जिंदगी के धरोहर हैं वो बीते पल ,
लौटकर न आयेंगे वो सुनहरे कल ।
वो अल्हड़ हँसी , मदमस्त बचपन ,
नाचते थिरकते कदम होते चंचल ।
बागों के ललचाते इमली आम ,
पके अमरूद रख देते नीयत बदल ।
जी भर कर खेलते हम सारे खेल ,
कुछ नया करने की करते पहल ।
सीख कर तालाबों में तैराकी ,
जीवन हो गया मानो पूरा सफल ।
वय की हर बरस है देती चुनौती ,
कर्मण्य को ही मिला मीठा फल ।
मधुर स्मृतियों में सहेजा बचपन ,
जी लो आज को न आयेगा कल ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़
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