Friday, 29 May 2020

मुक्तक

आँखों को खुशियों का छलकता शराब होने दीजिए ,
गालों को महकता हुआ  सुर्ख गुलाब होने दीजिए ।
उम्र को सीमाओं की तंग गलियों में मत बाँधिये _
उन्मुक्त, स्वच्छंद  जिंदगी  को लाजवाब होने दीजिए ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे

दुर्ग ,छत्तीसगढ़

मजदूर

जीता है वर्तमान में सुखद भविष्य के सपने सजाता है ।
मजदूर है वह दुनिया को तरक्की की राह दिखाता है ।।

जूझता वह जीवन भर रोटी , कपड़ा , मकान के लिए ।
उसका खून - पसीना हरदम दूसरों के काम आता है ।।

बाँध देता नदियों को  , निर्मित करता बड़े - बड़े  पुल  ।
टाट का उसका झोपड़ा पहली बारिश में ढह जाता है ।।

खोदकर धरती को वह निकाल लाता कोयला , हीरा  ।
भूख , बेबसी, अभावों के अंधेरे से निकल नहीं पाता है ।।

उसके लिए नहीं हैं ये  सारे सुख - साधन , सुविधाएं ।
वह हवाई जहाज , कार ,आलीशान महल बनाता है ।।

बुनता है वह रंग - बिरंगे रेशमी  धागों के ताने- बाने ।
चीथड़ों में पलते  बच्चे , पैबन्दों में जीवन बिताता है ।।

हाहाकार मच जायेगा दुनिया में उसके न होने पर ।
पर उसकी दयनीय दशा पर  आँसू कौन बहाता है ।।

ईमानदारी उसके सीने में परिश्रम उसके माथे पर ।
थक जाता  पर कभी न मेहनत से  जी चुराता है ।।

मजदूर के खुरदुरे हाथों में केवल हैं  कर्म की  लकीरें  ।
काँटों में खुद रहता पर गुलशन में फूल खिलाता है ।।

दुनिया खड़ी कर्मशील मजदूर के मजबूत कंधे पर ।
नाली के कीड़े सा घिसट वह जीता और मर जाता है ।।


स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़








Wednesday, 27 May 2020

सजल

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सजल
समांत - आर
पदांत -  नही
मात्राभार - 16
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जीवन इतना दुश्वार नहीं 
मंजिल सीमा के पार नहीं 

लेने देने की बात न कर
यह प्यार कभी व्यापार नहीं 

राहें बहुतेरी जीवन में
रोने में कुछ भी सार नहीं 

अपमान बड़ों‌‌ का ‌कर पाएँ
अपना तो‌ यह संस्कार नहीं

चलने से इंकार किया है/ साथी बनने इंकार किया 
छोड़ा तुमको मझधार नहीं

स्वरचित -  डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़
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Monday, 25 May 2020

मुक्तक


मुश्किलों में साथ निभाना ,
मझधार में छोड़ न जाना ।
डगमग डोले जीवन  नैया_
सनम  तुम ही पार लगाना ।।

स्वरचित - डॉ.  दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Thursday, 21 May 2020

दिल

तन्हाई ढूँढता था 
दुनिया की भीड़ में  ।
अब तन्हाई है तो ,
दिल महफ़िल चाहता है ।

दोस्त साथ थे तो ,
एहसास न हुआ उनके होने का ।
अब नहीं हैं साथ तो ,
डर लगता है उन्हें खोने का ।
हँसी न आती थी ,
उनकी बकवास सी बातों पर ।
अब उन्हीं बेकार बातों पर ,
खुलकर हँसना चाहता है ।।

अवकाश ढूँढता था ,
उस व्यस्त जिंदगी में ।
अपनी रूचियों के लिए ,
कुछ पल चुराने में ।
अब मन फिर उसी  
व्यस्त दिनचर्या में
दौड़ जाना चाहता है ।।

अभ्यास नहीं है ना ,
सिर्फ अपने बारे में सोचने का ।
घर की जिम्मेदारियां निभाने के बाद ,
इतना आराम करने का ।
जिंदगी की भागदौड़ में 
थककर चूर होना चाहता है ।।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Tuesday, 19 May 2020

हिंडोला जिंदगी का

हिंडोला जिंदगी का ,
कभी ऊपर कभी नीचे ।
गिरा देती  कभी धरा पर ,
कभी हाथ पकड़  खींचे ।

चलते रहना  निरंतर ,
संघर्ष भरा यह सफर है  ।
पार करने बनो आत्मनिर्भर ,
 बड़ी लम्बी यह डगर है ।
 यादों के कारवाँ संग ,
चल आगे न देख पीछे ।

ऊँचाईयों में  उड़ना पर ,
रखना पाँव जमीं पे ।
ख्वाहिशों का यह समन्दर ,
न उतर तलहटी पे ।
बाजार ये  नुमाइशों का  ,
मकड़जाल  में अपने भींचे ।

हैं राहें घनी अंधेरी ,
अंध गह्वर लालसा का ।
भटका जाता राही ,
मंजिलें  हुई मृग - मरीचिका ।
धोखा या जादूगरी है ,
चकाचौंध इंद्रजाल सरीखे ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़












Saturday, 16 May 2020

सम्मान ( कहानी )

