Friday, 31 May 2019

देते वक्त ( लघुकथा )

मधु को अपने एक रिश्तेदार के विवाह की वर्षगांठ में जाना था । व्यस्तता के कारण वह उपहार खरीदने जा नहीं पाई थी । घर पर साड़ी और पेंट शर्ट का कपड़ा रखा हुआ था उसे ठीक लगा तो उसने वही दे दिया । बाद में उसे पता चला कि  शायद उन्हें वह कपड़ा पसंद नहीं आया था ..उन्हें इसके बारे में बात करते हुए उसने सुन लिया था ।
       वह उसकी  क्वालिटी  खराब होने की शिकायत कर रहे थे ..सुनकर मधु को हँसी आ गई थी क्योंकि वह भूल गये थे  कई वर्ष पहले  यही उपहार उन्होंने मधु को गृह - प्रवेश में  दिया था । देते वक्त शायद उन्होंने कपड़ों की  क्वालिटी नहीं  देखी  थी ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Thursday, 30 May 2019

सीखा मैंने जीना ( कहानी )

  सीखा  मैंने जीना (कहानी)

      निवास जी की आँखों से आँसू बहने लगे थे..आज वह लड़का उनकी मुसीबत में साथ दे रहा था जिससे   उन्हें हमेशा चिढ़ होती थी... हर गणपति पूजा और दुर्गा पूजा के पहले वह अपनी टोली के साथ उनके दरवाजे पर पहुँच जाता था और  जिद कर उनकी जेब ढीली करवा जाता था । वह बिंदास अपनी  ही दुनिया में मस्त रहता , उसके लिए दोस्ती  सबसे अधिक महत्व रखती थी.. दो चार  दोस्त उसके साथ दिखते ही रहते । निवास जी अपने बच्चों को उससे दूर  रहने की सलाह देते । उन्हें कभी मोहल्ले के दूसरे बच्चों के साथ घुलने -मिलने नहीं दिया उन्होंने  ताकि वे उनकी संगति में बिगड़ न जायें । अपने दोनों बेटों को पढ़ाई और ट्यूशन में ही उलझाये रखा । कभी - कभी एक कसक सी उठती है उनके दिल में । बच्चों को कभी  बचपन का मजा नहीं लेने दिया उन्होंने... बेचारे..उनके कड़े अनुशासन में  बेबस से  बालकनी से नीचे दूसरे बच्चों को खेलते  देखते रहते थे । खैर , उन्होंने जो भी किया उनका भविष्य सँवारने के लिए किया  ..इसीलिए तो वे आज अच्छे पदों पर हैं , अमेरिका में रह रहे हैं । बड़े फख्र से बात करते हैं वे अपने बच्चों की सफलता के बारे में ।

