Thursday, 28 November 2019

बेजुबान ( लघुकथा)

पायल बेजुबान सी पुलिस द्वारा उसके पति सुनील को पकड़कर ले जाते देख रही थी । उसके कोई प्रतिरोध न करने पर लोग हतप्रभ थे परंतु वह तब भी नहीं बोली थी जब उसकी मर्जी के बिना उसकी शादी कर दी गई । तब भी नहीं जब सुनील शराब पीकर उसे मारता - पीटता । जब जी चाहे घर आता जब जी चाहे कहीं चला जाता । तब भी कुछ नहीं कहा जब उसकी मर्जी के बगैर कई बार..... आज पहली बार अपने बेजुबान होने पर उसे अफसोस नहीं हो रहा था ।

स्वरचित -डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Wednesday, 27 November 2019

दिन है तू रात मैं

दिन है तू रात मैं , मिले कहाँ  कोई कहे ।
क्या करूँ बात मैं , दूरियाँ दरमियाँ रहे ।
वक्त की धार में ,ख्वाहिशें बनके पात बहे ।
मार मुश्किलों  की ,बता कोई कब तक सहे ।
दिन और रात मिल , एक नया क्षितिज गढ़ें ।
प्रेम के उजास में , थामकर  हाथ आगे बढ़ें ।
दो विपरीत रंग घुल - मिलकर नया रंग बनें ।
एक पथ के साथी हम एक जिस्म के अंग बनें ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , छत्तीसगढ़

अनपढ़ ( लघुकथा )

 अनपढ़ (लघुकथा )

     अस्पताल के बिस्तर पर लेटे हुए राज के आँसू अनवरत बह रहे थे... उच्च अधिकारी होने का दंभ उन आँसुओं में तिरोहित हो गया था । आज रेणु ने अपनी एक किडनी देकर उसकी जान बचा ली थी जिसे अनपढ़ समझकर उसने जिंदगी भर उपेक्षित किया था । माता - पिता के दबाव के कारण उसने रेणु से शादी तो की थी लेकिन कभी दिल से उसे अपनाया नहीं
। रेणु बिना किसी शिकायत के अपने दायित्व निभाती रही , आज उसने साबित कर दिया था निःस्वार्थ प्रेम और त्याग किसी डिग्री का मोहताज नहीं होता , साथ ही अपने पति के हृदय में वो स्थान बना चुकी थी जिसकी वह हकदार थी ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

किस्मत ( लघुकथा )

" किस्मत का लिखा कौन टाल सकता है बेटा ! पर तुमको बच्चों के लिए अपने - आपको सम्भालना होगा " - रश्मि को घेर कर बैठी औरतें विलाप कर रही थीं । पैतीस वर्ष  की रश्मि के पति का आकस्मिक निधन हो गया था । आठ वर्ष और दस वर्ष की दो बेटियों के साथ अब वह जीवनपथ  पर अकेली हो गई थी ।  सही कहा था बुआ ने - अपनी किस्मत पर रोने की बजाय अब उसे धैर्य व साहस के साथ जीना होगा , परिश्रम से अपने प्रारब्ध को बदलना होगा । दृढ़ निश्चय ने  निराशा व दुःख की इस घड़ी में  भी उसके चेहरे की आभा बढ़ा दी थी ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग  , छत्तीसगढ़

Monday, 25 November 2019

कुछ खट्टी कुछ मीठी

कुछ खट्टी कुछ मीठी यादें मन को भिगो गई ,
मानो रिमझिम फुहारें अम्बर- धरा को धो गई ।

दौड़ गई फिर एक बार बचपन की गलियों में ,
वो लड़कपन वो मस्ती जाने कहाँ खो गई ।

वो शैतानियाँ , नादानियाँ , बदमाशियाँ ,
न जाने गुड़िया के किस पिटारे में सो गई ।
 
माँ की डाँट से बचने को पापा के कंधे चढ़ी ,
रहती वैसी गुड़िया सी क्यों मैं बड़ी हो गई ।

सखियों की सब बातें याद मुझे आने लगीं ,
रोक न पाई जज्बातों को न जाने कब रो गई ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़




