हाड़ माँस के पुतले हम भी ,
बसती हममें भी जान वही ।
कुछ कमियाँ जरूर है हममें ,
कोई अपनी पहचान नहीं ।
पर क्या हम इंसान नहीं ।
निर्दोष होकर भी दण्ड पाया ,
जन्मते ही परिवार ने ठुकराया ।
झूठ , फरेब की दुनिया ने ,
हमें क्यों नहीं अपनाया ,
हम बिल्कुल अनजान नहीं ।
तिरस्कार भरी नजरों से ,
दामन अपना सजाते रहे ।
दिल में दुआ सबके लिए ,
गम सहकर मुस्कुराते रहे ।
हमारी दशा पर कोई परेशान नहीं ।
जिंदगी हमारी बेरंग है पर ,
होठों पर रंग लगाते रहे ।
खुशी में नाच लेते हम भी ,
बस तालियाँ बजाते रहे ।
क्या हम मानव सन्तान नहीं ।
सिर पर हाथ रखकर ,
व्यथा मन की सुनाते रहे ।
हिजड़ा कह अपमानित किया,
हम पर रुपये लुटाते रहे पर ,
समाज में हमारा कोई स्थान नहीं ।
दुनिया की दोगली रस्में ,
बरकत हमारे कदमों में ।
शुभ कार्यों पर बुलाते हमें ,
नमक लगाते जख्मों में ।
पर दिल में कोई सम्मान नहीं ।
परिश्रम की दुनिया में हमने ,
अपना लोहा मनवाया है ।
हमारी शिक्षा , कर्मठता ने ,
दूषित मान्यताओं को हराया है ।
कोई होना अब हैरान नहीं ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़
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