Friday, 30 August 2019

ग़ज़ल

ओझल हुआ रवि थक कर दिन हुआ तमाम ,
सभी जीव घर लौटने  लगे हो गई है शाम ।

भोर से  जो शुरू हुई  भागमभाग जिंदगी की,
क्षीण हुई ऊर्जा तन की , पूरे हो गये सब काम ।

पीड़ा , थकन , भटकन लगी रहेगी देह की ,
दो घड़ी बैठकर  शांत अब कर लो कुछ आराम ।

चिंता , शंका , क्रोध मन में आते ही रहते ,
भूल इन  मन के भावों को पी लो खुशी के जाम ।

चंचल  मन के घोड़े निरन्तर भागते ही रहते ,
चित्त को स्थिर बना जरा कस दो इसकी लगाम ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Wednesday, 28 August 2019

नेता जी

चुनाव क्या जीते नेता जी ,
हो गये  खूब  मोटे नेता जी ।
आलीशान हो गई  हवेली ,
कद के  हुए छोटे नेता जी ।
झूठे वादों से मन भरमाए ,
बने  दिल के खोटे नेता जी ।
कमीशन , रिश्वत खूब खाए ,
घी तर माल झपेटे नेता जी ।
बात खुली तो पकड़ में आये ,
जाँच कमीशन के लपेटे नेता जी ।
धन कमाया कुछ काम न आया ,
जेल में  पत्थर कूटे नेता जी ।
दोस्त न कोई सगा - सम्बन्धी ,
खुद से हारे - टूटे नेता जी ।
धन बल पद को पूजे दुनिया ,
चमचों , भक्तों से छूटे नेता जी ।

स्वरचित - डॉ.  दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Tuesday, 27 August 2019

आत्म सम्मान ( लघुकथा )

शीला जब शाम को बर्तन माँजने  शारदा देवी के घर पहुँची तो वहाँ गहमा गहमी थी । उनकी सोने की अंगूठी जो उन्होंने नहाने जाने से पहले खाने की टेबल पर रख दी थी , वह गुम हो गई थी । उन्होंने पूरा घर छान मारा था और न मिलने पर उन्हें शक नौकरों पर ही हो रहा था
।  उसके पहुँचते ही उससे भी पूछताछ होने लगी थी , यह देखकर शीला को बहुत दुःख हुआ । क्या नौकरों का कोई आत्मसम्मान नहीं होता ? शीला कई वर्षों से उनके घर पर काम कर रही थी , कभी कोई चीज चोरी नहीं हुई । उस पर विश्वास करके मालकिन घर की चाबी भी उसके पास छोड़ देती थी । इस घटना ने उसे चिंतित कर दिया था और वह उनके साथ मिलकर अंगूठी को  ढूँढने  लगी थी । अंगूठी वहीं कमरे में आलमारी के नीचे मिल गई थी पर शीला के आत्मसम्मान को ठेस पहुँची और उसने शारदा देवी के घर का काम छोड़ दिया था ।
अविश्वास के कारण शारदा देवी ने एक ईमानदार सहयोगी खो दिया था ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Monday, 26 August 2019

ग़ज़ल

हमने क्या समझा था वे क्या निकले ,
होगी बहार सोचा था पर खिजां निकले ।

चेहरे पे  ओढ़कर झूठी  मुस्कान ,
वो हमदर्दी का चढाये मुखौटा निकले ।

मुँह में राम  बंदूक बगल में रखते ,
मेरे कत्ल का लेकर  वो सामान निकले ।

हाथ मिलाते है पीठ में खंजर लेकर ,
मुस्कुराते होठों से उनकी बददुआ निकले ।

करते थे जिनसे वफ़ा की उम्मीद" दीक्षा ",
सनम वही संगदिल बेवफा निकले ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग ,  छत्तीसगढ़