Sunday, 24 November 2019

बोलती तस्वीर

समाज रूपी वृक्ष की दो शाखाएं नर और नारी ,
सींचते , सँवारते मिलकर देखती दुनिया सारी ।
जड़ें  यदि मजबूत हो तो वृक्ष भी फल देगा ,
समन्वय व सहयोग सफलता की अधिकारी ।
नन्हीं - नन्हीं शाखें विकसित हो रही तनों से ,
प्रेम और सद्भावना से सींचें जग की क्यारी ।
व्यक्तिगत स्वार्थ से ऊपर उठकर चलें अब ,
फैलाएँ सौरभ अमन का महका दें फुलवारी ।
राष्ट्रप्रेम की लौ जलाकर रौशन कर दें जहां ,
उड़ान को मिला  गगन परिंदे  हुए आभारी ।।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Friday, 22 November 2019

किसके लिए ( लघुकथा )

आज  मेरी सहेली सुहानी बहुत गुस्से में थी । जब से आई थी दूसरों पर अपनी खीझ उतार रही थी और चिडचिड़ा रही थी ।
दरअसल  वह अपने पति और बच्चे पर उसका कहा कोई काम न कर पाने के कारण होने वाले नुकसान पर बरस कर आई थी । मैंने उससे पूछा कि उसने इतनी उम्र में क्या पूँजी बनाई है । विषय से हटकर अब वह अपनी सम्पत्ति गिनाने में लग गई थी । उसके बाद मेरा अगला प्रश्न था कि उसके पति और बच्चों के बिना इस सम्पत्ति का उसके लिए क्या महत्व है ? वह निरुत्तर हो गई थी क्योंकि सचमुच उसके जीवन की सबसे बड़ी सम्पत्ति उसका परिवार था । फिर यह गुस्सा किसके लिए ? अपने - आप से पूछे गये इस प्रश्न ने उसे शांत कर दिया था ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Thursday, 21 November 2019

माँ

भारतीय परिधान में सुसज्जित नारी ,
सुकोमला,सुलक्षणा, अलंकृता ,
पोषिका, वन्दनीया , शिक्षिता ,
देश रहे सदा उस माँ का आभारी ।।
उसकी देखरेख में सबल परिवार  ,
देती  ज्ञान - विज्ञान का आधार ।
सिखाती - पढ़ाती अपने बच्चों को ..
बनाती सुयोग्य  , सुशिक्षित ,सुसंस्कारी ।।
बेटा - बेटी हैं  एक समान ,
भेद  न कोई  उनमें मान ,
परन्तु बेटी की शिक्षा बने...
निश्चित ही दो परिवारों के लिए हितकारी ।।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़


Monday, 18 November 2019

मधुर मिलन

टिम - टिम करते तारे झाँक रहे ,
व्याकुल चाँद घूमे गगन - गगन ।
चाँदनी में  वह मुखड़ा ताक रहे ,
 यामिनी कहाँ  बैठी बन दुल्हन ।।

नीरवता सखी  सदा साथ रहे ,
शीतल , पुलकित मन्द समीरन ।
चूनर में जुगनू को टांक रहे ,
खिले श्वेत पुष्प बने आभूषण ।।

पर खोल रहे गुंचे अपने ,
उड़े रंगोआब महका गुलशन ।
इंतजार में  हैं सदियाँ  बीती   ,
आस लगाये है  बैठी विरहन ।।

आ गई है बेला पूनम की ,
होगा अब तो उनका मधुर मिलन ।
निशा की प्रीत में  खिला चाँद ,
चन्द्र - स्पर्श से हुई निशा रौशन ।।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़







Friday, 15 November 2019

ग़ज़ल

इश्क में सरस जीवन लगता  है ,
पुष्पित सुरभित उपवन लगता है ।

यूँ तो हसीं लगते सारे नजारे ,
सबसे प्यारा साजन लगता है ।

जवां हो रही कली ख्वाहिशों की ,
पुलकित  सरसिज सा मन लगता है ।

लट उलझाये , दुपट्टा उड़ाये ,
कुछ मनचला यह पवन लगता है ।

उमंगें हुई समंदर  सी गहरी ,
हृदय नीलाभ गगन लगता है ।

उड़ते रहते पंछी के मानिंद ,
सुंदर प्यार का बंधन लगता है ।

नजरें मिला हुई बेसब्र " दीक्षा ",
चुगली न करे धड़कन लगता है ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Wednesday, 13 November 2019