   यह मोहल्ले छाप , आवारा घूमने वाला लड़का यहीं रहा हमेशा । हर साल गणपति , दुर्गा पूजा धूमधाम से मनाता , तरह - तरह के आयोजन करवाता , घर - घर याद से प्रसाद बँटवाता । दिसम्बर की छुट्टियों में क्रिकेट प्रतियोगिता करवाता । दिन भर वह घर के बाहर ही दिखता , पता नहीं कभी पढ़ता भी है  कि नहीं.. निवास जी उसे देखकर हमेशा सोचते । पर  वह हर साल जैसे तैसे पास हो ही जाता । अभी भी शायद कोई छोटी - मोटी नौकरी कर रहा है और फिर भी वैसा ही खुश दिखता है जैसे पहले दिखता था । ये कैसे लोग हैं जो कम सुविधाओं के बीच रहकर भी हमेशा सन्तुष्ट दिखते हैं । किसी से  आगे बढ़ने की कोई होड़ नहीं , कोई महत्वाकांक्षा नहीं ..ये जिंदगी की प्रवाह में बस बहते चले जाते हैं बिना किसी विरोध के ।  रिश्तेदारों के शादी , जन्मदिन इत्यादि कार्यक्रमों में पूरे उत्साह के साथ शिरकत करना  जैसे इनका प्रथम कर्तव्य होता..अपने पड़ोस के उस परिवार का इतना अधिक सामाजिक होना कई बार उन्हें  कचोटता भी था क्योंकि उनके यहाँ  इतने आने - जाने वाले , उनका ख्याल रखने वाले थे । निवास जी स्वयं कहीं आये गये नहीं तो अब उनके घर कौन आयेगा । जिंदगी भर अपना स्वार्थ ही देखा उन्होंने , सामाजिक दायित्वों को कभी महत्वपूर्ण समझा ही नहीं । आज जब बेटे बाहर सेटल हो गये और पत्नी भी  जीवन की राह में अकेला छोड़ गई अब अपनों की कमी महसूस हो रही है । " अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत "  जिंदगी बीत जाने के बाद जीने का सलीका सीखा भी  तो किस काम का ।
       दरवाजे पर हुई आहट उन्हें स्मृतियों के गलियारे से वर्तमान के दायरे में ले आई थी.. शायद यह वही लड़का था जिसके बारे में वो सोच रहे थे, उनके पड़ोसी का लड़का रमन । "अंकल उठिए मैं आपके लिए खाना लाया हूँ.."अपने हाथ के टिफिन को टेबल पर रखते हुए उसने कहा तो आँखें भर आईं थी उनकी --' अरे ! बेटा तकलीफ करने की क्या जरुरत थी ..मैं कुछ भी खा लेता , कमला कल  वापस आ जायेगी  फिर कोई दिक्कत नहीं है ।' मेरी मेड एक विवाह समारोह में गई हुई थी और उसी बीच  मैं बाथरूम में  फिसल कर गिर पड़ा था... मेरे पैर में फ्रैक्चर हो गया था । पता नहीं किसने रमन तक यह खबर पहुँचा दी थी और अस्पताल ले जाने से लेकर मेरे  पैर में प्लास्टर बंधने तक वह मेरे साथ लगा रहा । मुझे घर छोड़कर शायद वह खाना बनवाने के लिए अपने घर चला गया था  , आज उसने अपने ऑफिस से छुट्टी ले ली थी  ...मेरे लिए यह सब अद्भुत था..मुझे याद नहीं मैंने जीवन में किसी और के काम के लिए कभी छुट्टी ली हो । रमन मुझे खाना खिलाकर चला गया था यह ताकीद करके कि मुझे कोई भी जरूरत होगी तो मैं उसे तुरंत फोन करूँगा । अपना फोन नम्बर उसने मेरे स्मार्टफोन में सेव कर दिया था ...और अपनी मीठी मुस्कान की छाप मेरे जेहन में । उसके जाने के बाद भी मैं उसके बारे में ही सोचता रहा ।
         मुझे अपनी छोटी सोच पर ग्लानि हो रही थी ।  बच्चों को  पढ़ा लिखाकर उनके कैरियर बनाने  में जीवन की सफलता ढूँढने वाला मैं.. क्या सच में सफल हूँ , खुश हूँ । बच्चे मुझे ,  अपनी माँ को छोड़कर क्या विदेश जाना चाहते थे । उसकी माँ अंतिम समय में अपने बच्चों को देखने की साध लिए हुए ही चली गई । परिवार की खुशी साथ रहने में होती है , हम कभी कोई त्यौहार  का मजा नहीं ले पाये ..बस अपनी खुशियों से समझौता ही करते रहे । अब सब कुछ मिल भी गया तो किस काम का..जो समय बीत गया अब वो वापस तो नहीं आयेगा । कुछ बड़ा पाने के लिए हम न जाने कितनी छोटी - छोटी ख़ुशियों को नजरअंदाज करते हैं ।  रमन भले ही बहुत आगे न जा पाया पर वह अपने परिवार के साथ है... अपने माता - पिता की सेवा कर रहा है.. उन्हें वो सब खुशियाँ दे रहा है जो उन्हें चाहिए । अपने पोते - पोती के लाड़ - दुलार , देखरेख में उनका दिन कैसे बीतता है पता ही नहीं चलता और एक तरफ वो घड़ी के काँटे देखते रहते हैं जो बीतने का नाम ही नहीं लेते । बेटे चाहते हैं कि वो भी उनके साथ रहे पर पता नहीं क्यों विदेश में वे एक माह से ज्यादा नहीं रह पाते.वहाँ का साफ - सुथरा परिवेश  भी उन्हें बाँध नहीं पाता..दम घुटता सा लगता है.. अपने देश सी स्वतंत्रता महसूस नहीं होती । यहाँ  अड़ोस - पड़ोस सब अपने हैं , उनके मन  में जमा कुछ पिघल सा गया था ।
     परिवर्तन प्रकृति का नियम है । मौसम बदलते हैं भीषण गर्मी के बाद प्यासी धरा बारिश का महत्व जान पाती है । पतझड़ के बाद ही बहारों का आगमन जीवन में उत्साह भर जाता है । यदि दुःख का एहसास न हो तो शायद हम सुख का आनंद न ले पायें । बिस्तर पर रहे वो पैतालीस दिन निवास जी के जीवन में बदलाव ले आये थे । रमन और उसका पूरा परिवार उनकी देखरेख में लगा रहा । जिन्हें कभी नजर भर देखा भी नहीं वे बिना किसी अपेक्षा के उनका ख्याल रख रहे थे ।  सचमुच जीना इसी  का नाम है  , अपने लिए नहीं दूसरों के लिए । सरल होना भी कई लोगों के लिए इतना कठिन क्यों हो जाता है ।   अपने बड़प्पन में इंसान दूसरों के मन की अच्छाई नहीं देख पाता  । मन की तरलता ही सारे भेद भुला  सकती है और सबको अपना सकती है ।
        पैर ठीक होने के बाद निवास जी बाहर घूमने , लोगों से मिलने , सामाजिक कार्यक्रमों में आने - जाने लगे हैं । रमन का घर तो उनका दूसरा घर हो गया है और उसके बच्चों के वे छोटे दादा बन गये हैं ...रमन को उन्होंने कभी प्यार से न देखा था पर अब उसके बच्चे उन्हें जान से अधिक प्यारे हो गये हैं । उन्होंने गणपति की तैयारी के लिए रमन को छुट्टी लेने से मना कर दिया है और अपनी एक टोली बना ली है । जिंदगी के अंतिम प्रहर में ही सही , उन्होंने जीना सीख लिया है ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़
       