Sunday, 25 August 2019

माँ की व्यथा

प्रिय बेटे  ,
       उस दिन तुम  कहकर गये थे न कि अभी लौट कर आता हूँ । तुम अब तक नहीं आये , यहाँ सब तुम्हारी प्रतीक्षा  में हैं । रोज नाश्ते , खाने के समय टेबल पर तुम्हारी कमी महसूस होती है.. लगता है कि तुम कहीं से आओगे और पूछोगे माँ आज क्या स्पेशल बनाया है । कई बार ऐसे ही दरवाजे तक आती हूँ.. लगता है कि घण्टी बजी है पर वहाँ कोई होता नहीं है ।  घण्टों तुम्हारे कमरे की सफाई करते रहती हूँ , तुम्हारी किताबों को जमाते रहती हूँ । तुम्हारी आलमारी के आगे खड़े होकर तुम्हारे कपड़े देखती रहती हूँ और उनमें तुम्हारी छवि को याद करती रहती हूँ  ।  यह सब करके चाहती हूँ तुम वैसे ही मुझसे नाराज हो कर कहो - अरे माँ तुम मेरा सामान मत जमाया करो , फिर मुझे कुछ मिलता नहीं है । पहले तुम्हारे ऐसा करने पर मैं नाराज होती थी न , पर अब उन्हीं शब्दों को सुनने को कान तरस गये हैं । वो पेपर वेट जिसे अक्सर अपने हाथों में उठाकर ऊपर फेंकते रहते थे तुम..अब भी तुम्हारी राह तक रहा है । तुम्हारी बाइक मैने  साफ करके चमका दी है जिससे तुम्हें बहुत प्यार है ।
          वो मुहल्ले के गाय , कुत्ते , जिन्हें तुम रोटी और बिस्किट खिलाते रहते थे ...गेट पर खड़े रहकर तुम्हारा इंतज़ार करते हैं... रोटी देने के बाद भी नहीं जाते शायद  उस प्यार भरे स्पर्श के लिए जो तुम उन्हें सहला कर व्यक्त करते थे । घर पर अब न टी. वी. के रिमोट के लिए झगड़ा होता है और न चार्जर के लिए । न कोई किसी को चिढ़ाता है न मजाक करता ...सब चुप से हो गए हैं मानो  आँखें खुली रख कर सो गये हों । तुम क्या गये जीवन से रौनक ही चली गई । बिना नमक की सब्जी , बिना इंसान के घर या बिना प्राण के देह की तरह सब कुछ बेमानी सा लगता है । मालूम है तुम लौट कर नहीं आओगे फिर भी एक उम्मीद सी लगी रहती है,
नजरें दरवाजे से हटती ही नहीं ...कभी  अपनी गोद में खिलखिलाता तुम्हारा बचपन याद आता है ...कभी एक सफेद चादर में लिपटी तुम्हारी पार्थिव देह...काश ! उस दिन वह ट्रक ड्राइवर शराब नहीं पिये होता या तुम अपने दोस्त के जन्मदिन की पार्टी में न जाते । काश ! उन बीते लम्हों  को डिलीट कर सकती अपनी जिंदगी से और वापस ले आती तुम्हें । अपने  युवा बेटे को खोने से  बड़ा
भी कोई  दुःख  हो सकता है । काश ! मैं ईश्वर से अपने बदले तुम्हारी जिंदगी माँग पाती । ये सूनी आँखें आज भी तुम्हारा इंतज़ार कर रही हैं और करती रहेंगी शायद पथरा जाने तक 🙁

✍️✍️ डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Saturday, 24 August 2019

कान्हा

कान्हा तेरी  रीत निराली
सहज प्रेम से आत्म ज्ञान तक ,
सीधी , सच्ची राह दिखा दी ।

कान्हा तेरी प्रीत निराली
भा गये गोपियों के माखन ,
सुदामा के चावल ने भूख मिटा दी।

कान्हा तेरी जीत निराली
अहंकार , मद - मोह के बंधन ,
अत्याचारियों  से मुक्ति दिला  दी ।

कान्हा तेरी नीति निराली
सबल न छीने हक निर्बल का ,
विरोधियों  को धूल चटा दी ।

कान्हा तेरी दोस्ती निराली
बालसखा का मान बढ़ाया ,
सभा में द्रोपदी की लाज बचा ली ।

कान्हा तेरी विधि निराली ,
दुनिया को गीता - सन्देश दिया ,
अधर्म पर धर्म को जीत दिला दी ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Thursday, 22 August 2019

मुक्तक

गोकुल की गलियों में  रचाया है रास ,
उंगलियों में  गोवर्धन होठों पे स्मित हास ।
कालिया के फन पर थिरक उठे कृष्ण_
कर्म का संदेश देकर बन गये हो खास ।

******************************

चीरहरण  द्रोपदी का देख न पाये तुम ,
उस की लाज बचाने दौड़ के आये तुम ।
अस्मत दांव पे लगती है हर रोज यहाँ _
कृष्ण उन्हें क्यों न न्याय दिलाये तुम  ।