 आज माँ का  फोन आने पर  जिया का मन बहुत दुःखी था ।पिता जी की  हालत बिगड़ती जा रही थी और उनका ऑपरेशन तुरन्त करवाना जरूरी था । भैया अभी रुपये नहीं है कहकर इसे टालते जा रहे थे । जिया का अंतर्मन कराह उठा था ..क्या अपने प्रिय पापा के लिए वह कुछ नहीं कर सकती । पापा ने कभी भी उसकी ख्वाहिशें पूरी करने के आगे खर्च के बारे में नहीं सोचा । जब जो भी माँगा खुशी से दिया बल्कि अधिक ही दिया । विवाह के बाद क्या बेटी इतनी पराई हो जाती है कि वह माता - पिता के  दुःख में सहभागी न बन पाये । मायके की सारी खुशियों में बेटी का हिस्सा होता है , कोई भी रिवाज विवाहित बेटी के स्पर्श के बिना अधूरा रह जाता है । बहुत मान - सम्मान देकर बेटी को पिता या भाई लिवाने जाते हैं और उतने ही आदर के साथ उसकी विदाई की जाती है । भैया की शादी में पापा ने उसकी पसन्द से उसके लिए अंगूठी खरीदी थी जबकि अपने लिए खरीददारी करते समय उन्होंने थोड़ी कंजूसी कर दी थी । अपने लिए कुछ भी लेने के लिए बोलने पर वे हमेशा मना कर देते , कुछ न कुछ बहाना तैयार ही रहता था । उनके बनियान की छेद में उंगली डाल - डाल कर वह उन्हें नई बनियान लेने के लिए मनाती ,पर वे हँस कर उसे टालते रहते । फिर वह नाराज होकर  बनियान ही छुपा देती तब पापा नई बनियान खरीदते । माँ हँसते - हँसते पिता और बेटी  की यह मीठी तकरार देखते रहती और कई काम जो पापा से करवाना होता ,वह जिया को सौंप देती यह कहकर कि वह तुझे मना नहीं करते ।
       पापा के बारे में सोचकर  जिया की आँखें भर आईं थी । माता - पिता का आँगन कितना दुलार भरा होता है न । घर का हर कोना मानो प्यार भरी थपकी देता हो , बचपन चाहे कितने ही अभाव में बीता हो ....दुनिया की सारी  सौगातों से कहीं अधिक अनमोल होता है । माँ - बेटी के बीच दर्द का , एहसासों का रिश्ता होता है ,साझे होते हैं उनके जज्बात और पिता के लिए बेटी एक सम्बल ,विश्वास , घर का मन होती है । पिता अपनी बेटी को सारी खुशियाँ देना चाहता है , उसे सीप में बंद मोती की तरह संजोकर रखना चाहता है  पर दुनिया के  रस्मों रिवाज के कारण उसी दिल के टुकड़े को अपने से दूर कर एक अनजान व्यक्ति को सौंपना पड़ता है । न जाने कितने कशमकश और सवालों से जूझता होगा उनका मन ,जब वे अपनी लाडली बिटिया को किसी दूसरे परिवार के हाथों सौंपते हैं । उसके अभीष्ट सुख की ईश्वर से अनगिनत प्रार्थनाएँ करते हैं । 
     जिया की शादी के लिए भी पापा ने बहुत सोच - विचार किया था । परिवार  , माता - पिता का व्यवहार , उनकी आर्थिक स्थिति , लड़के का स्वभाव इन सबकी खूब पड़ताल करके ही अविनाश से जिया की शादी की । उन्होंने अपने स्तर के अनुसार ही जिया का ससुराल ढूंढा ताकि वहाँ सामंजस्य बनाने में उनकी लाडली बेटी को कोई दिक्कत न आये । अपने से बहुत ऊँचे घरों में ब्याहने पर बेटियाँ उनके आगे अपने आपको हीन मानकर दब जाती हैं ऐसा उनका मानना था । वे कहते -"बेटी तो सदाबहार का फूल है , उसे जीवन भर खिला ही रहना चाहिए । उसके खिलखिलाने से मायका और ससुराल दोनों घरों का आँगन महक जाता है । 
          विचारों से गतिमान कुछ भी नहीं , यह हमें पल में वर्तमान से अतीत और भविष्य में उड़ा ले जाते हैं । जिया भी पापा को याद कर मुस्कुरा उठी थी , उसका ध्यान तो तब टूटा जब अविनाश ने दरवाजे की घण्टी बजाई । वे ऑफिस से वापस आ गए थे और जिया अपनी यादों से । पापा की तबीयत की याद आते ही पुनः उसके खूबसूरत चाँद से चेहरे
को उदासी का ग्रहण लग गया था । अविनाश ने उससे कारण पूछा  पर वह इधर - उधर की बातें कर टाल गई । लगभग पाँच
  वर्ष हो गया था उनके विवाह को । पति और पत्नी के रिश्ते में   सामंजस्य व प्रेम भरी समझ  मिठास भर    देती है । एक - दूसरे का सम्मान और एक - दूसरे के परिवार के लिए अपनापन  इसे  और प्रगाढ़ बनाता है । जिया ने मन से अपने ससुराल को अपनाया था ।  उसके माता - पिता के लिए जिया के मन में उतना ही आदर भाव था जितना अपने माता - पिता के लिए । उसने कभी किसी का अपमान नहीं किया और न ही उपेक्षित किया । अविनाश भले पिता की कही बात भूल जाता पर वह नहीं भूलती थी । पिता की दवाई ,माँ को डॉक्टर को दिखाना सारी जिम्मेदारी उसके ही कंधे पर थी । दीदी के लिए तीज पर साड़ी खरीदनी है , जीजाजी का जन्मदिन है सब उसे याद रहता  और वह बहुत खुशी से सब करती थी । अपने इस निश्छल  स्वभाव के कारण वह सबकी प्रिय थी ।
            जिया  अपने कमरे से लगी बालकनी में खड़ी आसमान की ओर देख रही थी । कभी - कभी आसमान की ओर देखना और उसमें गुम हो जाना अच्छा लगता  है । अच्छा लगता है उस विस्तृत नील साम्राज्य का हिस्सा बन जाना । टिमटिम करते तारे  कई बार भटकते मन को ढाढ़स बंधा जाते हैं  । तारों की बनती बिगड़ती आकृतियों के बीच हम अपने वजूद को तलाशने लगते हैं ।  खेल खेलते बच्चे की तरह उसका मन तारों में इतना रम गया कि उसे पता ही नहीं चला अविनाश कब से उसके पीछे आकर खड़ा है । ' कहाँ खोई हो , , क्या हुआ जिया  , कुछ कहोगी नहीं ।"  "आज माँ का फोन आया था पापा की हालत अच्छी नहीं है अवि "- कहते हुए अवि के सीने से लग फफक पड़ी थी जिया । बहुत देर से वह अपने  आँसुओं  को  धैर्य के बाँध से रोक कर रखी थी , जो अविनाश के  हल्के से स्पर्श से ही ढह गया था । अपनी बाहों में  कसकर उसने जिया को  प्यार से थपथपाया और  ढाढ़स बंधाया  । पापा  शीघ्र ही ठीक हो जायेंगे  ,  तुम चिंता मत करो ।
         कुछ दिनों के बाद माँ ने जिया को पापा के ऑपरेशन की डेट फिक्स हो जाने की बात बताई तो जिया की खुशी का ठिकाना नहीं रहा । मन में उम्मीद की लौ जल गई कि अब उसके पापा  स्वस्थ हो जायेंगे । उसके मन के आसमान में छाई निराशा की उमड़ती - घुमड़ती बदली  छँट गई थी  और मौसम खुल जाने की तरह वह भी खिल उठी थी ।  ऑपरेशन के बाद पापा से वह मिलने गई तो खुशी से माँ व भैया के गले लग गई।
" थैंक यू भैया , आपने समय पर पापा के ऑपरेशन की व्यवस्था कर दी । उन्हें खतरे से बाहर देखकर कितना अच्छा लग रहा है मैं बता नहीं सकती " - जिया ने चहकते हुए कहा तो भैया और माँ  अचरज से एक - दूसरे की ओर देखने लगे थे । " जिया क्या तुझे नहीं मालूम ? " - भैया ने आँख फैलाते हुए पूछा । " क्या भैया " ?  
        "  ऑपरेशन की सारी व्यवस्था अविनाश ने की है । उन्होंने इस कठिन समय में हमारा साथ दिया जिया , मेरा बिजनेस घाटे में होने के कारण मैं पापा का ऑपरेशन नहीं करवा पा रहा था । यह सब जानकर अविनाश ने स्वयं सारा खर्च उठाया है और कई डॉक्टरों से बात भी की । वह लगभग रोज ही पापा को देखने आते रहे और उनका खयाल रखते रहे । क्या उन्होंने तुझे कुछ नहीं बताया  ? " भैया की बात सुन कर  जिया  की आँखों में खुशी के आँसू भर आये थे । उसकी खुशी के लिए अवि ने कितनी खामोशी से अपना प्यार व फर्ज निभाया था ।  कुछ पाने की अपेक्षा के बिना , किसी पर एहसान जताये बिना इतनी सहजता  से उन्होंने यह सब किया था ।  अवि से प्यार तो वह  करती ही थी ,  आज उनके लिए मन  श्रद्धा व सम्मान  से भर गया था  ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

गीत 2

*गीत*
कोयल कूके जब अमुवा पर ,
मन-भौंरा इठलाता है ।
हृदवीना की मीठी धुन सुन ,
तन - मन झूमा जाता है ।।

महका - महका  सारा उपवन ,
यौवन  बहका जाता है ।
वासंती बयार की धुन पर ,
मौसम जब बौराता है ।।

क्रीड़ा करती चपल चाँदनी ,
गगन धवल हो जाता है ।
बादल के पर्दे के पीछे ,
चाँद छुपा मुस्काता है ।।

कल - कल करता झरने का जल ,
जीवन - राग सुनाता है ।
रश्मिरथी के मृदुल छुअन से ,
हृदय -पटल खिल जाता है ।।

डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

मुक्तक

स्वर्णकार गहनों में नगीने जड़ लेता है ,
शिल्पकार पत्थरों में मूरत गढ़ लेता है ।
वाणी भी असमर्थ हो जाती है कई बार _
पीड़ा को इंसान आँखों से  पढ़ लेता है ।।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

दोहा -  
राग - द्वेष से परे हों , मिले स्नेह औ प्यार ।
जीवन - सरिता बहे यों , सरल ,सहज , अनिवार ।।

Friday, 15 May 2020

भूख ( लघुकथा )