   

Wednesday, 29 May 2019

ग़ज़ल

काफ़िया - आने
रदीफ़ - लगे हैं

तसव्वुर में वो ऐसे छाने लगे हैं ,
आईना देख हम मुस्कुराने लगे हैं ।

देखने लगे अपनी आँखों में उनको ,
बेवक्त बेसबब गुनगुनाने लगे हैं ।

ख्वाबों में थी कल तक जिनकी आमद ,
निगाहों में वो झिलमिलाने लगे हैं ।

मुनव्वर हुई उनकी मुस्कान से महफ़िल,
शमा की तरह हम थरथराने लगे हैं ।

दीद हो गई उनके रुख- ए - रौशन की ,
पंछियों की तरह चहचहाने लगे हैं ।

आँखों की नमी सी थम गई थी हँसी ,
बातों बातों में खिलखिलाने लगे हैं ।

राह- ए - वफ़ा में चलना 'दीक्षा ' संभलकर ,
तूफ़ानों में वो डगमगाने लगे हैं ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Tuesday, 28 May 2019

ये बेटियाँ ही हैं

इक्कीस वर्षों तक ,
किसी आँगन में लगा वृक्ष ,
उखड़कर किसी दूसरी जगह
हरगिज पनप नहीं सकता ।
ये बेटियाँ ही हैं जो ,
पलकर , बढ़कर खुशी से ,
अपनी संस्कारों की जड़ सहित
किसी नये आँगन में
पल्लवित पुष्पित हो जाती हैं ।
ये बेटियाँ ही हैं ।
कभी महकती चहकती थी यहाँ
वो दूसरे उपवन में
तिनका तिनका जोड़ ,
आशियाना बना लेती है।
ये बेटियाँ ही हैं ।
माँ के हाथों से खाती ,
बाबा के कंधों पर चढ़ती
एक नये माहौल में जाकर ,
अन्नपूर्णा बन खाना खिलाती है
सबका सहारा बन जाती है ।
ये बेटियाँ ही हैं ।
यहाँ पाती है शिक्षा , संस्कार ,
खेलती गुड़ियों के संग ,
एक नये परिवार की होकर
गुड़िया की माँ हो जाती है
संस्कारों के बीज बो जाती है ।
ये बेटियाँ ही हैं ।
जो अपना अस्तित्व भुलाकर
दूसरों के लिए
मुस्कुराती है ।
ये बेटियाँ ही हैं ।

स्वरचित -डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Sunday, 26 May 2019

मेरी लाडो सुनो

मेरी प्यारी लाडो सुनो ,
खूबसूरत ,बेहद खास हो तुम ।
मधुबन की पुरनम खुशबू का ,
एक खुशनुमा एहसास हो तुम ।
मेरी लाडो बेहद खास हो तुम ।

ढूँढती हूँ..पाती हूँ मैं तुझमें ,
अपनी ही शख्सियत ।
उड़ने को खुला आसमान ,
सब कुछ सौंप देने की चाहत ।
कभी नींद में देखा था जो ,
वो मुकम्मल ख्वाब हो तुम ।
मेरी लाडो बेहद खास हो तुम ।

पाला है तुझे नाजों से मैंने ,
रूढ़िगत बातों  को भुलाकर ।
दिये शिक्षा और सुविचार ,
ताकि बन सको आत्मनिर्भर ।
सुनकर भूल न जाना मेरी ,
अंतर्मन की आवाज हो तुम ।
मेरी लाडो बेहद खास हो तुम ।

जीवन के सफर में मिलेंगे ,
तुम्हें भले और बुरे लोग ।
छल , फरेब , झूठे प्रेम की ,
अंधेरी दुनिया बसाते  लोग ।
न भटकना इन बंद गलियों में ,
मेरे हौसलों की परवाज़ हो तुम ।
मेरी लाडो बेहद खास हो तुम ।

दर्पण देख न रीझना खुद पर ,
अपने अस्तित्व को निखारना ।
सौंदर्य - शृंगार न बने कमजोरी ,
अपने भविष्य को संवारना ।
सजग होकर आगे बढ़ना ,
नये युग का आगाज़ हो तुम ।
मेरी लाडो बेहद खास हो तुम ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Tuesday, 21 May 2019

नरेंद्र मोदी

प्रार्थना को हुए करबद्ध, शिव के लिये पुष्पहार  ,
गले रुद्राक्ष की माला , तिलक केसरी भाल ।