******************************

नटखट नन्दलाल  तू है बड़ा प्यारा ,
बांसुरी की तान पे नचाये ब्रज सारा ।
कहाँ छुप गये हो  मनमोहन मुरारी _
दरस को राह निहारे जग सारा ।

*****************************

सज  रहा पूनम का चाँद  तारों की चूनर ओढ़ के ,
रचा रहे गोपियों संग रास लोक लाज  छोड़ के ।
प्रीत की रीत है निराली मुखड़ों पे घूँघट न लाज_
चली आई  राधा भी आज बन्धन सारे तोड़ के ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Monday, 19 August 2019

प्रकृति के अनोखे रंग

सुरमयी शाम लेकर आई है ,
आँचल में सिंदूरी सौगात...
सुरभित हुआ पवन है औ ,
राहत भरी रात ...
नींद का प्याला पिलाती ,
श्रांत क्लांत गात...
थपकियाँ देती , दुलराती ,
विस्मृत कर देती हर बात....
थके हारे जीवों को ,
दे जाती मीठे ख्वाब...
भूलकर पुरातन को ही ,
कर पाते नूतन आगाज़....
रवि की आहट सुन ,
गई  उषा जाग...
अंगड़ाई ले प्रस्फुटित हुई कली ,
झूम उठे पात...
खगवृन्द चहक उठे ,
ले अधरों पे मधुर राग...
जाग उठा जन - जीवन ,
लो आया नव - प्रभात..
प्रकृति के अनोखे रंग में,
रंग गया समूचा समाज ।
उमंगित हुआ जन - मन ,
पाकर  प्रिय अनुराग ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

प्रकृति के रंग अनोखे

प्रकृति के रंग अनोखे ,
कहीं धरा रही सूखी ,
कहीं बादल जमकर बरसे ।

कुदरत के ढंग अनोखे ,
कहीं अन्न बर्बाद हो रहा ,
कहीं कोई इक दाने को तरसे ।

मानव तेरे कृत्य अनोखे ,
परवरिश की जिस माँ - बाप ने ,
उन्हें ही निकाला घर से ।

दुनिया के रिवाज अनोखे ,
फैशन की  अंधी दौड़ में ,
संस्कारों को काटे जड़ से ।

ईश्वर तेरे न्याय अनोखे ,
कर दे फैसला झूठ - सच का ,
निकल गया अब पानी सर से ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Sunday, 18 August 2019

ज्ञान का उजाला

तिमिर न रोक सकेगा सूरज  को  निकलना है ।
अशिक्षा को  मिटाने ज्ञानदीप को जलना है ।

कब तक बाँधे रहेंगी ये दकियानूसी रवायतें ,
तोड़कर सब दीवारें बेटी को आगे  बढ़ना है ।

रोक न सकेंगी  उन्हें अंधेरों की आजमाइश ,
लालटेन की रोशनी में भी बेटी को  पढ़ना है ।

शिक्षा ही मिटा सकती जाति - धर्म की दीवारें ,
संकीर्ण मानसिकता के दायरे से निकलना है ।

राह -ए - रौशन करेगा ज्ञान का उजाला "दीक्षा "
परवरिश बेटियों की इसी सोच से करना है ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Tuesday, 13 August 2019

बाढ़ का कहर

नजरों में वो भयावह मंजर है ,
मुश्किलों में आज कई घर हैं  ।

चारों ओर मचा दी तबाही ,
भीषण ये बाढ़ का कहर है  ।

जिंदगी औ मौत के जंग में ,
अपनों को खोने का डर है ।

देखो कैसे बदलती किस्मत ,
महलवासी  हो गये बेघर हैं ।

कल तक जो  देते थे सहारा  ,
आज वो भटकते दर - बदर  हैं ।

फले - फूले  नदी के किनारे ,
आज विनष्ट हुए वे नगर हैं ।

बनने - बिगड़ने पे न रो  "दीक्षा "
यही जिंदगी का सफर है ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Monday, 12 August 2019