करुण रस

अभी - अभी वह अस्पताल से आई है ,
देह के साथ मन भी झुलसा लाई है ।
चन्द सवाल हैं उन भीगती आँखों के ,
जो अश्कों के साथ दर्द से  भारी हैं  ।
जो सजा थी उसके खूबसूरत होने की ,
जिद अपनी इज्जत , सम्मान न खोने की ।
लड़की होना क्या गुनाह है उसका ,
या उसने ना कहने की सजा पाई है ।
कुसूर क्या था उसका ? किया था इंकार ,
उस पागल प्रेमी का प्रेम नहीं किया स्वीकार ।
एकतरफा प्रेम की भेंट चढ़ गई जिंदगी ,
छीन लिया उसका सब कुछ , उसकी खुशी ।
पीड़ा उसके हिस्से ही क्यों आती ?
वह खौफनाक मंजर अभी तक नहीं भुलाई है ।
उन करुण आँखों के सवालों के जवाब,
परिवार , समाज को  ही देना होगा ।
क्यों नहीं देते संस्कार लड़कों को कि ,
लड़की की ना भी सुनना होगा ।
सिखाओ अपने लड़कों को कि लड़की
नहीं कठपुतली  , न कोई परछाई है ।
अभी - अभी वह अस्पताल से आई है ,
देह के साथ मन भी झुलसा लाई है ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़


Monday, 11 November 2019

सजल - 3

समांत - ई
पदांत - सी है
मात्रा भार - 17
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आँखों में ये जो नमी सी है 
होंठों पे वो* हँसी थमी सी है 
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सोचा  था जो वो पाया नहीं 
सीने में थोड़ी गमी सी है 
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कोशिश तो की थी पूरी मगर
हौसलों की जरा कमी सी है 
*************************
पिघलेगी  मेहनत की तपिश से
इरादों में बर्फ जमी सी है 
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जल्दी सूरत बदल जायेगी 
बदहाली ये मौसमी सी है 
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स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़



Friday, 8 November 2019

मुक्तक

मजहब के नाम पर लड़ना नहीं ,
धार्मिक उन्माद में भिड़ना नहीं ।
मानव धर्म  हो सबसे  ऊपर _
व्यर्थ के विवाद में पड़ना नहीं ।।

डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

शब्द सीढ़ी

विष्णुप्रिया तुलसी मनभावन ,
करती पावन घर -  आँगन ।
शाखित , विस्तृत, मंजरी शोभित ,
नित्य दीप प्रज्वलित  करूँ पूजन ।
रोगनाशिनी  तू पापनाशिनी ,
स्वच्छ कर दे पूरा वातावरण ।
धूप , दीप , पुष्प अर्पित कर,
विधि - विधान से करूँ अर्चन ।
सुख - सौभाग्य देना मुझे माता ,
सद्भाव , सुविचार ले करूँ नमन ।
 करो कृपा यही मेरी आराधना ,
श्याम संग देती रहो  मुझे दर्शन ।
वृन्दा - विष्णु की भक्ति पाकर ,
पुलकित हो गया मेरा अंतर्मन ।

स्वरचित  - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़





Wednesday, 6 November 2019

इच्छाशक्ति

अच्छाई को ग्रहण करती , बुराई छोड़ देती हूँ ।
दर्द को घटाती हूँ ,  खुशी को जोड़ लेती हूँ ।
ये मुस्कान जो रहती है सदा मेरे होंठों पर _
दुःखों की झील में खिला कमल तोड़ लेती हूँ ।

कुविचारों के गर्द से मैं अपना मन साफ रखती हूँ ।
मुफलिसी से गुजरकर भी दामन पाक रखती हूँ ।
ये उजाला सा रहता है सदा जो साथ मेरे _
अंधेरों  की कलाई को जरा मैं मरोड़ देती हूँ ।

 हौसलों की कश्ती से दरिया पार करती हूँ ।
अपने अधिकारों को पाने जमाने से लड़ती हूँ ।
दृढ़ विश्वास है मुझको मिलेगी जरूर  मंजिल _
अपने मजबूत इरादों से मैं राहों को मोड़ देती हूँ ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Tuesday, 5 November 2019

सूफियाना इश्क

मेरी रूह में बसी हो तुम ,
फूलों में खुशबू की तरह ।
दिल में धड़कती  रहती हो ,
जीने की  आरजू की तरह ।
कानों में कुछ कह जाती हो ,
पैरों में  घुंघरू की तरह ।
लब चूम लेती हैं निगाहें ,
दीवाने भँवरों की तरह ।
भिगो जाती हैं तन मन ,
सागर की लहरों की तरह ।
पाक हो  तुम मेरे लिए ,
पूजा के फूलों की तरह ।
तुझे याद करना है ज्यों ,
खुदा के इबादत की तरह ।
मुश्किल प्यार को भूलना ,
खाक होता नहीं जिस्मों की तरह ।
सूफियाना इश्क मेरा ,
जीवित रहेगा किस्सों की तरह ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Monday, 4 November 2019

संस्मरण

जीवन की कई घटनाएं हमें यह सोचने को मजबूर करती हैं कि सचमुच पुण्य - पाप का हिसाब यहीं इसी दुनिया में हो जाता है। हम लोगों को राजहरा शिफ़्ट हुए कुछ समय ही हुए थे ,वहीं पास में एक परिवार रहता था जो अपनी बहू को बहुत प्रताड़ित करता था । माँ , बेटा और पिता मिलकर सीधी - सादी बहू को परेशान करते थे । शायद दहेज ही कारण रहा होगा । एक दिन उनके घर में आग लग गई और जैसा हमेशा होता है उसमें बहू ही फँस गई । ये तीनों बाहर निकल आये थे और फायर बिग्रेड वाले भी आ गये थे । वे अंदर जाकर मुआयना कर पाइप लगाने के लिए बाहर आये । तभी पता नहीं पिता - पुत्र को क्या सूझा वे उस कमरे में गये जहाँ वह लडक़ी जल रही थी । शायद वे अपनी तसल्ली करने गये थे कि वह जिंदा तो नहीं है।
तभी उसी कमरे में रखा एक्स्ट्रा सिलिंडर फट गया और वे पिता - पुत्र बाहर नहीं निकल पाये  , वहीं जलकर खाक हो गये । बाहर खड़ी माँ इस सदमे से पागल हो गई । अपनी बहू के साथ उन्होंने जो किया उसका न्याय ईश्वर ने तुरंत कर दिया था । उस जले हुए घर के अवशेष बहुत दिनों तक उस हादसे की याद दिलाते रहे साथ ही मन में इस आस्था को भी जागृत करते रहे कि ईश्वर गलती करने पर दण्ड अवश्य देता है 
स्वरचित -  डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Sunday, 3 November 2019

छठ पर्व

जय हो जय छठी  मैया  आये हम तेरे द्वार ।
दीर्घायु सुत पाने को माँ  कर रहे तेरी पुकार ।
उदित सूर्य को अर्ध्य देकर व्रतारम्भ उषाकाल ,
विविध  फल- फूलों से भर लाई मैं अपनी थाल ।
माथे सिंदूर तिलक भाल पर मेहंदी सजे हाथ ,
मन श्रद्धा से भरा हुआ प्रार्थना को झुके माथ ।
कमर तक तालाब में डूबी हुई तप करती आज ,
तीन दिवस का कठिन व्रत पूरे करता सारे काज ।
भास्कर की सुनहरी किरणें जग में उजाला भर गईं ,
छठ माता का पूजन कर  सुतों की माताएँ तर गईं ।
हे मात ! मेरे सुहाग को सदा अमर बनाये रखना ,
मेरे परिवार को खुश रखना सुख - समृद्धि भरना ।।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़


कैक्टस के फूल ( कहानी )

