मानो रिमझिम फुहारें अम्बर- धरा को धो गई ।
दौड़ गई फिर एक बार बचपन की गलियों में ,
वो लड़कपन वो मस्ती जाने कहाँ खो गई ।
वो शैतानियाँ , नादानियाँ , बदमाशियाँ ,
न जाने गुड़िया के किस पिटारे में सो गई ।
माँ की डाँट से बचने को पापा के कंधे चढ़ी ,
रहती वैसी गुड़िया सी क्यों मैं बड़ी हो गई ।
सखियों की सब बातें याद मुझे आने लगीं ,
रोक न पाई जज्बातों को न जाने कब रो गई ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़
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