छोटे भाई

भाई - बहन के प्यार को
शब्द परिभाषित नहीं कर सकते
शब्द वहन कर ही नहीं सकते
उन भावों को जो
मैं महसूस करती हूँ
तुम्हारे लिए क्योंकि
यह बन्धन नहीं है मोहताज
महज रेशमी धागों का ,
यह रिश्ता तो रक्त अनुबन्ध है
जो दौड़ रहा है ..
मेरी धमनियों और शिराओं में ,
तुम्हारा स्थान है मेरे हृदय में
तुम्हारा बचपन मैंने जिया है
अपने बेटे के बचपन में ,
तुम्हारी छबि उसमें देखकर
मैंने उसे बहुत - बहुत प्यार किया है
शायद उस कमी को भी
भर देना चाहती थी जो
तुम्हारे जीवन में आई
माँ के चले जाने के बाद
मेरे हृदय में कोष है प्यार का
भाई तुम्हारे लिए
जब भी तुम्हें जरूरत हो
तुम उसमें से ले लेना क्योंकि
यह कभी रीतेगा नहीं
बल्कि निकालने से
और भी बढ़ता जायेगा
कभी अपने - आप को
अकेला मत समझना
तुम्हारे साथ रहूँगी मैं हमेशा
दुनिया के अंत तक । 😘😘

तुम्हारी बहन --
डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Sunday, 11 August 2019

रक्षाबंधन

युगों - युगों तक अमर रहेगा राखी का त्यौहार ,
पावन रहा है सुदृढ़ रहेगा भाई बहन का प्यार ,
ये दिल का बंधन है ऐसा , ये रक्षाबंधन है ऐसा ।

तीन रंगों से बनी ये राखी करती यही पुकार ,
मिट जाते हैं देश की खातिर करते इसे जो प्यार ,
दायित्वों का बंधन है ऐसा ,ये रक्षाबंधन है ऐसा ।

भाई को तिलक लगाकर , बहना बाँधे स्नेह के तार ,
दिल से यही दुआएं  माँगे , जिये  वो बरस हजार ,
स्नेह का दर्पण  है ऐसा ,ये रक्षाबंधन है ऐसा ।

देखभाल , सम्मान दिलाता , लेता रक्षा का भार ,
उसके आँचल में हो खुशियाँ, सुखी  रहे संसार ,
भाइयों का मन  है ऐसा , ये रक्षाबंधन है ऐसा ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Friday, 9 August 2019

ग़ज़ल

प्यार मुझे करना भरपूर ,
नज़रों से कभी न होना दूर ।

तेरी मोहब्बत का है असर ,
चेहरे पर छाया जो नूर ।

साथ छोड़कर न जाना सनम ,
दुनिया चाहे करे मजबूर ।

खुदा की नेमत से पाया तुझे ,
इश्क न बना दे मुझे मगरूर ।

रस्मे - मोहब्बत जुदाई की ,
दर्द सहना  भी मुझे मंजूर ।

दिलवालों को सताती रही ,
दुनिया का है यही दस्तूर ।

इम्तिहानों से न डरना " दीक्षा ",
दीवानापन कर देता मशहूर ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Wednesday, 7 August 2019

तेरा आना

तेरा आना जीवन में यूँ ,
जैसे तपती धरा पर
सावन की पहली बारिश
पूरी हो जाये ज्यों
मन की अधूरी ख्वाहिश
उनींदी आँखों में ठहरे
कुछ रुपहले सपने
मोतियों की लड़ियों से
रूप सजाते झरने
नीम अंधेरी रातों में
चाँद का निकल आना
धीमे से कलियों का खिलना
मंद - मंद मुस्काना
तेरा आना जीवन में ज्यों
लहरों का मचलना
सतरंगी इंद्रधनुष का बनना
रंगीन तितलियों का
फूलों पर मंडराना
नेह  से भीगा
एक  एहसास  मीठा सा
प्यार का हुआ
आभास सोंधा सा
छलक उठा ज्यों
खुशियों का पैमाना ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

बारिश (बाल गीत )

सोनू की जब आँख खुली ,
आँगन देखी धुली - धुली ।
पत्ते भी लगते नहाये से ,
कलियाँ भी खुली- खुली।
आम के बीज से फूटे अंकुर ,
नन्हीं नन्हीं कोंपल निकली ।
शाखों की फुनगी हुई सुनहरी ,
पत्तियों से बूंदें फिसली ।
अरे ! ये सड़क किसने धोये ,
लगती कितनी चमकीली ।
बारिश के आने से देखो ,
दुनिया हुई उजली - उजली ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

मेघा ( बाल गीत )

