दीपावली का त्यौहार आने वाला था । कुम्हार दीये
बनाने में व्यस्त था । अभी सीजन में थोड़ी कमाई हो जाए तो साल भर की दाल - रोटी की व्यवस्था हो जायेगी । बिजली के झालरों , मोमबत्तियों ने पहले ही उनकी कमाई कम कर दी है , आजकल तो लोग दीये भी रंगीन और सजावटी पसन्द करने लगे हैं । यही सोच लिए हताश कदमों से वह बाजार आया था पर यह क्या ? अद्भुत ! उसके सारे दिए बिक गये थे । मिट्टी के दीयों की तरफ लोगों का रुझान इस बार बढ़ गया । बाद में उसे पता चला कि गाँव के नये युवा सरपंच ने इस बार प्लास्टिक मुक्त दीवाली मनाने और अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए अधिक से अधिक मिट्टी के दियों के प्रयोग का आह्वान किया था । यह वही बालक था जिसे वह बचपन में कुछ दीये उपहार में दे दिया करता था , आज उसने कुम्हार को यह खूबसूरत उपहार दिया था ।
उसका मन खुशियों से और आँखें अश्कों से भीग गई थीं ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़
आसमान में उड़ते बादलों की तरह भाव मेरे मन में उमड़ते -घुमड़ते रहते हैं , मैं प्यासी धरा की तरह बेचैन रहती हूँ जब तक उन्हें पन्नों में उतार न लूँ !
Tuesday, 22 October 2019
उपहार ( लघुकथा )
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment