इस बार वर्षों बाद गाँव जाना हुआ....दरअसल दादा जी का स्वास्थ्य ठीक नहीं होने के कारण उन्हें देखने की प्रबल इच्छा हुई इसलिए छुट्टी लेकर बच्चों के साथ गाँव चली आई....वरना सावन के इस महीने में कभी आना नहीं हुआ । किसी खूबसूरत तस्वीर की तरह लग रहा था गाँव... खेतों से घिरे पच्चीस - तीस छोटे - बड़े मकान ...उत्तर दिशा में एक बड़ा सा तालाब गाँव के सौन्दर्य में वृद्धि कर रहा था....पानी से भरे तालाब के चारों तरफ ऊँचे - ऊँचे ताड के पेड़ ,
बरगद , पीपल , नीम की सुहानी छाँव मन को मुग्ध कर रही थी । तालाब के किनारे महादेव का छोटा सा मन्दिर इस खूबसूरत वातावरण को पावन बना रहा था । प्रकृति के संरक्षण के साथ आस्था का संगम भारत के गाँवों में ही दिखाई देता है । भारतीय संस्कृति व परम्पराओं में वैज्ञानिकता रची - बसी है ।
वैसे हर मौसम का विशेष प्रभाव होता है परन्तु बारिश का मौसम बहुत खास होता है । प्रकृति के नवीन स्वरूप के साथ मानव मन भी सक्रिय हो उठता है । कृषक अपनी कर्मस्थली में जुट जाते हैं , वणिक व्यवसाय में तथा श्रमिक श्रम - साधना में तल्लीन हो जाते हैं । जब मैं गाँव में थी तभी कृष्ण पक्ष की अमावस्या को मनाया जाने वाला हरेली त्यौहार पड़ा । छत्तीसगढ़ का यह प्रथम त्यौहार है , इसके बाद ही बाकी सभी त्यौहार आते हैं... यह कर्म की पूजा का त्यौहार है... खेतों में धान की रोपाई , निराई - गुड़ाई हो चुकी होती है । हल , कुदाल आदि कृषि उपकरणों को विश्राम देने का अवसर आ जाता है । कृषि के प्रथम चरण की पूर्णता का उत्साह पकवानों की महक की तरह सम्पूर्ण वातावरण में बिखर जाता है । छत्तीसगढ़ के ग्रामीण अंचल में यह त्यौहार विशेष रूप से मनाया जाता है । शहरों में कार्मिकों के अलावा अन्य लोगों में इसके लिए उतना उत्साह नहीं देखा जाता ।
बहुत वर्षों के बाद इस अवसर पर मैं गाँव आ पाई हूँ । मेरे बच्चों के लिए तो यह प्रथम अवसर था और वे बड़े उत्साह के साथ गाँव की परम्पराओं से रूबरू हो रहे थे और उनमें शामिल भी हो रहे थे । सबसे पहले हल , फावड़ा , कुदाल , गैती इत्यादि को अच्छी तरह साफ किया गया , फिर उन्हें गोबर की लिपाई किये हुए पवित्र स्थान पर रखकर अक्षत , पुष्प , धूप अगरबत्ती जलाकर उनकी पूजा की गई । नारियल , मीठे गुलगुले और मीठे चीला का भोग लगाया गया और सबको वितरित किया गया । इस अवसर पर पारम्परिक खेलों का आयोजन किया जाता है जैसे कबड्डी , फुगड़ी , गिल्ली - डंडा आदि । बाँस की दो खपच्चियों को जोड़कर गेड़ी बनाई जाती है जिस पर चढ़ने का अपना ही मजा है । बच्चों ने गेड़ी पर चढ़ने का भी असफल प्रयास किया और दूसरे बच्चों की गेड़ी की मच - मच करती धुन का आनंद लिया । अचानक उनकी नजर कुछ घरों की बाहरी दीवार पर बनी आड़ी तिरछी लकीरों पर पड़ी जिसे गोबर व सिंदूर से बनाया गया था । प्रतीकात्मक मानव आकृतियों सी यह रचना सवनाही कहलाती है । स्थानीय मान्यता के अनुसार अमावस्या की काली रातों को बुरी शक्तियों के जागृत होने की कहानियों से जोड़ा जाता रहा है । विशेषकर हरेली अमावस्या को जादू टोना करने वाली काली शक्तियां प्रबल हो जाती हैं इसलिए उनसे बचने के लिए दीवारों पर सवनाही बनाई जाती है । बचपन में दादी इससे जुड़ी कई कहानियाँ सुनाती । रात को भूत - प्रेत आवाज लगाते हैं यदि उन्हें उत्तर दे दो तो वे अपने साथ ले जाते हैं , सुनकर डर के मारे हम कानों पर कपड़ा लपेटकर सोते । गोबर की बनी यह सवनाही उन्हें घर से दूर रखती है ऐसा कहा जाता था । गर्मी की रातों में हम सभी छत पर सोते और ऐसे कितने ही किस्से मोती की लड़ियों की तरह खुलने लगते । कुछ सुनी - सुनाई बातों और कुछ मनगढ़ंत किस्सों को जोड़कर कई कहानियाँ बुनी जातीं और भय से हमारे हाथों के रोयें खड़े हो जाते , तब भी उन कहानियों को सुनने की दिलचस्पी खत्म न होती ।
गाँव के घर - आँगन , छत , अडोस - पड़ोस , तालाब , खेत - खलिहान सब अपनी गोद में न जाने कितने ही अतीत के किस्से छुपाये हुए थे । उन पर नजर पड़ते ही धान की खड़ी फसल की तरह मन की भीगी धरा पर लहलहा उठे । मधुर स्मृतियों के पन्ने उलटते - पलटते मैं कब नींद के आगोश में पहुँच गई पता ही नहीं चला ।
दूसरे दिन सुबह सोकर उठी तो वहाँ का माहौल बिल्कुल ही बदला हुआ था । कल तक त्यौहार के रंग में रंगा गाँव आज दुःख , शोक में डूबा हुआ था । पन्द्रह वर्ष की एक बच्ची जो दैनिक कार्यक्रम निपटाने मैदान की ओर गई थी.... उसके साथ अनाचार हो गया था । बड़े शहरों में ही ऐसी अमानवीय घटनाएं होती सुनी थी ...अब गाँव में भी । यह समाचार सुनकर मन खिन्न हो गया था , गाँव की स्वच्छ , सोंधी हवा में यह कैसा जहर घुल गया ...यहाँ के भोले - भाले शांत लोगों के बीच ऐसी कलुषित प्रवृति कैसे पनप गई । यहाँ की पावन माटी में बुराई का बीज कैसे अंकुरित हो गया । संस्कृतियों , परम्पराओं की धरा में ये कैसी प्रदूषित आंधी चली है जिसने मानवीय मूल्यों को क्षत - विक्षत कर दिया । जहाँ सिर्फ और सिर्फ सद्भावना व सहृदयता थी वहाँ नशा , दुष्प्रवृत्तियों , पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण युवा पीढ़ी को दिग्भ्रमित कर रहा है । मन में बस एक ही सवाल बार - बार उठ रहा है... हमारे बुजुर्गों ने भूत- प्रेत व बुरी आत्माओं से बचाने के लिए सवनाही बनाने की परम्परा बनाई थी । उन्हें क्या मालूम था कि इंसान उनसे कहीं अधिक खतरनाक साबित होंगे ...काश ! दुष्प्रवृत्ति रखने वाले इन शैतानों को दूर रखने के लिए भी कोई सवनाही बनाई जा सकती ?
डॉ. दीक्षा चौबे ,
दुर्ग , छत्तीसगढ़