मेघा मेघा काले मेघा
जल्दी आना तुम ।
सूखे - सूखे  खेतों पर ,
जल बरसाना तुम ।
पर्वतों पर चढ़कर ,
ऊँचे - ऊँचे पेड़
अम्बर को ताक रहे हैं ।
पंजों पर खड़े होकर ,
तुम्हें  ही झाँक रहे हैं ।
बड़ी देर हुई इस बार ,
दरस दिखाना तुम ।
सूखे - सूखे खेतों पर ,
जल बरसाना तुम ।
नदी , तालाब , कुँए ,
सब सूख गए हैं ।
इंसानों की किस भूल पर ,
आप रूठ गये हैं ।
भूल सुधरेंगे अपनी ,
मत तरसाना तुम ।
सूखे - सूखे खेतों पर
जल बरसाना तुम ।।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

चलो आज

 चलो आज ...
बीती बातों को भूल जाते हैं ,
आज को जीते हैं ,
जी भर कर मुस्कुराते हैं ।

क्या होगा यह सोचकर कि
वो कह न पाये जो कहना था
वो सब कर न पाये जो करना था
क्यों इस बात पर वक्त गंवाते हैं ।
चलो आज बीती बातों को भूल जाते हैं ।

क्यों रोयें यह बोलकर कि
उसने मेरे बारे में ऐसा क्यों कहा
मेरी बातों को अनसुना कर दिया
क्यों दूसरों की बातों को दिल पे लगाते हैं ।
चलो आज बीती बातों को भूल जाते हैं ।

क्यों  सोचें  इस तरह कि
तुम्हें उसके जैसे ही करना है
बस  उसके पीछे ही पीछे चलना है
हम अपने लिए एक नई राह बनाते हैं ।
चलो आज बीती बातों को भूल जाते हैं।

क्या हो गया कि
एक प्यारा साथी छूट  गया
दिल से  जुड़ा  रिश्ता टूट गया
टूट जाने पर परिंदे नये  घोंसले बनाते हैं ।
चलो आज बीती बातों को भूल जाते हैं ।
आज को जीते हैं , जी भर मुस्कुराते हैं ।

स्वरचित   - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Tuesday, 6 August 2019

जन्मस्थली ( संस्मरण )

#जन्मस्थली

" जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी "
अर्थात जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर होती है । मेरा जन्म दुर्ग जिले के धमधा में हुआ , उस दिन देवउठनी एकादशी थी । जन्मस्थली का आकर्षण शायद कभी खत्म नहीं होता । वहाँ से गुजरते हुए मन अतीत की गलियों में पहुँच ही जाता है । वो सुनहरा बचपन , वो प्रायमरी स्कूल और वे दोस्त । इतनी छोटी उम्र में भी मैंने बहुत सी पक्की यादें संजोकर रखी हैं । पापा जी की पोस्टिंग वहीं थी , वहाँ हम लोग लगभग  दस वर्ष रहे । उस जगह और वहाँ के लोगों से अब भी मुझे बहुत लगाव महसूस होता है । वह जमाना था जब पड़ोसियों से बहुत ही मधुर रिश्ता होता था , सब्जी की कटोरी  का आदान - प्रदान रिश्तों में भी स्वाद भर जाता था । अड़ोस - पड़ोस में  किसी के घर कुछ भी बनता तो उसके हिस्से सबके लिए होते थे । तमेरपारा में  हमारे पड़ोस के घर से मुझे बहुत प्यार मिला । मम्मी बताती थी कि मैं खूब गोल - मटोल सी थी तो डीडीबाई  (पड़ोसन )  मुझे अपने साथ घर ले जाती और वहाँ मैं घण्टों रह जाती । अपनी तुतलाती बोली में उन्हें डीडी बाई कहती तो वह प्रसन्न हो जाती और मुझ पर निहाल हो जाती । वर्षों बाद उनके बेटे के द्वारा  उनके पार्षद बनने पर अत्यंत प्रसन्नता हुई और बाद में उनके निधन का  समाचार जानकर कुछ खो देने का एहसास भी । वहीं मम्मी ने अपने एक  सहनाम के साथ गंगाजल बदा था जिनके परिवार के साथ हमारे सम्बन्ध वर्षों तक बने रहे । महज गेहूँ  के पौधे ( भोजली ) बदल कर दोस्ती को एक प्रगाढ़ रिश्ते में बदल दिया  जाता था । वहाँ मम्मी को मायके की तरह ही दुलार मिलता । कई वर्षों बाद भी वहाँ का जिक्र छिड़ने पर कुछ भावुक सी हो जाती हूँ मैं क्योंकि उन यादों के मूल में माँ की यादें भी हैं ।
        बचपन की एक सहेली लगभग बीस वर्षों बाद मिली तो हमने अपनी बातों का पिटारा खोल कर रख दिया । बचपन में तू ऐसा करती थी ..हमने क्या क्या मस्ती की थी आदि आदि ।आज न हमारे पास उतना समय है न पड़ोसियों  के पास । कभी - कभी तीज - त्यौहारों पर प्लेट्स भी आते जाते हैं पर अब वो अपनापन कहीं खो सा गया है । व्यस्तता और स्वार्थ ने एक नए समाज को जन्म दिया है जहाँ सिर्फ दिखावा है विश्वास नहीं । फार्मेलिटी है अपनापन नहीं । बनावटीपन है सहजता नहीं । वो वातावरण की शुद्धता खो गई है जहाँ अपनी खुशियाँ बाँटने के लिए कोई बंधन नहीं था और प्यार लुटाने की कोई सीमा नहीं थी । आज भी तरंगित हो उठता है मन उन बातों को याद करके ...भीतर ही भीतर कुछ रीसने लगता है और अनायास ही पलकें भीग जाती हैं । जन्मस्थली तो अब भी है पर वो लोग नहीं हैं जिनका स्नेह अपनी स्मृति में गांठ बांध कर रखा है मैंने धरोहर की तरह ।

