कहते हैं चेहरा ,दर्पण होता है मन का,
कह देता है सारी बात ...
क्यों नहीं जान पाते हम,
किसके मन में क्या छुपा ।
क्यों नहीं देख पाती पत्नी,
पति के मन में टूटते ,
विश्वास के तार ।
क्यों नहीं झाँक लेती आँखों में,
पीड़ा , अवसाद ।
छली क्यों जाती है नवयौवना ,
प्रेमी के रसपगी बातों में ।
क्यों फँस जाता है व्यक्ति ,
झूठ के बुने जालों में ।
उलझ जाता है जमाने की,
फरेबी ,चिकनी बातों में ।
क्यों देती है पनाह मासूमियत,
धोखे और दरिंदगी को ।
क्या इस दर्पण में भी ,
कुछ लेप पुता होता है।
कुछ लोगों के चेहरे ही,
नकली होते हैं या ...
चेहरे पे चेहरे टँगे होते हैं।।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़
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