राजीव जब भी बालकनी में आते एक बार जरूर मुझे टोकते - " ये क्या कैक्टस लगा रखे हैं तुमने...सिर्फ काँटे ही काँटे... इन्हें फेंकती क्यों नहीं हो । घर शिफ्ट करते वक्त ही कहा था मैंने ,  इन्हें वहीं छोड़ दो पर नहीं तुम तो किसी की बात मानती नहीं  ..ले ही आई ।ऐसे भी इस घर में कितनी कम जगह है , उस पर तुम्हारे ये कैक्टस " । अरे ! कितने अच्छे तो लगते हैं ये , फिर इन्हें विशेष देखभाल की आवश्यकता नहीं होती । मेरे जैसे लापरवाह मालियों के लिए यही ठीक हैं  । जैसे जीवन में सुख तभी महत्वपूर्ण होते हैं जब दुःख का एहसास कर लिया जाये वैसे ही फूलों के साथ काँटों को भी रखना चाहिए ।" सब दिन होत न एक समान " हमें जीवन के हर पहलू के लिए तैयार रहना चाहिए । जीवन की विषमताओं को सहन करने की प्रेरणा देते हैं ये कैक्टस  और जनाब ! जब इन कंटीले कैक्टस के फूल देखोगे न तुम तो दाँतों तले उंगलियाँ दबा लोगे तुम । इतने खूबसूरत होते हैं ये --अपनी हथेलियों को अपने सिर के ऊपर तक फैलाते हुए रश्मि ने कहा तो राजीव हँस पड़ा ।  " तुम और तुम्हारी ग्रेट फिलॉसफी "..मैंने तो देखे नहीं कभी तुम्हारे इन कैक्टस को खिलते हुए । मुझसे तो दूर ही रखो इन्हें , डर लगता है मुझे इनके काँटों से -- राजीव ने मुँह बनाते हुए कहा तो उसकी अदा पर रश्मि भी हँस पड़ी । राजीव और रश्मि की शादी को  लगभग आठ वर्ष होने को आये हैं ।  रश्मि को राजीव ने पहली बार अपने भैया की शादी में देखा था ।  दिखने में आकर्षक तो वह थी ही , बातचीत में भी कुशल थी । भाभी की चचेरी बहन होने के कारण और भी कई कार्यक्रमों में उससे मुलाकात हुई । परिवार भी ठीक था इसलिए राजीव की  चाहत जाहिर करते ही दोनों परिवार के बड़ों को रिश्ता मंजूर हो गया ।
              दोनों के बीच बहुत अच्छा सामंजस्य है । बहुत ही सुघड़ता से रश्मि ने अपनी गृहस्थी को सजा रखा है । पर कहते हैं न कि हर किसी के जीवन में कोई न कोई कमी जरूर होती है । उनके आँगन में किसी फूल का न खिलना उन्हें कभी - कभी बहुत दुखी कर देता है । पर वे दोनों इस कारण को अपने बीच दीवार नहीं बनाते बल्कि यह उन्हें एक - दूसरे के अधिक करीब लाता है । वे दोनों अन्य बातों में खुशी ढूँढने का प्रयास करते हैं और खुश व व्यस्त रहते हैं । तीन - चार वर्ष घर पर रहने के बाद इसी वजह से राजीव ने जिद करके उसे पास के एक स्कूल में एक शिक्षिका के रूप में  ज्वाइन करवा दिया ताकि वह हमेशा व्यस्त रहे और अपनी उच्च शिक्षा का सदुपयोग भी कर सके ।
          सास - ससुर व अन्य रिश्तेदारों के साथ भी उसके मधुर सम्बन्ध हैं । हर त्यौहार वे परिवार के साथ ही मनाते हैं और फिर अपनी नौकरी में वापस आ जाते हैं । यहाँ वह कोई न कोई सृजनात्मक कार्य करती रहती है तो बोर नहीं होती पर कुछ दिन वहाँ रहकर आने के बाद उसे बहुत  सूनापन महसूस होता है क्योंकि वहाँ शायद सबके पूछने पर कि कुछ है तो नहीं , कुछ इलाज क्यों नहीं कराते तुम लोग , ध्यान दो अब समय निकलने लगा है... जैसे सवाल उसके मन को छलनी कर देते । जीवन की जिस कमी के बारे में वे सोचते भी नहीं घर जाने पर नाते - रिश्तेदार  सभी उसके बारे में ही बात करते हैं ।  इस मामले में  उसके शहर  के लोग अच्छे हैं जिन्हें किसी के बारे में सोचने की फुरसत ही नहीं है । भले  ही यह आदत उन्हें असामाजिक बना देती है , लोग अपने  पड़ोसी  को भी नहीं पहचानते । जितना बड़ा शहर उनके दायरे भी उतने ही सीमित , गाँवों में तो लोगों को हर घर के एक - एक सदस्य की जानकारी रहती है इसलिए हर छोटी बात पर फुसफुसाहट शुरू हो जाती है ।