आपकी अपनी
डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Monday, 5 August 2019

सिर्फ तुम

इन आँखों ने देखे ख्वाब कई ,
उन ख्वाबों की ताबीर हो तुम ।
संजोकर  रखा है जिसे बरसों ,
वो अनमोल जागीर हो तुम ।
बाँध लिया मुझे जन्मों के लिए ,
प्रीत की वो जंजीर हो तुम ।
मोल न चुका सकूँ कभी भी,
वो बेशकीमती बेनजीर हो तुम ।
खुदा ने तराशा तुम्हें मेरे लिए ,
हाथों में किस्मत की लकीर हो तुम ।
सिर्फ तुम मेरे मन - मंदिर के देव ,
दिल में मढ़ी सुन्दर तस्वीर हो तुम ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

दोस्ती बनी मिसाल

बोलती  तस्वीर - 91
तिथि - 4 अगस्त 2019
वार - रविवार

मोरपंख  शीश धरे , गले वैजयंती माल ,
स्याम वर्ण पीताम्बर धारी नन्द के लाल ।
छुपकर बैठे हरी घास पर ले कदम्ब की छांह ,
लड्डू लिये हाथों में सामने मिष्ठान्न की थाल ।
एक - दूजे की आँखों में रहे प्यार से झाँक ,
डाल बाँह गले में श्रीदामा संग बैठे गोपाल ।
पग पैंजनी कर्ण कुण्डल गले स्वर्ण माल ,
जनेऊधारी सुदामा को गले लगाते दीनदयाल।
भेद नहीं ऊंच - नीच का , हृदय  है विशाल ,
कृष्ण - सुदामा की दोस्ती  बनी एक मिसाल ।
नेह , विश्वास  के रिश्ते में भक्ति हुई निहाल ,
बिना कहे जो पढ़ लेते सखा के दिल का हाल ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Sunday, 4 August 2019

दोस्ती

मोरपंख  शीश धरे , गले वैजयंती माल ,
स्याम वर्ण पीताम्बर धारी नन्द के लाल ।
छुपकर बैठे हरी घास पर कदम्ब की छांह ,
लड्डू लिये हाथों में सामने मिष्ठान्न की थाल ।
एक - दूजे की आँखों में रहे प्यार से झाँक ,
डाल बाँह गले में श्रीदामा संग बैठे गोपाल ।
भेद नहीं ऊंच - नीच का , हृदय  है विशाल ,
कृष्ण - सुदामा की दोस्ती  बनी एक मिसाल ।
नेह , विश्वास  के रिश्ते में भक्ति हुई निहाल ,
बिना कहे जो पढ़ लेते सखा के दिल का हाल ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Thursday, 1 August 2019

