Tuesday, 6 August 2019

जन्मस्थली ( संस्मरण )

#जन्मस्थली

" जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी "
अर्थात जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर होती है । मेरा जन्म दुर्ग जिले के धमधा में हुआ , उस दिन देवउठनी एकादशी थी । जन्मस्थली का आकर्षण शायद कभी खत्म नहीं होता । वहाँ से गुजरते हुए मन अतीत की गलियों में पहुँच ही जाता है । वो सुनहरा बचपन , वो प्रायमरी स्कूल और वे दोस्त । इतनी छोटी उम्र में भी मैंने बहुत सी पक्की यादें संजोकर रखी हैं । पापा जी की पोस्टिंग वहीं थी , वहाँ हम लोग लगभग  दस वर्ष रहे । उस जगह और वहाँ के लोगों से अब भी मुझे बहुत लगाव महसूस होता है । वह जमाना था जब पड़ोसियों से बहुत ही मधुर रिश्ता होता था , सब्जी की कटोरी  का आदान - प्रदान रिश्तों में भी स्वाद भर जाता था । अड़ोस - पड़ोस में  किसी के घर कुछ भी बनता तो उसके हिस्से सबके लिए होते थे । तमेरपारा में  हमारे पड़ोस के घर से मुझे बहुत प्यार मिला । मम्मी बताती थी कि मैं खूब गोल - मटोल सी थी तो डीडीबाई  (पड़ोसन )  मुझे अपने साथ घर ले जाती और वहाँ मैं घण्टों रह जाती । अपनी तुतलाती बोली में उन्हें डीडी बाई कहती तो वह प्रसन्न हो जाती और मुझ पर निहाल हो जाती । वर्षों बाद उनके बेटे के द्वारा  उनके पार्षद बनने पर अत्यंत प्रसन्नता हुई और बाद में उनके निधन का  समाचार जानकर कुछ खो देने का एहसास भी । वहीं मम्मी ने अपने एक  सहनाम के साथ गंगाजल बदा था जिनके परिवार के साथ हमारे सम्बन्ध वर्षों तक बने रहे । महज गेहूँ  के पौधे ( भोजली ) बदल कर दोस्ती को एक प्रगाढ़ रिश्ते में बदल दिया  जाता था । वहाँ मम्मी को मायके की तरह ही दुलार मिलता । कई वर्षों बाद भी वहाँ का जिक्र छिड़ने पर कुछ भावुक सी हो जाती हूँ मैं क्योंकि उन यादों के मूल में माँ की यादें भी हैं ।
        बचपन की एक सहेली लगभग बीस वर्षों बाद मिली तो हमने अपनी बातों का पिटारा खोल कर रख दिया । बचपन में तू ऐसा करती थी ..हमने क्या क्या मस्ती की थी आदि आदि ।आज न हमारे पास उतना समय है न पड़ोसियों  के पास । कभी - कभी तीज - त्यौहारों पर प्लेट्स भी आते जाते हैं पर अब वो अपनापन कहीं खो सा गया है । व्यस्तता और स्वार्थ ने एक नए समाज को जन्म दिया है जहाँ सिर्फ दिखावा है विश्वास नहीं । फार्मेलिटी है अपनापन नहीं । बनावटीपन है सहजता नहीं । वो वातावरण की शुद्धता खो गई है जहाँ अपनी खुशियाँ बाँटने के लिए कोई बंधन नहीं था और प्यार लुटाने की कोई सीमा नहीं थी । आज भी तरंगित हो उठता है मन उन बातों को याद करके ...भीतर ही भीतर कुछ रीसने लगता है और अनायास ही पलकें भीग जाती हैं । जन्मस्थली तो अब भी है पर वो लोग नहीं हैं जिनका स्नेह अपनी स्मृति में गांठ बांध कर रखा है मैंने धरोहर की तरह ।

आपकी अपनी
डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

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