Monday, 26 August 2019

ग़ज़ल

हमने क्या समझा था वे क्या निकले ,
होगी बहार सोचा था पर खिजां निकले ।

चेहरे पे  ओढ़कर झूठी  मुस्कान ,
वो हमदर्दी का चढाये मुखौटा निकले ।

मुँह में राम  बंदूक बगल में रखते ,
मेरे कत्ल का लेकर  वो सामान निकले ।

हाथ मिलाते है पीठ में खंजर लेकर ,
मुस्कुराते होठों से उनकी बददुआ निकले ।

करते थे जिनसे वफ़ा की उम्मीद" दीक्षा ",
सनम वही संगदिल बेवफा निकले ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग ,  छत्तीसगढ़

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