हमने क्या समझा था वे क्या निकले ,
होगी बहार सोचा था पर खिजां निकले ।
चेहरे पे ओढ़कर झूठी मुस्कान ,
वो हमदर्दी का चढाये मुखौटा निकले ।
मुँह में राम बंदूक बगल में रखते ,
मेरे कत्ल का लेकर वो सामान निकले ।
हाथ मिलाते है पीठ में खंजर लेकर ,
मुस्कुराते होठों से उनकी बददुआ निकले ।
करते थे जिनसे वफ़ा की उम्मीद" दीक्षा ",
सनम वही संगदिल बेवफा निकले ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़
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