा की जाती है।
खाना बनाने से पहले चूल्हे को गोबर से लीप कर
सुलगाया जाता था ,खाना बनने के बाद भोजन का
थोड़ा सा भाग अग्नि को समर्पित किया जाता था ।
नदी में पैर रखने से पहले उन्हें प्रणाम किया
जाता था, नदी में मल - मूत्र विसर्जित करना पाप
माना जाता था।
सोकर उठने के बाद धरती पर पैर रखने के पूर्व
उन्हेंप्रणाम किया जाता था । नदियों के संगम पर मेला ,
मड़ई भरना नदियों के प्रति अपने सम्मान को प्रदर्शित
करने का ही एक तरीका है ।
पोला में हल - बैल की पूजा की जाती है , गांवों
में तालाब खुदवाना , पेड़ लगाना , धर्मशाला बनवाना
बहुत बड़ा पुण्य का कार्य माना जाता था । अब भी
गांवों में यह रिवाज प्रचलन में है । खेत आज भी किसान के लिए पूज्यनीय है । सुआ और राउत नाचा
के हानों में अब भी प्रकृति से सम्बन्ध स्पष्ट परिलक्षित
होते हैं ।
इनमें से कुछ परम्पराएं अब प्रचलित नहीं हैं ,
कुछ अपना अस्तित्व बचाये हुए हैं । तालाब अब भी
गांवों में दैनिक कार्यों को निपटाने के प्रमुख स्रोत हैं ।निरन्तर घटते जा रहे भू- जल स्तर को बनाये रखने
का एक नायाब तरीका है , तालाबों का संरक्षण । प्रदूषण से राहत पाने के लिए वृक्षारोपण करना और उनका सरंक्षण करना आज अत्यंत महत्वपूर्ण है ।
हमारे बुजुर्गों ने हमें जो संस्कार दिए थे उन्हें भूलने का ही यह दुष्परिणाम है । मनुष्य को अपना अस्तित्व बचाये रखने के लिए पर्यावरण को सुरक्षित रखना
होगा क्योंकि उनसे हम हैं और हमसे वो , हमारी संस्कृति हमसे यही अपेक्षा रखती है ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़
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वाह बहुत खूब
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