   रवि जिस  थाने का प्रभारी था  उस क्षेत्र में मजदूरों के पलायन की सूचना मिली थी । संज्ञान लेने वह पहुँचा तो उसके सिपाही उन्हें रोक कर रखे थे । महोदय , ये लोग पैदल ही पटना जाने के लिए निकले हैं .…साथ में बच्चे भी हैं । रवि बोला - "क्यों जी इतने दूर पैदल कैसे जाओगे  ? अपने साथ दूसरों की जान भी जोखिम में डाल रहे आप लोग । इतनी बड़ी बीमारी है कोरोना इससे डर नहीं लगता क्या  ? " "दो माह से काम बन्द है साहब , जमापूंजी खत्म हो गई । खाने - पीने का ठिकाना नहीं है इसलिए अपने गाँव जा रहे हैं ,वहाँ कुछ तो मिलेगा । साहब कोरोना से कैसा डर  , भूख से बड़ी भी कोई बीमारी है साहब ?
     रवि ने कुछ रुपये ,  खाने का सामान देकर उन्हें एक ट्रक में बिठा दिया । पूरे दिन उसके कानों में यही गूँजता रहा - " भूख से बड़ी भी कोई बीमारी है साहब " ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

भूख ( लघुकथा )

   मानव ने अपने घर की बालकनी से देखा दो  अधनङ्गे बच्चे कचरे के डिब्बे में कुछ ढूंढते और मुँह में डालते जाते । यह सब देखकर मानव का दिल रो दिया ।ओह ! भूख न गंदगी देखती है और न जगह , वह दौड़कर नीचे आया और उन दोनों को अपने घर लेकर आया । उन्हें हाथ धोने के लिए पानी दिया और रसोई में खाने की चीजें देखने लगा । मम्मी उसके लिए खाना बनाकर ऑफिस गई थी , उसने पूरा खाना एक थैली में रखकर उन्हें दे दिया । रोटी में सब्जी लगाकर वे तुरंत दो - दो रोटी चट कर गए । मानव उन्हें खाते देखकर स्वयं तृप्त हो रहा था । शायद ऐसा सन्तोष उसे पेट भरने पर भी नहीं होता जितना आज खाली पेट महसूस हो रहा था ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Thursday, 14 May 2020

स्वदेशी ( लघुकथा )

  वर्तमान परिस्थिति ऐसी है कि सब अपने घरों में महीनों से बंद हैं । मॉल और दुकानें बंद होने के कारण बाहरी विदेशी चीजें खाने को नहीं मिल रही और अभी घरों में बनी चीजें ही उपयोग में लाई जा रही हैं । रेहान जो पहले कभी बड़ी , गट्टे की सब्जी , भाजी वगैरह नहीं खाता था ;अब मजबूरी में सब खाना पड़ रहा है क्योंकि रेस्टोरेंट बन्द है । शुरुआत में उसने यह सब मुँह बनाकर खाया था लेकिन बाद में घर की सब चीजें उसे अच्छी लगने लगी थीं । कोल्ड ड्रिंक्स के बदले नींबू पानी , कच्चे आम का पना , बेल शरबत देख उसने कहा था .."वाव मॉम ये तो वन्डरफुल है " । " हाँ बेटे स्वाद के साथ सेहत भी है यहाँ इसीलिए कहती हूँ स्वदेशी अपनाओ ।  इसी खान - पान के कारण हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता दूसरे देशों से कहीं अधिक है ।" 
       पाश्चात्य सभ्यता से प्रभावित बेटा अपनी भारतीय संस्कृति को समझने व पसन्द करने लगा है यह सोचकर उसकी माँ रेणु बहुत खुश थी । कोरोना के बहाने युवा पीढ़ी अपनी जड़ों की ओर लौट तो रही है ,रेणु ने निश्चिंतता की सांस ली ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Tuesday, 12 May 2020

सजल

सजल
समां त - अल
पदांत - है
मात्रा भार - 16
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होना हर मुश्किल को हल है
आगे एक बेहतर कल है

पाने को अपना घर - आँगन
चलता वह मीलों पैदल है

विपदा उसको तोड़ न पाए
ध्रुव तारे सा अचल अटल है

माथे से जो छलक पड़ा है
यह स्वेद नहीं गंगा जल है

सिर पर उसके आस की गठरी
सीने में  पुरुषार्थ का बल है
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स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

परिवर्तन

वक्त का पहिया वक्त के साथ निरन्तर चलता है ,
परिवर्तन के बीज में निर्माण का अंकुर पलता है ।
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कटु सत्य  है जीवन  और मृत्यु का आवागमन ,
विधि का लिखा  किसी के टाले कब टलता है ।
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पीले पात झरे तभी फूटे नव - पल्लव  शाखों में ,
पतझड़  के बाद ही  उपवन में बहार खिलता है ।
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बचपन छोड़ा तो मिली जवानी ,उसके बाद बुढ़ापा ,
सूरज अपनी  निश्चित चाल में निकलता व ढलता है ।
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बदलाव होना जरूरी है शासन और प्रशासन में ,
राजनीति  के साये में स्वार्थ करवटें बदलता है ।
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आज टूट रही मर्यादाएँ वक्त के साथ - साथ ,
बादशाह को भिखारी बनने में न वक्त लगता है ।
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कच्चा रह जायेगा भीतर से पकने दो  धीरे - धीरे ,
अग्नि में तपकर ही स्वर्ण अधिक निखरता है ।
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लक्ष्य पाने के लिए तुम्हें धीरज रखना है जरूरी ,
सींचो जितना भी   वृक्ष मौसम आने पर  फलता है ।
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क्षणभंगुर है  यह कुछ हासिल कर लो जीवन में ,
देख लो  रेत की तरह वक्त मुट्ठी से फिसलता है ।
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स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग ,छत्तीसगढ़



Sunday, 10 May 2020

सजल 19

सजल
समां त - आकर
पदांत - देखो
मात्रा भार - 29
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सधेंगे  सुर निश्चित ही  यह गीत गुनगुनाकर देखो
मिलेंगे मोती  अवश्य  गहराई में जाकर देखो
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दृढ़ इरादों  के आगे तो  पर्वत भी झुक जाते हैं
सुगम हो जाएंगी  बाधाएँ  कदम तो  बढ़ाकर देखो
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सुलझ जायेंगी धीरज से उलझनें सभी जीवन की
बहुत कारगर है यह नुस्खा जरा आजमाकर देखो
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सभी जिंदगी जिये जाते हैं अपनों की ही खातिर
किसी अनजान मुसाफिर से रिश्ता निभाकर देखो
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खुशगवार लगने लगेगी तुम्हें अपनी यह दुनिया 
करो खत्म दुश्मनी उन्हें जरा दोस्त बनाकर देखो
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व्यर्थ ही भागे फिरते हो यूँ  मृगतृष्णा के पीछे
सरलता  औ सादगी से अपना घर सजाकर देखो
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खुद ही  महक जायेगी तुम्हारे जीवन की बगिया 
 मजबूरों के जीवन में जरा  खुशियाँ लाकर देखो 
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स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़





माँ

माँ
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सारी खुशियाँ देकर वह  दुःख दर्द हर लेती  है ,
माँ तो फूँककर हर मर्ज का इलाज कर देती है ।
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मौत को भी डराता है उसके काजल का टीका ,
अपनी सारी दुआएं वह ताबीज में भर देती है ।
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उसके आँचल के साये में महफूज रहता जीवन ,
मुट्ठी में सरसों भर कर वह उतार नजर देती है ।
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परिवार के सुख के लिए करती है व्रत - पूजन ,
विपदा अगर आये नैन अश्कों से तर कर देती है ।
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जिंदगी की किताब लिखने घिसती यह कलम ,
वह  मोमबत्ती की तरह रोशनी जल कर देती है ।
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स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़







Thursday, 7 May 2020

मुक्तक ( बचपन )

दुनियावी रीत के आगोश में सो गया ,
बड़ों की अपेक्षाओं  के आगे रो गया ।
पानी की छप- छप में वो मेंढक पकड़ना _
पतंगों ,तितलियों सा वह बचपन खो गया ।।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

मुक्तक

विश्वास और समर्पण माँगती है ,
स्त्री सिर्फ खुशियाँ  बाँटती है ।
स्नेह से पूरित हो घर - आँगन _
जीना सदा सुहागन चाहती है ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

एक दाँव है जिंदगी आजमाते रहिए ,

धुन एक प्यारा सा गुनगुनाते रहिए ।

आसान हो जायेगा  जीना यहाँ पर_

मुश्किल वक्त  में भी मुस्कुराते रहिए ।।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे

दुर्ग , छत्तीसगढ़

ग्लानि ( लघुकथा )

   स्वाति....पतिदेव गुस्से में चिल्ला रहे थे - " तुमने मेरे कपड़े प्रेस नहीं किये  ,मुझे ऑफिस के लिए देर हो रही है । अरे यार ! दिन भर घर में रहकर इतना भी नहीं कर पाती । मैं दस - बारह घण्टे की ड्यूटी  करके घर के कामों के लिए भी समय निकालूँ । अभी  धोबी की दुकान बंद है ,कुछ दिनों की परेशानी है फिर तो तुम्हें कपड़े प्रेस करने ही नहीं । "  हड़बड़ाकर स्वाति उठी  , तो वह स्वप्न देख रही थी , कल कपड़े प्रेस करना भूल गई यही सोचते सोई थी शायद इसलिए सपने में भी  वही देख रही थी । पतिदेव के लिए टिफिन बनाकर  वह रसोई से बाहर आई तो वे नहाकर अपने कपड़े प्रेस कर रहे थे । सपने की तरह नाराज नहीं हुए । स्वाति को ग्लानि महसूस हुई  , यह उसका अंतर्मन ही था जो  उसे पीड़ित कर रहा था । उनके ऑफिस जाते ही स्वाति ने सबसे पहले कपड़े प्रेस किये  , नाराज होते तो भले नहीं करती  बल्कि इसलिए कि  उन्होंने  कुछ नही कहा  ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Wednesday, 6 May 2020

कमरा नम्बर 220 ( कहानी )

  बरसों बाद आज जयपुर में महेश से मिलकर  शिखर का मन फिर अतीत के गलियारों में  भटकने चला गया था । इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए उसका चयन एन. आई टी . भोपाल में हुआ था। एक तो पहली बार घर छोड़कर बाहर आने की झिझक ,ऊपर से रैगिंग का डर दोनों वजहों ने उसकी हालत खराब कर दी थी ।डरते-डरते सामान सहित कॉलेज हॉस्टल पहुँचा  , पापा जी छोड़ने आये थे ..उनके साथ होने से थोड़ा ठीक लग रहा था  पर उसका कमरा अलॉट होने के बाद वे घर चले गये  । प्रथम वर्ष के तीन लड़कों को एक  कमरे में रहना था , सबकी हालत एक जैसी थी इसलिए जल्दी ही उसके कई मित्र बन गये । 
            बॉयज हॉस्टल में रैगिंग की मनाही थी , पर सीनियर्स का दबदबा रहता था ।  वार्डन पुरोहित सर बड़े कठोर मिजाज और अनुशासन प्रिय थे  और नियम तोड़ने पर सख्त दण्ड भी देते थे ।  उनकी पीठ पीछे  सीनियर भी अपने नियम - कानून बताया करते थे लेकिन पढ़ाई में उनका सहयोग भी मिलता था । उनकी किताबें , नोट्स आदि की मदद भी उन्हें खूब मिलती थी । हॉस्टल का एक कमरा किसी को अलॉट नहीं किया गया था , वहाँ रहते - रहते मालूम हुआ कि वह कमरा हॉन्टेड होने के कारण किसी को नहीं दिया जाता । बहुत पहले वहाँ रहने वाले एक लड़के  मोहित ने खुदकुशी कर ली थी । उसके बाद जितने लोगों को वह कमरा मिला , उन लोगों ने भी खुदकुशी कर ली । सबको यह यकीन हो गया था कि वहाँ कुछ न कुछ अदृश्य शक्ति है जिसकी वजह से लड़के मर रहे हैं ।
        शिखर और उसके दोस्त रात को ही पढ़ते थे क्योंकि दिन में कक्षा लगने के कारण सेल्फ स्टडी के लिए समय नहीं मिल पाता था । वे देर रात तक पढ़ते और सुबह दस - ग्यारह बजे तक सोते रहते । वह रात बहुत ही भयावह थी । बारिश का मौसम था । बादलों की गरज और बिजली की गड़गड़ाहट रह रहकर चौंका देती थी । बिजली गुल होने के कारण वे हॉस्टल के गलियारों में टहलने लगे थे ..तभी दीवार पर कुछ आकृतियाँ उभरीं , उसके दोस्त तो भाग गए पर शिखर के पैर मानो जमीन में धँस गये हों । वह स्तम्भित सा वहीं खड़ा रहा मानो किसी ने उसे सम्मोहित कर दिया हो । शायद वह आत्मा कुछ कहना चाहती थी , वह उस परछाई के साथ चलता रहा । शायद यह मनुष्य की प्रवृत्ति ही है कि उसे जिस बात के लिए मना किया जाए ,उसकी रुचि उसमें और अधिक बढ़ जाती है । वह जान लेना चाहता है भूत - भविष्य के  सारे रहस्य...शायद इसलिए वह नवीन सन्धान करता रहता है । डर के साथ अतीत को जानने की उत्सुकता में शिखर के कदम बढ़े चले जा रहे थे । उन परछाइयों में वह उस रात को देख  रहा था ,,  वहाँ चार - पाँच लड़के और दो लड़कियाँ भी दिख रही थीं । वे मोहित के कमरे में पार्टी कर रहे थे ,टेबल पर प्लेट्स और बोतलें दिख रही थीं , सभी बहुत खुश दिख रहे थे । मोहित ने एक लड़की का हाथ पकड़ा था और किसी दूसरे लड़के ने उस पर आपत्ति की थी । कुछ पलों में वहाँ का माहौल बदल गया था । गाली - गलौच के साथ हाथापाई भी शुरू हो गई थी । तभी मोहित के सिर पर किसी ने वार किया था और वह बेहोश होकर गिर गया था । घबराए हुए उन लोगों ने उसके बिस्तर से चादर खींच कर उसका फंदा बनाया और मोहित को पंखे से लटका दिया था । किसी चलचित्र की भाँति सारी घटनाएं शिखर की नजरों के आगे उद्घाटित हुई थी । भयाक्रांत सा वह चुपचाप अपने कमरे में आ गया था और चेतनाशून्य होकर बिस्तर पर गिर गया था । शिखर की जब आँख खुली तो वह अस्पताल में था और दोस्तों के अनुसार  वह दो दिन से सो रहा था ।
              जागकर भी शिखर वह  सब भूल नहीं पा रहा था , वह क्या करे ,किसी को बताए कि नहीं । वह खुदकुशी नहीं हत्या थी और इसीलिए मोहित की आत्मा भटक रही है । शिखर ने पुराने कर्मचारियों , पुस्कालय और कार्यालय के माध्यम से वहाँ मरने वाले बाकी लड़कों का पता लगाया । वे सब मोहित की बैच के ही विद्यार्थी थे । शिखर उन्हें पहचान तो नहीं पाया था ,पर यह जान गया था कि मोहित ने उन्हें  उनके किये की सजा दे दी है और यह घटनाएं शायद तभी खत्म होंगी जब तक वे सभी गुनहगार सजा नहीं पा जाते जो उस घटना से जुड़े हैं ।
          बार - बार  भयावह घटनाएँ  होने के कारण अब उस कमरे को अलॉट करना बंद कर दिया गया था । कमरा बन्द रहने पर भी वहाँ से गुजरने पर शिखर को एक डर सा लगता था  , कई बार अजीब सी आकृतियाँ रात को दिखाई देती थीं । अजीबोगरीब आवाजें सुनाई देती थीं मानो कोई सिसक रहा हो  ।  इसी कारण  उस कमरे के बगल वाले कमरों के लड़के  एक साल में कमरा खाली कर शहर में  किराये के घर में  चले जाते थे । धीरे - धीरे उस हॉन्टेड कमरे की कहानियों की वजह से वह विंग लगभग खाली हो गया था। शिखर और उसके दोस्त दूसरे विंग में रहते थे ,साथ ही हॉस्टल सस्ता पड़ता था और वहाँ मेस होने के कारण खाने की सुविधा थी इसलिए बहुत लोगों के लिए वहाँ रहना मजबूरी थी । 
      जब शिखर छठवें सेमेस्टर की तैयारी कर रहा था । वह और उसके दोस्त देर रात तक पढ़ रहे थे कि बाहर हॉल में जोर से बहस व झगड़े की आवाजें सुनाई पड़ीं  । वे बाहर आये तो देखा  उनके सीनियर राहुल और प्रेम  आपस में लड़ रहे थे  ,वे एक - दूसरे को किसी बात के लिए जिम्मेदार ठहरा रहे थे और मार डालने की धमकी दे रहे थे...वहाँ  उपस्थित सभी लोगों ने उन्हें  समझाने की कोशिश की पर नतीजा बेअसर रहा । फिर वे अपने कमरे में चले गए ...वह रात बड़ी मनहूस थी , सबको डर लग रहा था पर किसी ने वार्डन को खबर नहीं किया । आँखों में ही रात गुजर गई , लगभग तीन या चार बजे शिखर सोने गया और सुबह नींद खुली तो हॉस्टल में हंगामा 
मचा हुआ था  ,  राहुल  मरा  हुआ पाया गया था । उसका चेहरा बहुत वीभत्स हो गया था , कपड़े फ़टे हुए थे   ...उसके खून के छीटे यहाँ - वहाँ  बिखरे पड़े थे मानो मरने से पहले उसने बहुत संघर्ष किया हो और दीवार पर लिखा था 220 । वो बड़े दहशत भरे दिन थे । पुलिस की पूछताछ की कार्यवाही बहुत दिनों तक चलती रही । पुलिस प्रेम  पर हत्या का शक कर  उसे पूछताछ के लिए पकड़कर ले गई थी  । वह तो पागल सा हो गया था  । हॉस्टल में ऐसी घटनाओं की  पुनरावृत्ति होने के कारण यह केस सी. बी. आई. को सौंप दिया गया था ।
                      पढ़ाई में व्यवधान होने के कारण शिखर ने भी हॉस्टल छोड़ दिया था और किराये का घर लेकर रहने लगा था । वहीं उसने अपनी पढ़ाई पूरी की , तब तक कमरा नम्बर 220  के मुकदमे का कोई  फैसला नहीं हुआ था । अपनी पढ़ाई पूरी कर वह जयपुर आ गया था , उसके बाद वह कभी भोपाल नहीं गया । आज  उसका रूममेट महेश मिला तो फिर वही डर ,वही खौफ  उसके सामने आ खड़ा हुआ था । उससे मालूम हुआ कि बाद में कोई सुबूत नहीं मिलने के कारण  प्रेम 
छूट गया था ।  वह  राहुल की मौत के बाद अपने होशोहवास खो बैठा था । पढ़ाई छोड़कर बस इधर - उधर भटकता रहता । एक दिन हॉस्टल के ही पीछे बगीचे में पेड़ से लटककर  उसने खुदकुशी कर ली  । मोहित ने सबसे बदला ले लिया था , शिखर को आज तक समझ नहीं आया कि उसने अपना रहस्य उसके आगे क्यों खोला । हो सकता है वहाँ रह रहे और भी लोग इस रहस्य से परिचित हों और यह चाहते रहे हों कि मोहित उन सभी दोषियों को सजा दे । उस हॉन्टेड कमरा नम्बर 220  का रहस्य हॉस्टल के बन्द होने पर बाकी लोगों के लिए रहस्य ही बना रहा ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Tuesday, 5 May 2020

