Saturday, 18 May 2019

अनबूझ पहेली

मरासिम - सी जिंदगी क्यूँ ,
बन गई एक #अनबूझ पहेली ।
कभी लगती जान की दुश्मन ,
कभी बन जाती सखी सहेली ।

कभी रोती कभी मुस्कुराती ,
सुख - दुख के हिंडोले में झूली ।
हाथ पकड़ कर राह दिखाती ,
कभी छोड़ देती अकेली ।

कडवाहटें जब उदास कर जातीं ,
अपनेपन की मिठास घोली ।
दुनिया मेरी जब बेरंग हो जाती ,
रंग नये दिखाती अलबेली ।

नदी की तरह अबाधित रही ,
मुट्ठी से रेत की तरह फिसली ।
बंधी नहीं कभी किसी शै से ,
मनमानी करती रही हठेली ।

सदा आगे ही बढ़ती रही तुम ,
गुमसुम अतीत को पीछे ढकेली ।
उम्र की लकीरों को धता बताकर,
बनी रही सदा नई नवेली ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

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