प्रकृति के रंग अनोखे ,
कहीं धरा रही सूखी ,
कहीं बादल जमकर बरसे ।
कुदरत के ढंग अनोखे ,
कहीं अन्न बर्बाद हो रहा ,
कहीं कोई इक दाने को तरसे ।
मानव तेरे कृत्य अनोखे ,
परवरिश की जिस माँ - बाप ने ,
उन्हें ही निकाला घर से ।
दुनिया के रिवाज अनोखे ,
फैशन की अंधी दौड़ में ,
संस्कारों को काटे जड़ से ।
ईश्वर तेरे न्याय अनोखे ,
कर दे फैसला झूठ - सच का ,
निकल गया अब पानी सर से ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़
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