Monday, 19 August 2019

प्रकृति के रंग अनोखे

प्रकृति के रंग अनोखे ,
कहीं धरा रही सूखी ,
कहीं बादल जमकर बरसे ।

कुदरत के ढंग अनोखे ,
कहीं अन्न बर्बाद हो रहा ,
कहीं कोई इक दाने को तरसे ।

मानव तेरे कृत्य अनोखे ,
परवरिश की जिस माँ - बाप ने ,
उन्हें ही निकाला घर से ।

दुनिया के रिवाज अनोखे ,
फैशन की  अंधी दौड़ में ,
संस्कारों को काटे जड़ से ।

ईश्वर तेरे न्याय अनोखे ,
कर दे फैसला झूठ - सच का ,
निकल गया अब पानी सर से ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

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