आकर्षक व्यक्तित्व वृहद सोच - विचार ,
उन्नत माथा , चौड़ा सीना चलते शेर- सी चाल ।

सुनिश्चित  कर विकास ,राष्ट्र को दिया संवार,
लोकतंत्र की रक्षा को संकल्पित हर हाल ।

गरिमामयी वस्त्र ,ओजस्वी वाणी से करे प्रहार,
मिला सम्मान भरपूर , विदेशों ने किया निहाल ।

जनता करती प्यार , भीतरघाती करते वार ,
संयमित होकर सहते सब , हृदय उनका विशाल।

योग , नियम , अनुशासन प्रिय बने रहे खुद्दार ,
देश का चौकीदार मोदी ,बना भारत माँ का लाल ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

डर ( संस्मरण )

उस दिन मैं जनगणना के लिए मैत्री कुंज रिसाली में एक घर में बैठे जानकारी भर रही थी कि मेरे  बेटे का फोन आया कि मम्मी घर के अंदर एक बड़ा सा साँप आया है । तब वह दस वर्ष का रहा होगा...मैं डर के मारे थर - थर काँपने लगी..माँ को अपनी जान से अधिक अपने बच्चे की जान की फिक्र होती है । मैने उसे रसोई घर का दरवाजा बंद करके दूसरे कमरे में बिस्तर पर बैठने की हिदायत दी और तुरंत वहाँ से निकल गई । मेरे घर से मैत्री कुंज लगभग दस या बारह किलोमीटर की दूरी पर होगा पर उस दिन मुझे वह दूरी बहुत अधिक लग रही थी.. पूरे रास्ते मन में गलत ख्याल आ रहे थे । जैसे - तैसे घर पहुँची तो देखा कि बहादुर रसोई के दरवाजे के नीचे एक चादर को ठूंसे उसके सामने कुर्सी पर पहरा देते  बैठे हैं और उसके हाथ में एक डंडा है मानो साँप अंदर की ओर आता तो वह उसे मार ही देता । उसकी
ऐसी स्थिति देखकर मेरा डर उड़न छू हो गया और मैं हँस पड़ी ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Monday, 20 May 2019

बड़ी बहू ( लघुकथा )

निर्मला देवी घर से बाहर थीं जब उनके पीछे इतनी बड़ी दुर्घटना हो गई । उनकी दुकान में आग लग जाने के कारण उन्हें लाखों का नुकसान हो गया । इसका आघात उनके पति सहन न कर सके और उन्हें हार्ट अटैक आ गया । बेटे  असमंजस में थे क्या -क्या देखें ।
तब उनकी समझदार बड़ी बहू ने सुझाव दिया कि आप दोनों दुकान का काम सम्भालें , अस्पताल और घर हम दोनों सम्भाल लेंगे । छोटी बहू ने घर और बच्चों की व्यवस्था सम्भाली और बड़ी बहू ने अस्पताल में रहकर ससुर जी की देखभाल की । उसने जिम्मेदारी के साथ सारी व्यवस्था सम्भाल ली , किसी बात की  परेशानी नहीं होने दी । जब निर्मला देवी वापस आई तो यह सब देखकर उनकी आँखों में आँसू आ गये । वक्त पड़ने पर मजबूत ढाल बनकर उसने अपनी क्षमता साबित कर दी थी ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

ग़ज़ल

बिखरे हुए लफ़्जों को आवाज़ मिल जाये ,
भटके हुए परिंदों को परवाज़ मिल जाये ।

खत्म कर शिकवे दिल से दिल मिलने दो,
सीने में दबा हुआ हर  राज  खुल जाये ।

जाहिर न करना अपना इश्क जमाने पर ,
हुस्न कहीं फिर से न नाराज़ हो जाये ।

राह ए वफ़ा में रखो फूँककर कदम ,
एक नये फ़साने का आगाज़ हो जाये ।

भूलकर भी उन खताओं को न दोहराना ,
खुशी फिर  से तुम्हारी  हमराज  हो जाये ।

ठहरे हुए जज्बातों को लबों पर आने दो ,
बेपनाह मोहब्बत का उन्हें अंदाज हो जाये ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Saturday, 18 May 2019

अनबूझ पहेली

मरासिम - सी जिंदगी क्यूँ ,
बन गई एक #अनबूझ पहेली ।
कभी लगती जान की दुश्मन ,
कभी बन जाती सखी सहेली ।

कभी रोती कभी मुस्कुराती ,
सुख - दुख के हिंडोले में झूली ।
हाथ पकड़ कर राह दिखाती ,
कभी छोड़ देती अकेली ।

कडवाहटें जब उदास कर जातीं ,
अपनेपन की मिठास घोली ।
दुनिया मेरी जब बेरंग हो जाती ,
रंग नये दिखाती अलबेली ।

नदी की तरह अबाधित रही ,
मुट्ठी से रेत की तरह फिसली ।
बंधी नहीं कभी किसी शै से ,
मनमानी करती रही हठेली ।

सदा आगे ही बढ़ती रही तुम ,
गुमसुम अतीत को पीछे ढकेली ।
उम्र की लकीरों को धता बताकर,
बनी रही सदा नई नवेली ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Thursday, 16 May 2019

ज़िंदगी...

