इक्कीस वर्षों तक ,
किसी आँगन में लगा वृक्ष ,
उखड़कर किसी दूसरी जगह
हरगिज पनप नहीं सकता ।
ये बेटियाँ ही हैं जो ,
पलकर , बढ़कर खुशी से ,
अपनी संस्कारों की जड़ सहित
किसी नये आँगन में
पल्लवित पुष्पित हो जाती हैं ।
ये बेटियाँ ही हैं ।
कभी महकती चहकती थी यहाँ
वो दूसरे उपवन में
तिनका तिनका जोड़ ,
आशियाना बना लेती है।
ये बेटियाँ ही हैं ।
माँ के हाथों से खाती ,
बाबा के कंधों पर चढ़ती
एक नये माहौल में जाकर ,
अन्नपूर्णा बन खाना खिलाती है
सबका सहारा बन जाती है ।
ये बेटियाँ ही हैं ।
यहाँ पाती है शिक्षा , संस्कार ,
खेलती गुड़ियों के संग ,
एक नये परिवार की होकर
गुड़िया की माँ हो जाती है
संस्कारों के बीज बो जाती है ।
ये बेटियाँ ही हैं ।
जो अपना अस्तित्व भुलाकर
दूसरों के लिए
मुस्कुराती है ।
ये बेटियाँ ही हैं ।
स्वरचित -डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़
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