मुक्तक

सूरज को ढक नहीं सकता जलज- आवरण ,
मधुर स्मृति दे जाता है स्नेहसिक्त आचरण ।
सत्कार्यों की गूंज सुनाई देगी दूर तलक_
तुम  राष्ट्रसेवा  का धर्म निभाना आमरण ।।

डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग ,छत्तीसगढ़
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जिनके स्नेह की छांव में मरुथल गुलमर्ग होता है ,
जिनके आशीर्वाद से जीवन का उत्सर्ग होता है ।
ईश्वर ने भी दिया है जिनको मान और सम्मान _
मात- पिता के चरणों में रहना  स्वर्ग होता है ।।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग ,छत्तीसगढ़

मुक्तक

जो अच्छा लगे उसे रख लो ,
स्वाद एक बार तो चख लो ।
चयन का अवसर मिलेगा तुम्हें _
पर एक बार तो परख लो ।।

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माँ  कुछ भी कर जाती  परिवार के लिए ,
दुःख - दर्द सह जाती  सुसंस्कार के लिए ।
अपने सुख के लिए कभी न बोलेगी वह_
पर लड़ जाती बच्चे के अधिकार के लिए ।।

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स्मरण कर तुम्हें सजल  हुए नयन हैं ,

भावों की अंजुरी में श्रद्धा के सुमन हैं ।

सुख देती है माँ तेरे आँचल की छांव_

स्नेहाशीष  तेरा  विस्तृत गगन है ।।

बारम्बार करता मन तुझे नमन है ।।


स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे

दुर्ग , छत्तीसगढ़


स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Monday, 4 May 2020

मुक्तक

महंगाई की धूप में , सूखी ख्वाहिशों की डाली ।
सीमित आमदनी , हो गई खर्चों से जेबें खाली ।।

मुक्तक सृजन - 71
विषय - आँचल
तिथि - 17 मई 2019
वार - शुक्रवार

काँटों को चुनकर गुलिस्ताँ बन गई ,
कभी धरती कभी आसमां बन गई ।
भला पत्थरों की मुझे फिक्र क्यों हो _
मेरी माँ का आँचल कहकशाँ बन गई ।

सूरज #
दिन भर का थका हुआ ,
काम  अपना सब छोड़ ।
दूर क्षितिज में सो जाता ,
रात की काली चादर ओढ़ ।

मुक्तक

जन का सम्मान सबका घमंड भारत ,
विश्वशक्ति बनने चला प्रचंड भारत ।
मान चुके लोहा जिसकी संस्कृति का_
अभेद्य और अजेय रहे अखण्ड भारत ।

डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

चेहरे पर रहे सदा  , मुस्कान की चमक ।
अपनों का साथ हो ,  प्यार की दमक ।
उमंगों के साथ करें  , उम्र की  सीढियां पार ।
मिलती रहे आपको जीवन में खुशियाँ अपार ।

मुक्तक

मुक्तक सृजन 
विषय - नेह - संवाद
तिथि - 18 सितंबर
वार - बुधवार
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कम्पित अधरों पर स्मित हास ,
दिल में जगी है  प्रेम - प्यास ।
लज्जित नैन करें  नेह - संवाद _
बढ़ने लगी  मिलन की आस ।।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

मुक्तक

मुक्तक###❤️❤️
प्यार है तुमसे ये इकरार करते हैं ,
फिक्र है तुम्हारी  इजहार करते हैं ।
तुम्हारे बिना जीना नहीं है हमको_
तुम पर अपनी जान निसार करते हैं ।।
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दो सितारों का मिलन जमीं पर हो रहा है ,
प्रेम बीज का अंकुरण नमी पर हो रहा है ।
उगने और लहलहाने दो इस बिरवे को _
इश्क से गुलज़ार चमन यहीं पर हो रहा है ।।
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स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़






देश की खातिर

देश की खातिर तुम्हें अपना फर्ज निभाना है ,
याद रख भाई तुझे घर लौट कर  आना है ।

जाल बिछाया है  दुश्मन  ने  सम्भलना जरा ,
बचाना है खुद को ,उन्हें मारकर  आना है ।

भूख , प्यास , नींद सभी कुछ त्याग दिया तुमने ,
रुकना नहीं थक  कर , तुम्हें चलकर जाना है ।

राह रोकने आये कभी   बादल  निराशा के ,
चमको  सूरज बनकर  , तम को छलकर जाना है ।

हारना न हिम्मत ना बुझे उम्मीद का दिया ,
दीप सम जलना ,आँधी से लड़कर जाना है ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़













मुक्तक

लघु होकर  अस्तित्व का  भान कराती है ,
कर्मठता , गतिशीलता का ज्ञान कराती है ।
बाधाओं के आगे कभी हार नहीं मानती_
 लगनशीलता चींटी का मान बढ़ाती  है ।।
स्वरचित -डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