जिंदगी कब तक मुझे रुलायेगी ,
दौड़ में जीतने देगी या हरायेगी ।

होठों पर ठहर गये  कई जज्बात ,
 खुलेगी या बात दबी रह जायेगी ।

सीने में मचल रहे कई अरमान ,
पूरे होंगे या दफ्न कर दी जायेगी ।

दुनियावी रस्मों से मात खाई देह ,
तूफानों के वार  से थरथरायेगी ।

नेह के माधुर्य को तरसती जुबां ,
खामोश रहेगी या गुनगुनायेगी ।

चलती रही सदा अस्तित्व की जंग ,
खुद को जीतकर ही मुस्कुरायेगी ।

Wednesday, 15 May 2019

तुम्हारी आँखें

राज खोल देती हैं दिल के ,
कुछ अनकहा कह जाती हैं ..
तुम्हारी आँखें ।
कभी खुशी कभी गम में ,
अश्क बन ढल जाती हैं ..
तुम्हारी आँखें ।
दिल में कई भाव जगाकर ,
खामोश रह जाती हैं ...
तुम्हारी आँखें ।
मुस्कुराते हुए ,
कई दर्द सह जाती हैं...
तुम्हारी आँखें ।
महसूस कर पर पीड़ा ,
अक्सर नम हो जाती हैं..
तुम्हारी आँखें ।
उतर जाती गहराइयों में ,
मन की थाह ले पाती हैं...
तुम्हारी  आँखें ।
चुरा लेती हैं दिल कई ,
अपने साथ ले जाती हैं ...
तुम्हारी  आँखें ।
मीन सी चंचल ,
कहीं टिक नहीं पाती हैं..
तुम्हारी आँखें ।
पलकों के चिलमन से झाँक,
दिल में उतर जाती हैं..
तुम्हारी आँखें ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

क्या हम इंसान नहीं

हाड़ माँस के पुतले हम भी ,
बसती हममें भी जान वही ।
कुछ कमियाँ जरूर है हममें ,
कोई अपनी पहचान नहीं ।
पर क्या हम इंसान नहीं ।

निर्दोष होकर भी  दण्ड पाया ,
जन्मते ही परिवार ने ठुकराया  ।
 झूठ , फरेब की दुनिया ने ,
हमें क्यों नहीं अपनाया  ,
हम बिल्कुल अनजान नहीं ।

तिरस्कार भरी नजरों  से ,
दामन अपना सजाते रहे ।
दिल में दुआ सबके लिए ,
गम सहकर मुस्कुराते रहे ।
हमारी दशा पर कोई  परेशान नहीं ।

जिंदगी  हमारी बेरंग है पर ,
होठों पर रंग लगाते रहे  ।
खुशी में नाच लेते हम भी ,
बस तालियाँ बजाते रहे  ।
क्या हम मानव सन्तान नहीं ।

सिर पर हाथ रखकर ,
व्यथा  मन  की सुनाते रहे ।
हिजड़ा कह अपमानित किया,
हम पर रुपये लुटाते रहे पर ,
समाज में हमारा कोई स्थान नहीं ।

दुनिया की दोगली रस्में ,
बरकत हमारे कदमों में ।
शुभ कार्यों पर बुलाते हमें ,
नमक लगाते जख्मों में ।
पर दिल में कोई सम्मान नहीं ।

परिश्रम की दुनिया में हमने ,
अपना लोहा मनवाया है ।
हमारी शिक्षा , कर्मठता ने ,
दूषित मान्यताओं को हराया है ।
कोई होना अब हैरान नहीं ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Monday, 13 May 2019

सीटी बजाइये न (संस्मरण )

बात उन दिनों की है जब हमारी नई - नई शादी हुई थी ।
तब मेरी पढ़ाई चल रही थी और हम कहीं बाहर घूमने नहीं जा पाये थे । कुछ दिन के लिए ससुराल आती तो संयुक्त परिवार में रिश्तेदारों के मिलने आने वालों के कारण एक - दूसरे के लिए समय ही नहीं मिलता था । एक दिन पतिदेव ने अपने दोस्त के घर जाने का बहाना बनाया और हम तैयार होकर निकलने लगे कि ननद का चार वर्ष का बेटा हमारे साथ चलने की जिद करने लगा । हमने उसे साथ ले लिया और मूवी  देखने  चले गये.. ।
उसके एक - दो दिन बाद घर पर सभी बैठे थे कि लाइट चली गई..भांजा अनीश अपने मामा के पास आया और बोला - मामाजी सीटी बजाइये न..सीटी बजाने से लाइट आ जाती है जैसे उस दिन आ गई थी । दरअसल उस दिन टॉकीज में बिजली गुल हो जाने पर लोग सीटियाँ बजाने लगे थे उसके बाद जेनेरेटर चालू  हो गया । बड़े लोग तो समझ गये थे कि हम उस दिन कहाँ गये थे पर हमारी पोल खुल जाने के कारण हम लोग झेंप गये थे ।
आज भी लाइट चली जाने पर वह वाकया याद आ जाता है ।

डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Sunday, 12 May 2019

वो बीते पल

जिंदगी के धरोहर हैं वो बीते पल  ,
लौटकर न आयेंगे वो सुनहरे कल ।
वो अल्हड़ हँसी , मदमस्त बचपन ,
नाचते थिरकते कदम होते चंचल ।
बागों के ललचाते  इमली आम ,
पके अमरूद रख देते नीयत बदल ।
जी भर कर खेलते हम सारे खेल ,
कुछ नया करने की करते पहल ।
सीख कर तालाबों  में तैराकी ,
जीवन हो गया मानो पूरा सफल ।
वय की हर बरस है देती चुनौती ,
कर्मण्य को ही मिला मीठा फल ।
मधुर स्मृतियों में सहेजा बचपन ,
जी लो आज को न आयेगा कल ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Saturday, 11 May 2019

माँ तो माँ है

शादी के बाद दूसरे दिन  सत्यनारायण की कथा - पूजा होती है  । उसके बाद कंकन मौर छुड़ाया जाता है , पासे और सिक्का ढूँढने वाले कुछ खेल खिलाये जाते हैं ताकि  आने वाली नई दुल्हन नये माहौल में सहज हो सके । इस दिन एक और परम्परा का निर्वहन किया जाता है जो मुझे बहुत प्यारा लगता है सास अपने हाथों से अपनी बहू को दूध भात खिलाती है जो  उन दोनों के बीच सम्बन्धों की एक मीठी शुरुआत  होती है । सास अपनी बहू का स्वागत खुले मन से करती है और यह अपेक्षा रखती है कि बहू उस घर में रिश्तों में   अपने प्यार की मिठास भर दे । अपने प्यारे बेटे के लिए वह खूब ढूंढकर एक प्यारी सी दुल्हन लाती है और उसे अपना बेटा सौप देती है । अब तक मैं जो देखभाल अपने बेटे की करती आई हूँ अब तुम करना  , बस यही उम्मीद वह  अपनी बहू  से करती है परंतु बाद में यही रिश्ता इतना कडुवाहट भरा क्यों हो जाता है । जब भी  मैं किसी सास - बहू के बीच सम्बन्ध बिगड़ते देखती हूँ तो शादी के वक्त खुशी से दमकता माँ का चेहरा याद आता है ..स्वाभाविक है इस दिन  लिए तो नहीं । इन सबके बीच सबसे अधिक तकलीफ होती है बेटे को । माँ और पत्नी के बीच उसे ही सामंजस्य बिठाना पड़ता है । बेटा माँ से जुड़ा होता है उसे नाराज नहीं कर सकता और पत्नी अपना घर , रिश्ते छोड़कर आई है तो उसकी बातों को मान देना भी आवश्यक है ।
दरअसल माँ और पत्नी को ऐसी नौबत ही नहीं आने देना चाहिए कि बेटे के आगे सिर्फ एक ही राह रह जाये या उसे कोई दुविधा हो । बहू को माँ का किसी भी प्रकार अनादर नहीं करना चाहिए क्योंकि माँ तो माँ है , उससे बढ़कर कोई नहीं हो सकता । माँ से कैसी प्रतियोगिता ? एक बेटे के लिए माँ हमेशा पत्नी से ऊपर ही रहेगी और यह बात पत्नी को समझना ही  चाहिए अगर वह नहीं समझती तो स्वयं माँ बनने के बाद समझ जाएगी । मेरे पति कई बार बोलते हैं यह चीज माँ तुमसे अच्छा बनाती है तो मुझे बिल्कुल बुरा नहीं लगता बल्कि मैं भी उनसे सहमत हो जाती हूँ  । वो जो कहते हैं मैं उनका समर्थन करती हूँ क्योंकि एक बेटे के जीवन में माँ का स्थान सबसे महत्वपूर्ण होता है । कई बार ये मुझे उकसाने के लिए जान - बूझकर माँ के हाथों की तारीफ करते हैं तो भी मैं नहीं चिढ़ती क्योंकि माँ की मैं भी प्रशंसक हूँ ..उनसे भी  बड़ी वाली । मुझे भी उनसे उतना ही प्यार है जितना उन्हें । मेरे मन में उनके प्रति कहीं अधिक आदर है क्योंकि उन्होंने मुझे इस घर में अपनेपन का एहसास कराया ...एक नये माहौल में सामंजस्य स्थापित करने में सहयोग दिया..मेरी गृहस्थी में आने वाली समस्याओं का समाधान किया । बच्चों को पालने में , उनका ध्यान रखने में अपना पूरा सहयोग दिया । जब - जब हमें आवश्यकता महसूस हुई..बच्चे बीमार पड़े ,मैं बेडरेस्ट पर थी या पतिदेव को बाहर दौरे पर जाना हो वह हमारे पास रहती थी । जन्म देने वाली माँ पालन - पोषण करती है , शिक्षा और संस्कार देती है, बच्चे को संघर्ष करना सिखाती है  परंतु विवाह के पश्चात सासु माँ आगे की कमान संभाल लेती है और गृहस्थ जीवन में आने वाली समस्याओं  का  समाधान करती है । एक लड़की के जीवन में दोनों माँ की भूमिका महत्वपूर्ण है और उसे यह बात निर्विरोध मानना चाहिए । दोनों को सम्मान देना व प्यार करना चाहिए क्योंकि  मेरी हो या उनकी माँ तो माँ है । मातृ दिवस  दोनों माँ के लिए है , आज के दिन दोनों माँ को धन्यवाद देना चाहिए ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Friday, 10 May 2019