हरेली पर्व

सावन कृष्ण पक्ष की अमावस्या को छत्तीसगढ़ में हरेली पर्व मनाया जाता है । कृषक खेती का प्रारंभिक कार्य पूर्ण कर इस दिन अपने हल , कुदाली , फावड़ा व अन्य कारीगर अपने औजारों को साफ कर उनकी पूजा करते हैं तथा गुलगुला , बबरा का प्रसाद चढ़ाते हैं जो गुड़ व आटे से बनता है । कहा जाता है कि इस दिन नकारात्मक शक्तियां प्रभावी होती  हैं इसलिए घर के दरवाजे पर नीम की पत्तियां खोंसी जाती हैं और पहले लुहार घर की  चौखट पर कील गड़ाते थे । इसके लिए उन्हें  चावल या रुपये के रूप में दान दिया जाता है। इस दिन से हिंदुओं के त्यौहार की शुरुआत होती है  । घर के बाहरी दीवार पर मानव आकृतियां बनाई जाती हैं । बांस से गेड़ी बनाई जाती है तथा पारम्परिक खेल जैसे फुगड़ी , बिल्लस , कबड्डी , पिट्ठुल खेला जाता है । यह हरियाली का त्यौहार है जो प्रकृति के साथ साथ मनुष्य के जीवन में खुशियों व उमंगों का नव संचार करता है ।

डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

सवनाही ( कहानी )