रात चाहे जितनी भी काली हो

रात चाहे जितनी भी काली हो , सूरज जरूर निकलता है ।उसी प्रकार  चाहे जीवन में  जितना भी अंधेरा आये , मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़े परन्तु उनका अंत होना ही है । कभी न कभी तो यह अंधेरा दूर होगा और एक उजला , मुस्कुराता हुआ दिन हमारा स्वागत करेगा । हमारे आस और विश्वास की अवश्य जीत होगी  ,हमारी चाहतें पूरी होंगी , ख्वाहिशों को हौसलों व साहस के पर लगेंगे ।आँखों में ख्वाब होंगे और दिल में उन्हें पूरा करने का  जज़्बा होगा । अपने सपने , अपनी  मंजिल को पाने की कोशिशें होंगी  । वक्त के कदमों से कदम मिलाते हुए हम अपने लक्ष्य को पाने में सफलता प्राप्त करेंगे ।  जीवन - सरिता बह निकलेगी अपने उसी  तीव्र प्रवाह के साथ समंदर से मिलने को । अभी कुछ पल के लिए रुक गए हैं तो झील की तरह निर्मल और मीठे जल का स्त्रोत बने रहें , अपने मन की  तलहटी में निराशा , अविश्वास रूपी कीचड़  को न जमने दें । अपने जीवन को सक्रिय , उपयोगी बनायें ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

बेबस मानव

किस बात का अहंकार है
किस बात पर उछलता है
बेबस हुआ है मौत के आगे
रे मानव ! तेरा कहाँ वश चलता है ।।

ज्ञान - विज्ञान में खूब बढ़ा
तरक्की की सीढियाँ चढ़ा
चाँद के पार जाने वाले
बेदम हो धरा पर गिरता है ।

खोज ली रोगों की दवा
फिर भी प्रिय को न रोक सका
नदियाँ रोकी , बाँध बनाये
पर अब भी बाढ़ में सब बहता है ।

खत्म किये वन्य जीव ,जंगल
खड़े किए कंक्रीट के महल
कारखानों के कसैले धुँए में
अब तेरा दम क्यों घुटता है ।

प्रकृति से किया छेड़छाड़ 
जिंदगी से किया खिलवाड़ 
डरकर विषाणु महामारी से
क्यूंअब  कैद घरों में रहता है ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग ,छत्तीसगढ़



मुक्तक

खत्म न हो ऐसी कोई रात नहीं है ,
छुपा सकें ऐसी कोई बात नहीं है ।
रिश्ता तोड़ने से पहले सोचना जरा_
टूट कर जुड़े ऐसा कोई पात नहीं है ।।

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सागर की विशालता में हर बूँद का योगदान है
इस अथाह जलागार में हर प्रवाह का सम्मान है ।
आकर विविध पर्वत , प्रान्त से मिलती जलधाराएँ_
चख लो कहीं पर से जल का स्वाद एक समान है ।।
तिरोहित कर स्वयं को सब हो जाती एक समान हैं ।।
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स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग ,छत्तीसगढ़

मुक्तक

हो जाओ सावधान भाई
सामने आपदा जो आई
जीवन बचाने है जरूरी
स्वास्थ्य , सुरक्षा व सफाई ।।

डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

मुक्तक मई दिवस

मजदूरों के हाथ में है दुनिया की डोर ,
उसके कठिन परिश्रम का न कोई ओर- छोर।
उसके कंधे पर ही है नव - निर्माण का भार_
कर्मशील इंसान वह न कभी मचाये शोर ।।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

पिंजरे में बंद तोते

पिंजरे में बंद तोते आपस में गुफ़्तगू कर रहे ,
क्या हो गया  इंसान को  जो कमरे में बंद रह रहे ।
बदला हुआ व्यवहार है , दिखा रहे कुछ प्यार है ,
कुदरत ने सिखा दिया  मीठे बोल मुँह से झर रहे ।
शोर थम गया है वाहनों का ,सड़कें हो गई सूनी  ,
नीर , वायु स्वच्छ हुए ,गगन में पंछी विचर रहे ।
जान रहे संस्कृति को  , मान रहे विधि - विधान ,
योग , शाकाहार अपना वे एकांत मनन कर रहे ।
मान लिया उसने कि  प्रकृति का किया शोषण ,
रुक गई है दौड़ साधन की , मानव अब सुधर रहे ।

स्वरचित - डॉ.  दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

दोहे

नेता , अधिकारी , पुलिस , खूब उड़ायें मौज ।
बदहाल खड़ी जनता , साँसें अपनी  रोक ।।
देश का सारा माल , इनकी बढ़ाये तोंद ।
सत्ता से चिपके बैठे , स्वार्थ की लगा गोंद ।।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

सजल

सजल
समांत - आई
पदांत - है
मात्रा भार - 29
💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐
ईश्वर  ने  यह दुनिया अनुपम ,अद्भुत  बनाई है
पंछी , प्रकृति ,जीव जंतु , जनाकृतियों से सजाई है
💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐
उसने चाहा तो यही था कि सब मिलकर साथ रहें 
इंसान और इंसान के बीच  गहरी खाई है
💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐
चमन बनाया  था जिसे  सहयोग  और सद्भाव से
मानव ने वहाँ झूठ ,फरेब  की बस्ती बसाई है
💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐
भस्म हुई  हैं नीतियाँ , विलुप्त हो रहे हैं संस्कार
बैर ,कटुता की यह अग्नि जाने किसने जलाई है 
💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐
विपत्तियों  की  गर्म हवा में सहयोग की बारिश ने
इंसानियत  के जीवित होने की आस जगाई है
💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़



मुक्तक

पीर यह मन की कील बन गई है ,
धार थी नद की  झील बन गई है ।
फलक पर मन के यह उड़ान भरती_
आघात  करती चील बन गई है  ।।
डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़
******************************

पा   श्चात्य रीति को हम विस्मृत कर लें ,
जीवन - शैली अपनी परिष्कृत कर लें ।
आत्मसात कर लें जीवन - मूल्यों को_
भविष्य हम अपना  सुसंस्कृत कर लें ।।
डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़
**********************************
प्रवृत्तियों पर अपनी चिंतन कर लें ,
कमियों पर अपनी मनन कर लें ।
कुछ तो उथल - पुथल होगा ही_
मन रूपी सागर- मंथन कर लें ।।
डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग ,छत्तीसगढ़

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मुक्तक

निकले थे नापने  दुनिया नाप न सके ,
रिश्तों की गहराई  को वो माप न सके ।
चले थे  जीतने जो दूसरों के दिल को_
दर्द वह जीवनसाथी का  भांप न सके ।।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा  चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

खूनी बावड़ी ( कहानी )