वो शिकारी

धुँए का जहर ढाता जा रहा कहर ,
प्रदूषण बन गया है  आज शिकारी ।
कचरे के ढेर पर बैठे गाँव  शहर ,
अब नचा रहा सबको वह मदारी ।
हवा , पानी में घुल रहा जहर ,
बनकर बैठे आज हम भिखारी ।
रोगग्रस्त हो रहे ,बढ़ रहा मृत्युदर ,
हर शख्स कर रहा मौत की सवारी ।
हरी - भरी धरती  हो गई बंजर ,
गर तुमने अपनी आदत न सुधारी ।
देखना पड़ेगा  वह भयावह मंजर ,
जान देकर चुकानी पड़ेगी उधारी ।
संतुलन न बिगाड़ चेत जा वक्त पर ,
प्रकृति की रक्षा में खुशहाली हमारी ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

ग़ज़ल


वतन महान है मेरा ,
वतन ईमान है मेरा ।

मिटा दूं मैं अपनी हस्ती ,
सब कुछ कुर्बान है मेरा ।

उगाये मिट्टी से सोना ,
परिश्रमी किसान है मेरा ।

कभी विश्वास न खोना ,
सैन्य शौर्य गुमान है मेरा ।

अंतहीन , सीमाहीन ,
अंतरिक्ष तक  विमान है मेरा ।

किये अविष्कार नवीन ,
आधुनिक विज्ञान है मेरा ।

समृद्ध और खुशहाल ,
देश अभिमान है मेरा।।

गर्व कर दीक्षा इस पर ,
जन्म लेना यहाँ सम्मान है मेरा ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Wednesday, 8 May 2019

माँ तुझे सलाम

माँ को ईश्वर ने धरती पर अपना प्रतिनिधि बना कर भेजा है क्योंकि वह हर जगह नहीं हो सकते ।  माँ के पैरों के नीचे जन्नत होती है । मुनव्वर राणा कहते हैं -
"मुझे खबर नहीं जन्नत बड़ी कि माँ लेकिन ,
लोग कहते हैं कि जन्नत बशर के नीचे है ।
मुझे कढ़े हुए तकिये की क्या जरूरत है ,
किसी का हाथ अभी मेरे सर के नीचे है ।"

   सिर पर माँ का हाथ होना खुशकिस्मती मानी जाती है ।  माँ के बिना घर का आँगन  सूना हो जाता है , माँ से संस्कार , रीति - रिवाज  और परम्पराएं हैं । माँ त्यौहारों की रौनक है । माँ रसोई से आती पकवानों की खुशबू है,
दमकते हुए सजे - सँवरे घर की रौनक है , पूजाघर से आती अगरबत्ती की पावन गंध है ,माँ गमले में खिले गुलाब की सुगंध है । बच्चे के लिए माँ हर दुःख दर्द सह लेती है , मौत से लड़कर उसे जन्म देती है ।  खुद भूखे रहकर उसे निवाला खिलाती है ,गीले में सोकर उसे सूखे में सुलाती है । एक फूँक से अपने बच्चे की चोट ठीक कर दर्द हरने वाली  चिकित्सक है , अपने आँचल को लपेटकर अपनी सांस से गर्म करके आँखों पर फाहा रखने वाली ठंडक है । माँ गीली पट्टी रखकर बुखार ठीक कर देती है , रातों को जागकर बच्चे को सुकून की नींद देती है । माँ पूरे परिवार की समस्याओं का निदान है.. माँ तू सिर्फ इंसान नहीं  भगवान है । तेरे सदको से हर बुरा साया घबराता है , माँ तेरे डर से यमराज भी थर्राता है । हर परेशानी से तू उबार लेती है , बचत करने के लिए अपनी ख्वाहिशों को मार लेती है । दर्द किसी को भी हो माँ रोती है , दुआओं से अपना दामन भिगोती है । माँ का कभी मत अपमान करो..उसे धन - दौलत कुछ नहीं चाहिए , सिर्फ सहयोग और सम्मान करो । माँ सदैव दुआओं में होती है , माँ के पैरों में जन्नत होती है ।
माँ तुझे  नमन 🙏🙏

डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

पुकार

वसुन्धरा यह कहे पुकार ।
बंद करो अब अत्याचार ।

कंक्रीट का नगर बसाने ,
जंगल को दिया उजाड़ ।

सूखे पड़े जलस्त्रोत सारे ,
पड़ गई अनेकों  दरार ।

सूना हो गया मेरा आँगन ,
जीव - जंतु कर रहे चीत्कार ।

ताक रहा बेबस अम्बर ,
होकर मेघ रहित लाचार  ।

स्वार्थरत होकर मानव ने ,
जल - चक्र को दिया बिगाड़ ।

आपदाओं को दे आमंत्रण ,
मचा दिया है हाहाकार ।

वक्त रहते चेत जा  अब  तो  ,
कर ले गलतियों में सुधार ।

हरे - भरे वृक्षों को उगाकर ,
बंजर धरती का कर शृंगार  ।।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़


Tuesday, 7 May 2019

जीवन के अनुभव ( संस्मरण )

कई बार जीवन के अनुभव हमें बहुमूल्य सीख दे जाते हैं   । वक्त बीतने के बाद हमें समझ आता है हमारे द्वारा लिया गया निर्णय सही था या गलत । आज से लगभग बीस वर्ष पहले की बात है जब मेरे ससुर द्वारा उनकी सम्पत्ति का बंटवारा किया गया । मेरे पति की पोस्टिंग शुरू से दल्ली राजहरा में रही तो हम बाहर ही रहे परन्तु प्रत्येक शनिवार हम घर ( दुर्ग ) जरूर आते थे ताकि परिवार से नजदीकियां बनी रहे । नौकरी करनेवालों के लिये छुट्टी का एक दिन कितना महत्वपूर्ण होता है फिर भी कभी मैंने घर आने से मना नहीं किया । कैसे भी हो
भागदौड़ करके हम आ ही जाते थे । कभी कोई त्यौहार भी बिना माता - पिता के नहीं मनाया । हमारी यही विचारधारा थी कि यदि हमने अपने बड़ों को महत्व नहीं दिया तो हमारे बच्चों को वो संस्कार कहाँ से प्राप्त होगा कि परिवार क्या होता है ।हमें खुशी है कि हम अपने बच्चों के मन में परिवार के महत्व का बीजारोपण करने में सफल हुए ।
      चूँकि मेरे सास - ससुर अपने बड़े बेटे के साथ रहते थे तो उन्होंने अपना पैतृक घर उन्हें ही देने का निर्णय किया यह बोलकर कि वे डॉक्टर हैं और उन्होंने शुरू से यहीं प्रैक्टिस किया है.. अगर घर का बंटवारा होगा तो नर्सिंग होम नहीं बन पायेगा । मेरे पति ने चुपचाप उनके फैसले को अपनी स्वीकृति दे दी परन्तु मुझे बहुत दुःख हुआ क्योंकि उस घर से इनकी भी बहुत सी यादें जुड़ी हुई हैं और जो भी हो बंटवारा दोनों बेटों में समान होना चाहिए । हमारे  पैतृक घर का मूल्य उस समय लाखों में था और हम तो कभी भी वैसा घर नहीं खरीद पाते । बदले में उन्होंने गाँव की चार एकड़ भूमि हमारे नाम की थी तब खेतों का उतना मूल्य  भी नहीं था । तब मुझे दुःखी देखकर मेरे पति ने मुझे समझाया कि वो सम्पत्ति पापा की अपनी बनाई हुई है वो जिसे देना चाहें दे सकते हैं.. हम बस रिश्तों को स्वीकृति दे रहे हैं क्योंकि अगर उनका निर्णय मानने से हम एतराज करेंगे तो सिर्फ सम्बन्ध खराब होंगे और कुछ नहीं । धन - सम्पत्ति कितने दिन काम आयेगी.. परिवार का महत्व सबसे बड़ा है , बड़ों का स्नेह व आशीर्वाद  हमारे साथ रहा तो हम कभी अकेले नहीं रहेंगे । हम दोनों कमाते हैं.. धीरे - धीरे अपना आशियाना बना ही लेंगे तुम चिंता मत करो । मैंने भी उनकी खुशी में अपनी खुशी देखी और  पापा पर कभी यह जाहिर नहीं किया कि उनके निर्णय से हमें कोई तकलीफ हुई है । वक्त बीतने के साथ यह महसूस हुआ कि हमारा निर्णय गलत नहीं था ..हमने चुप रहकर
परिवार की प्रतिष्ठा और सम्मान की रक्षा की और प्यार और एकता को बरकरार रखा । बच्चों को भी बुजुर्गों के महत्व व सम्मान का संस्कार मिला ..आज  हमारा परिवार खुशहाल और प्यार भरा है और मै अपने पति की समझदारी पर गर्व महसूस करती हूँ ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़