          इस बार वर्षों बाद गाँव जाना हुआ....दरअसल दादा जी का स्वास्थ्य ठीक नहीं होने के कारण उन्हें देखने की प्रबल इच्छा हुई इसलिए छुट्टी लेकर बच्चों के साथ  गाँव चली  आई....वरना सावन के  इस  महीने में कभी आना नहीं हुआ । किसी खूबसूरत तस्वीर की तरह लग रहा था गाँव... खेतों से घिरे पच्चीस - तीस छोटे - बड़े मकान  ...उत्तर दिशा में एक बड़ा सा तालाब गाँव के सौन्दर्य में वृद्धि कर रहा था....पानी से भरे  तालाब के चारों तरफ ऊँचे - ऊँचे ताड के पेड़ ,
बरगद , पीपल , नीम की सुहानी छाँव  मन को मुग्ध कर रही थी । तालाब के किनारे महादेव का छोटा सा मन्दिर इस खूबसूरत वातावरण को  पावन बना रहा था । प्रकृति के संरक्षण के साथ आस्था का  संगम  भारत के गाँवों में ही दिखाई देता है । भारतीय संस्कृति  व परम्पराओं में वैज्ञानिकता  रची - बसी  है ।
               वैसे हर मौसम का विशेष प्रभाव होता है परन्तु बारिश का मौसम  बहुत खास होता है । प्रकृति के नवीन स्वरूप के साथ मानव मन भी सक्रिय हो उठता है । कृषक अपनी कर्मस्थली में जुट जाते हैं , वणिक व्यवसाय में तथा श्रमिक श्रम - साधना में तल्लीन हो जाते हैं । जब मैं गाँव में थी तभी कृष्ण पक्ष की अमावस्या को मनाया जाने वाला हरेली त्यौहार पड़ा । छत्तीसगढ़ का यह प्रथम त्यौहार है ,  इसके बाद ही बाकी सभी त्यौहार आते हैं... यह कर्म की पूजा का त्यौहार है... खेतों में धान की रोपाई  , निराई - गुड़ाई हो चुकी होती है  । हल , कुदाल आदि कृषि उपकरणों को विश्राम देने का अवसर आ जाता है ।  कृषि के प्रथम चरण की पूर्णता का उत्साह पकवानों की महक की तरह सम्पूर्ण वातावरण में बिखर जाता है । छत्तीसगढ़ के ग्रामीण अंचल में यह त्यौहार विशेष रूप से मनाया जाता है ।  शहरों में कार्मिकों  के अलावा अन्य लोगों में इसके लिए उतना उत्साह नहीं देखा जाता ।
       बहुत  वर्षों  के बाद  इस अवसर पर मैं गाँव आ पाई हूँ । मेरे बच्चों के लिए तो यह प्रथम अवसर  था और वे बड़े उत्साह के साथ  गाँव की परम्पराओं से  रूबरू हो रहे थे  और उनमें शामिल भी  हो रहे थे  । सबसे पहले हल , फावड़ा , कुदाल , गैती इत्यादि को अच्छी तरह साफ किया गया , फिर उन्हें गोबर की लिपाई किये हुए पवित्र स्थान पर रखकर अक्षत  , पुष्प , धूप अगरबत्ती जलाकर उनकी पूजा की गई  । नारियल ,  मीठे गुलगुले और मीठे  चीला का भोग लगाया  गया  और सबको वितरित किया गया । इस अवसर पर पारम्परिक खेलों का आयोजन किया जाता है जैसे कबड्डी , फुगड़ी , गिल्ली - डंडा आदि । बाँस की दो खपच्चियों को जोड़कर गेड़ी बनाई जाती है जिस पर चढ़ने का अपना ही मजा है । बच्चों ने  गेड़ी पर चढ़ने का भी असफल प्रयास किया और दूसरे बच्चों की गेड़ी की मच - मच करती धुन का  आनंद लिया ।  अचानक उनकी नजर  कुछ घरों की बाहरी दीवार पर बनी आड़ी  तिरछी लकीरों पर पड़ी जिसे गोबर व सिंदूर से बनाया गया था  । प्रतीकात्मक मानव आकृतियों सी यह रचना  सवनाही   कहलाती है ।  स्थानीय मान्यता के अनुसार अमावस्या की काली रातों को बुरी शक्तियों के जागृत होने की  कहानियों से जोड़ा जाता रहा है । विशेषकर हरेली अमावस्या को जादू टोना करने वाली काली शक्तियां प्रबल हो जाती हैं इसलिए उनसे बचने के लिए दीवारों पर सवनाही बनाई जाती है । बचपन में दादी इससे जुड़ी कई कहानियाँ सुनाती । रात को भूत - प्रेत आवाज लगाते हैं यदि उन्हें उत्तर दे दो तो वे अपने साथ ले जाते हैं , सुनकर डर के मारे हम कानों पर कपड़ा लपेटकर सोते । गोबर की बनी यह  सवनाही उन्हें घर से दूर रखती है ऐसा कहा जाता था । गर्मी की रातों में हम सभी छत पर सोते और ऐसे कितने ही किस्से  मोती की लड़ियों की तरह खुलने लगते । कुछ सुनी - सुनाई बातों और कुछ मनगढ़ंत किस्सों  को जोड़कर कई कहानियाँ बुनी जातीं और भय से हमारे हाथों के रोयें खड़े हो जाते , तब भी उन कहानियों को सुनने की दिलचस्पी खत्म न होती ।
        गाँव के घर - आँगन , छत , अडोस - पड़ोस , तालाब , खेत - खलिहान सब अपनी गोद में न जाने कितने ही अतीत के किस्से छुपाये हुए थे ।  उन पर नजर पड़ते ही धान की खड़ी फसल की तरह मन की भीगी धरा पर लहलहा उठे । मधुर स्मृतियों  के पन्ने उलटते - पलटते  मैं कब नींद के आगोश में पहुँच गई पता ही नहीं चला ।
         दूसरे  दिन सुबह सोकर उठी तो वहाँ का माहौल बिल्कुल ही बदला हुआ था ।  कल तक त्यौहार के रंग में रंगा  गाँव आज दुःख , शोक में  डूबा हुआ था । पन्द्रह वर्ष  की  एक बच्ची जो दैनिक कार्यक्रम निपटाने मैदान की ओर गई थी.... उसके साथ अनाचार हो गया था ।  बड़े शहरों में  ही ऐसी अमानवीय घटनाएं होती सुनी थी ...अब गाँव में भी । यह समाचार  सुनकर मन खिन्न हो गया था , गाँव की स्वच्छ , सोंधी हवा में यह कैसा जहर घुल गया ...यहाँ के  भोले - भाले शांत लोगों के बीच ऐसी कलुषित प्रवृति कैसे पनप गई । यहाँ की पावन  माटी  में बुराई का बीज कैसे अंकुरित हो गया । संस्कृतियों , परम्पराओं की धरा में ये कैसी प्रदूषित आंधी चली है जिसने मानवीय मूल्यों को क्षत -  विक्षत कर  दिया । जहाँ सिर्फ और सिर्फ सद्भावना व सहृदयता थी वहाँ नशा , दुष्प्रवृत्तियों  , पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण युवा पीढ़ी   को दिग्भ्रमित कर रहा है । मन में बस एक ही सवाल बार - बार उठ रहा है... हमारे बुजुर्गों ने भूत- प्रेत व बुरी आत्माओं से बचाने के लिए सवनाही बनाने की परम्परा बनाई थी । उन्हें क्या मालूम था कि  इंसान उनसे कहीं  अधिक  खतरनाक साबित होंगे ...काश !  दुष्प्रवृत्ति रखने वाले इन शैतानों को  दूर रखने के लिए भी  कोई सवनाही बनाई जा सकती ?

डॉ. दीक्षा चौबे ,
दुर्ग , छत्तीसगढ़