             रश्मि शाम को स्कूल  से आकर थोड़ा आराम कर बालकनी में आ जाती है । उसने जो छोटी सी बगिया लगाई है , उसकी साज - संवार करती है । उसके घर के पास ही एक बड़ा सा मैदान है जिसमें बच्चे खेलते रहते हैं , वह अपना काम करके उन्हें देखती रहती है । उत्साह से भरे मासूम चेहरे ...कभी लड़ते झगड़ते कभी हँसते -  मुस्कुराते । क्रिकेट खेलते हुए कई बार उनकी गेंद उसकी बालकनी में आ जाती है तो उनकी प्यार भरी मनुहार रश्मि को स्नेहसिक्त कर देती है । "आंटी बॉल दीजिये न  " जब तक दो - चार मनुहारें नहीं आ जाती वह चुपचाप अपने काम में लगी रहती है फिर मुस्कुरा कर धीरे से बॉल फेंक देती है । जब वे खुश होकर " थैंक्यू आंटी " कहते हैं , वह पुलकित हो उठती है किसी बच्चे की तरह मानो वह भी उनके खेल का हिस्सा हो । 
              वह पल उसे बचपन की स्मृतियों में ले जाता है और याद आता है पीहर का आँगन  । कितनी खिलंदड़ी थी वह भी । शाम को स्कूल से आने के बाद खेलने के लिए बाहर निकलती थी तो वापस जाने का नाम ही नहीं लेती । मम्मी की डांट पड़ने पर ही घर जाती  । दीदी उससे बिल्कुल अलग थी , वह तो घर से बाहर निकलना ही पसन्द न करती । माँ बड़बड़ाते रहती - दो बच्चे दोनों दो विपरीत दिशा में भागती हैं , मैं किसके पीछे भागूँ ।
               वक्त कैसा भी हो रुकता नहीं है । साल दर साल बीतते गये । अब तो सभी सलाह देने लगे थे कि एक बच्चा गोद ले लो । कितने ही बच्चे अनाथालय में पलते एक घर की आस पाले रहते हैं , उन्हें एक घर , परिवार  मिल जायेगा ।  उसने राजीव से भी यह बात कही पर वे कोई निर्णय नहीं ले पा रहे थे । बच्चा गोद लेकर उसका पालन - पोषण  कर वे अपनी जिंदगी सार्थक बना  सकते  हैं पर क्या जीने की सिर्फ यही राह है ? 
                राजीव संजीवनी फाउंडेशन से जुड़ा हुआ था । एक बार उनके इवेंट में  रश्मि भी  गई थी वृद्धाश्रम । वहाँ वे लगभग तीन घण्टे रहे , बुजुर्गों के साथ बातें की  , उनके साथ  कुछ वक्त बिताकर उन्हें अकेलेपन के अंधेरों से बाहर निकालने की कोशिश की । वहाँ से लौटते वक्त उन बुजुर्गों के मुस्कुराते चेहरों के साथ ढेर सारा स्नेह व आशीर्वाद भी वे अपने दामन में समेट कर ले आये थे ।
           उस दिन की घटना ने विचलित कर दिया था रश्मि को ।  उसके स्टॉफ के किसी रिश्तेदार की मृत्यु हो गई थी  । उनके बेटे अमेरिका में रहते थे , मुखाग्नि देने भी नहीं पहुँच पाये । अड़ोस - पड़ोस के लोगों और दूर के रिश्तेदारों ने अंतिम संस्कार किया । जीवन का अंतिम सत्य यही है तो बच्चे के होने या न होने से क्या फर्क पड़ता है । बच्चे को जन्म देने और उसका पालन - पोषण करने तक ही क्या जीवन की सार्थकता है ? जिंदगी को इतनी छोटी परिधि में सीमित  क्यों रखना ? अपनी ममता को एक बच्चे  के पालन - पोषण तक ही सीमित न रखकर उसे वृहद आकाश भी तो दे सकते हैं । बहुत  दिनों से दुविधा में फंसा मन आज निर्णय ले सका था  । अपने जीवन को सार्थक बनाने के लिए अपनी सेवा वह अनाथालय और वृद्धाश्रम को भी दे सकती है , अपनी सुविधानुसार ।  बिना किसी बन्धन , निःशर्त जीवन जीना चाहिए  न  कि  किसी रिश्ते में बंधकर  इसे  मजबूरी में निभाना ।  उसने अपना विचार राजीव को  बताया तो वह भी बहुत खुश हुआ । उसने महसूस किया  उसके आँगन के कैक्टस में ढेर सारे  फूल खिल आये  हैं  ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

सजल - 2

समांत - आर
पदांत - स्वेच्छिक
मात्रा भार - 18

कुछ ऐसा चमत्कार हो जाये ,
ईश्वर से साक्षात्कार हो जाये ।

मिले न किसी को कोई बुरी खबर ,
सकारात्मक अखबार हो जाये ।

दुआ जो  माँगो मिल जायेगा ,

दुनिया न कोई बाजार हो जाये ।


 दिल में बहे स्नेह की गंगा ,
जिंदगी प्रेम रस धार हो जाये ।

हो चारों ओर  सुकून ,अमन - चैन ,
धर्म व कर्म  एकाकार हो जाये ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Friday, 1 November 2019

लौह पुरूष ( मुक्तक )

राष्ट्र के नव निर्माण में अपना योगदान दिया ,
फौलादी इरादों से देश को  पहचान दिया ।
कमजोर न होने दिया  एकता के सूत्रों को .
लौह पुरूष  बन कर  जन कल्याण किया ।।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़