 बरसों बाद  अनुभा अपनी सहेलियों के साथ छुट्टी मनाने अपने गाँव जा रही थी ।  दादा - दादी के गुजर जाने के बाद पापा ने ही वहाँ जाना छोड़ दिया तो बाकी लोगों का तो प्रश्न नहीं उठता । बचपन की कुछ  बातें अभी भी स्मृतियों में स्थान
बनाये हुए हैं । गाँव है भी  तो बहुत दूर..पहाड़ों के आँचल तले 
हरे - भरे वनों के बीच नदी ,तालाबों , बावड़ियों से भरपूर ।ऐसी घनी छाँह फिर नसीब नहीं हुई , वह तो हार गई पापा की मिन्नतें कर - कर के पर पापा ने तो कुछ न कहने की कसम खा ली थी । अनुभा समझ सकती थी उनका मन..उस जगह उनकी कितनी खट्टी - ,मीठी यादें हैं । उनके अपने जिन्होंने उन्हें गोद में खिलाया , साथ पढ़े हमजोली बने । कुछ हैं तो कुछ बिछड़ गये । ज्यादातर तो चले ही गये , उन्हें याद कर अधिक उदास हो जाते थे पापा इसलिए कभी किसी ने बहुत जिद नहीं की । अब वक्त काफी आगे निकल चला है ,अनुभा की शादी हो गई और अब वह अपने निर्णय लेने में समर्थ है।एक दिन उसने अपनी सहेलियों के सामने अपने खूबसूरत गाँव का जिक्र किया तो वे भी व्यग्र हो उठीं कि कुछ दिन शहर के कोलाहल , नौकरी की चिखचिख और व्यस्तताओं के बीच कुछ सुकून के पल चुरा लिया जाये  । भीड़ भरे हिल स्टेशन जाना कोई नहीं चाहता था इसलिए आनन -फानन प्रोग्राम बन गया ।
        विंध्याचल  की खूबसूरत  शिखरों के बीच एक छोटा सा गाँव था   रामपुर  जिसकी आबादी बमुश्किल ढाई सौ होगी । हाँ थोड़ा मालगुजार लोगों का गाँव था तो बड़े - बड़े मकानों के नक्काशीदार  दरवाजों  , मण्डपों के खंडहर आज भी उस वक्त की  सम्पन्नता की कहानी कह रहे थे । अब तो लगभग खाली हो चुका था यह , सभी शहरों की ओर पलायन कर गये । दो - चार लोग जिनकी जिंदगी  मजदूरी व खेती  के सहारे  चलती थी  , वे ही  रुके हुए थे ।अनुभा के दादा के घर में उनका एक बहुत पुराना नौकर पीढ़ियों से घर की देखभाल कर रहा था और अपने परिवार के साथ वहीं रहता था ।  चूंकि पापा ने खबर भिजवा दी थी तो उन्होंने घर की सफाई व अन्य व्यवस्था ठीक कर दी थी ।
        गाँव  के संघर्ष भरे , झुर्रीदार चेहरों के बीच   कोई पहचाना चेहरा ढूँढना अनुभा के लिए मुश्किल था , पापा का नाम बताने पर कुछ किस्से निकल पड़ते । दादाजी को सभी जानते थे ।  गाँव के आस - पास के कई मंदिर और दर्शनीय स्थल देखकर वे भावाभिभूत थे । नैसर्गिक सौंदर्य  वहाँ के कण - कण में विद्यमान था । जंगली हवा के झोंके की तरह वे इधर - उधर डोलते रहे । एक दिन अनुभा को याद आया कि बचपन में उसे और सभी बच्चों को एक बावड़ी की तरफ जाने की सख्त मनाही थी । बच्चे क्या बड़े भी उधर झाँकने नहीं जाते थे । कहा जाता था कि वह बावड़ी अभिशप्त है । उसका स्वच्छ जल देखकर कई लोगों ने कोशिश की उसे खुलवाने की पर वह जीवित नहीं बचा । क्या आज भी उसे खोला नहीं गया है -अनुभा ने उसकी पड़ताल की तो पता चला कि अब भी उस खूनी बावड़ी के बारे में कोई बात नहीं करना चाहता । उनके नौकर की पत्नी ने बताया कि वर्षों पहले उस बावड़ी में  नैना की खुदकुशी करने के बाद वह बावड़ी अभिशप्त है और अब उसमें झाँकने वाला हर शख्स दूसरे दिन मरा हुआ मिलता है इसलिए उस बावड़ी को  तारों से घेर कर बन्द कर दिया गया है ताकि अब और कोई जान न जाये ।
       अनुभा और उसकी सहेलियाँ उस कहानी को जानने को बेचैन हो उठीं जो रोंगटे खड़े कर देने वाली थी ।  किसी पहाड़ी नदी की तरह चंचल व निश्छल थी नैना , बेहद खूबसूरत ।  उसका सरस् चितवन चर्चा का विषय बन चुका था , यौवन के आरंभ में ही उसे पाने को कई लोग बेताब हो उठे थे । बड़े - बड़े घरों के रिश्ते आने लगे थे पर वह पगली अपने बचपन के साथी श्रवन से मन ही मन प्यार करने लगी थी ।  एक मालगुजार की बेटी , हजारों बंदिशों के बीच  पलती रही और अपने घर काम करनेवाले  रामू काका के बेटे श्रवन को दिल फे बैठी । पिता को जब यह जानकारी हुई तो खानदान की इज्जत बचाने की जिद ने सही - गलत भुला दिया । श्रवन की हत्या कर उसी बावड़ी में डाल दिया गया । दुःख और प्रेम के वियोग में पागल हो गई नैना । वह अपनी सुध - बुध भूल बैठी ,सच्चाई मालूम होने पर उसी बावड़ी में कूदकर उसने अपनी जान दे दी । उसके बाद तो गाँव में मौत का तांडव होने लगा । न जाने कितनी जानें ली उस खूनी बावड़ी ने ।  भूलकर भी कोई उधर चला गया तो जिंदा नहीं बचता इसलिए लोग अपना घर बार , खेती - बाड़ी बेचकर यहाँ से निकलते गये और कभी लौटकर नहीं आये । अनुभा को अब समझ आया कि पापा जी इसीलिए गाँव जाने के नाम से ही सहम जाते थे और उदास हो जाते थे । अब वे शीघ्र वहाँ से निकल जाना चाहते थे क्योंकि अनुभा जानती थी पापा तब तक चिंतित रहेंगे जब तक वह वापस घर नहीं पहुँच जाती । कुछ सोचकर उसके होठों पर मधुर मुस्कान खिल गई थी .....जिंदगी  के कठोर अनुशासन में रहे पापा जी ने उसके प्रेम - विवाह को स्वीकार कर लिया था शायद यह उस अभिशप्त खूनी बावड़ी का उसे उपहार था ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

शशश....कोई है ( कहानी )

प्रशांत के फोन आते ही रवि की नजर घड़ी पर चली गई । रात के एक बजे उसे क्या काम आ गया । रवि समझ नहीं पा रहा था कि प्रशांत ने उसे तुरंत अपने घर आने के लिए क्यों कहा । शायद उसकी तबीयत ठीक नहीं,  ऐसा  लगता है । वैसे भी वह मम्मास बॉय ही रहा शुरू से , वो तो नौकरी के कारण उसे  घर से दूर रायपुर आना पड़ा नहीं तो वह मम्मी पापा को छोड़कर कभी नहीं आता । शुक्र है यहाँ उसके बचपन का दोस्त रवि था , उसके घर कुछ दिन रहकर वह एक किराये के घर में शिफ़्ट हो गया था । रवि और उसकी पत्नी तो यही चाहते थे कि वह उनके साथ रहे , पर कितने दिन कोई किसी के साथ रहे .. दो- चार दिन की बात तो थी नहीं ।
       उन दोनों ने न जाने कितने सारे घर देखे पर कोई पसन्द ही नहीं आ रहा था । रवि का एक दोस्त था सुमित जो न्यूयार्क में रहता था । उसका बंगला खाली पड़ा था और उसने रवि को यह जिम्मेदारी दी थी कि वह उसके लिए किरायेदार ढूँढे ताकि बंगले की उचित देखभाल होती रहे । हालांकि प्रशांत का बजट इतने बड़े बंगले के लायक नहीं था , लेकिन रवि के कहने पर बंगले के आधे हिस्से को बंद करके आधे हिस्से में  प्रशांत को रहने की अनुमति सुमित ने दे दी थी । 
            रवि तुरंत प्रशांत के घर जाने के लिए निकल पड़ा । रात्रि की नीरवता और अंधेरे में  पूरा शहर किसी बच्चे की भाँति निश्चिंत  सो रहा था । प्रशांत घर के बाहर ही रवि की प्रतीक्षा कर रहा था । वह बहुत घबराया सा दिख रहा था , इस कड़ाके की ठंड में भी वह पसीने से तरबतर था । हाथ - पैर कांप रहे थे और वह कुछ बोलने की स्थिति में नहीं था । रवि  प्रशांत को  साथ लेकर अपने  घर आ गया था और  उसे  दवा देकर सुला दिया था ।
           दूसरे दिन सुबह प्रशांत की हालत सामान्य हुई तब रवि ने उससे रात की घटना पर प्रश्न किया  - "आखिर वह कौन सी घटना हुई जिसने तुम्हें स्तब्ध कर दिया प्रशांत ?"
प्रशांत ने बताया  -  जब से मैं वहाँ रहने गया था मुझे  कुछ न कुछ अजीबोगरीब घटनाएँ होते दिखाई दी पर मैंने  उन्हें उतनी गम्भीरता से नहीं लिया । रात को अजीब सी आवाजें सुनाई देतीं पर कल पहली बार मैंने बंगले के बन्द वाले हिस्से की खिड़की में किसी को बैठे देखा । वह एक औरत थी जिसका चेहरा बहुत डरावना था ,उसके बाल लंबे व बिखरे हुए थे ।आँखें बड़ी - बड़ी और लाल दिखाई दे रही थी मानो उनमें अंगारे भरे हों । मैं वह सब देखकर बहुत डर गया था , बड़ी मुश्किल से तुझे फोन कर पाया । आगे का हाल तो तू जानता ही है ।
         मुझे तो  बहुत अचरज हो रहा है ऐसा सुनकर क्योंकि मैंने उस बंगले के बारे में कोई बात नहीं सुनी । हो सकता है यह तुम्हारा  भरम हो । उस घर को जब सुमित ने लिया तब भी उसके बारे में हमें कुछ गलत नहीं कहा किसी ने । सुमित के विदेश जाने के बाद उसकी मम्मी वहाँ अकेली बहुत वर्षों तक रही । उनके निधन के बाद कई लोग वहाँ रहे तो भी किसी ने कुछ नहीं कहा । यदि तुम्हारे मन में कोई शंका है तो तुम अब वहाँ मत जाओ । अभी यहीं हमारे साथ रहो , फिर कोई दूसरा मकान देख लेते हैं । 
  अरे नहीं यार ! ऐसी भी कोई बात नहीं , रहकर देखते हैं.. वैसे कोई भूत हो तो भी रह लेंगे एक से भले दो - प्रशांत ने हँसते हुए कहा । अच्छा बच्चू , कल की हालत भूल गया क्या  , अभी  इतनी हिम्मत आ गई कि भूत के साथ रहने की इच्छा हो रही है । चल देख लेते हैं , यह किसी की बदमाशी भी हो सकती है , ध्यान रखना । उस घर पर बहुत लोगों की नजर थी खरीदने के लिए , पर सुमित की ढेर सारी यादें जुड़ी हैं उस घर से इसलिए वह बेचना नहीं चाहता । परदेश में आखिर कब तक रहेगा हो सकता है कभी लौट भी आये ।
      उस दिन के बाद प्रशांत पुनः अपनी दिनचर्या में सामान्य हो गया । पर कभी - कभी कई घटनाएं उसे चौंका देती थीं , मानो कोई उसका बहुत ध्यान रख रहा हो । प्रशांत को कई बार माँ की याद आ जाती थी और वह वीडियो कॉल करके उनसे मिलने की अपनी इच्छा पूरी कर लेता । पिताजी का स्वास्थ्य खराब होने के कारण वह उसके साथ नहीं आ सकती थी । प्रशांत  सुबह कुछ नाश्ता कर ड्यूटी चला जाता और वहीं कुछ खा लेता , शाम को फल , दूध लेकर घर आता और रात का खाना स्वयं बना लेता । अकेले टी वी देखकर कितना टाईम पास करता तो इसी बहाने थोड़ा व्यस्त भी रहता , वैसे वह मम्मी का लाडला था तो किचन में चक्कर लगाता रहता । कभी - कभी मम्मी की मदद भी कर देता । यहाँ घर की सफाई व अन्य कार्यों के लिए उसे एक नौकर  शिव भी मिल गया था ।कई बार रात का खाना बनाते हुए उसका आधा -अधूरा छोड़ा हुआ काम उसे सुबह खत्म हुआ मिलता , उसे घर में किसी की उपस्थिति महसूस होती थी एक छाया सी ,....पर उसने प्रशांत को कभी कोई चोट नहीं पहुंचाई ।  कुछ दिन पहले शिव काम पर नहीं आया था तो उस दिन ऑफिस जाने में प्रशांत को देर हो गई और हड़बड़ी में वह दूध गैस पर चढ़ाकर  बन्द करना भूल गया । ऑफिस में अचानक याद आने पर दौड़ा -  भागा वापस आया तब तक तीन  - चार घण्टे बीत चुके थे । दूध के जलने से अधिक उसे गैस के खुले रहने का डर था कि कहीं कोई अनहोनी न हो जाये , पर जब वह घर पहुँचा तो उसने गैस बंद पाया मानो किसी ने बंद किया हो । एक - दो बार ऐसी कई दुर्घटनाएं होते - होते बचीं । भूत प्रेत तो नहीं पर यहाँ उसकी सहायक कोई दिव्य - शक्ति जरूर है , उसने  सोचा ।
                  उस रात की तरह  खिड़की पर उस औरत की परछाई उसे कई बार दिखी पर अब उसे डर नहीं लगता था  हाँ वह सच  जरूर जानना चाहता था  । वह परछाई अक्सर उसे रात के वक्त दिखती थी खिड़की पर कोहनी टिकाये मानो उसे किसी के आने का इंतजार हो । एक दिन शिव को सफाई करते हुए एक डायरी मिली जिसे वह प्रशांत  को देकर गया । यह प्रशांत की डायरी नहीं थी पर उसे पढ़ने का मोह वह छोड़ नहीं पाया ।
          दिव्याभा ...हाँ यही नाम लिखा था उस पर । पढ़ना शुरू किया तो पढता ही चला गया ।  उसने अपनी पूरी जिंदगी उन पन्नों में उतार दी थी । एक स्त्री जीवन के विभन्न पक्षों का सजीव चित्रण  था ।  उसके मन की गहराइयों में डूबी पीड़ा शब्दों में उभर आई थी । उन पन्नों से लगाव हो गया था प्रशांत को , इतना अधिक कि उसे न खाने की सुध रही न पीने की । वीकेंड कैसे बीता पता ही नहीं चला । वह एक प्यारी व अपने माता - पिता की चिंता करती बेटी थी तो एक आज्ञाकारी  जिम्मेदार पत्नी भी  । फिर बेटे के जन्म के बाद डायरी के पन्ने खाली छूट गए थे जो उसका अपने बच्चे की देखभाल की व्यस्तता बता रहा था । कुछ वर्षों के बाद पुनः डायरी लिखना प्रारंभ हुआ शायद बेटे के बड़े होने के बाद उसने फिर से लिखा  हो । उसके बाद बेटे के विदेश जाने के बाद के पन्ने  एक माँ के दर्द से लिखे हुए थे । कितनी करुणा थी उन शब्दों में , मानो वे स्याही से नहीं  आँसुओं से लिखे गए हों । इंतजार का हर पल कितना लम्बा होता है , दिव्याभा  ने हर पल अपने बेटे  का इंतजार किया था , उसकी शादी , बच्चे के जन्म पर मिलने की इच्छा बड़ी शिद्दत से  व्यक्त की थी । बेटा बहाने ही बनाते रहा , काम की व्यस्तता  क्या मनुष्य को अपने प्रियजनों से अधिक प्रिय हो सकता है । लोग क्यों भूल जाते हैं कि सुख - सुविधाएं इंसान के लिए है पर इंसान उसके लिए अपना सब कुछ भूल जाता है । जिंदगी क्या इंतजार करती है मनुष्य के सफल होने का , वह तो अपना कार्य करती रहती है । कहाँ कितनी देर रुकना है यह तो मनुष्य को ही तय करना रहता है।
प्राथमिकता किसे देनी है यह तो  उसके हाथ में है ,मनुष्य अपनी मुट्ठी में वक्त को भर कर रख लेना चाहता है और कल के लिए अपनी खुशियों को स्थगित करते रहता है जो कभी आता ही नहीं । अपने बेटे और उसके परिवार का इंतजार करते एक माँ की आँखें पथरा गई , काया हड्डी के ढाँचे में बदल गई और वह उन अस्थियों के विसर्जन के लिए भी नहीं आ पाया । माँ का शरीर तो चला गया पर आत्मा यहीं रह गई ।
     प्रशांत की आँखों से आँसू अनवरत बह रहे थे ...तो वह एक माँ है । माँ तो माँ होती है चाहे वह सदेह हो , भूत - प्रेत हो या उसकी रूह ..वात्सल्य से भरी । प्रशांत की नजरें उस खिड़की पर लगी थी...आँसुओं के धुंधलके के पार  आज वह उस माँ को देखना व नमन करना चाहता था ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़