परिवर्तन के बीज में निर्माण का अंकुर पलता है ।
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कटु सत्य है जीवन और मृत्यु का आवागमन ,
विधि का लिखा किसी के टाले कब टलता है ।
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पीले पात झरे तभी फूटे नव - पल्लव शाखों में ,
पतझड़ के बाद ही उपवन में बहार खिलता है ।
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बचपन छोड़ा तो मिली जवानी ,उसके बाद बुढ़ापा ,
सूरज अपनी निश्चित चाल में निकलता व ढलता है ।
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बदलाव होना जरूरी है शासन और प्रशासन में ,
राजनीति के साये में स्वार्थ करवटें बदलता है ।
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आज टूट रही मर्यादाएँ वक्त के साथ - साथ ,
बादशाह को भिखारी बनने में न वक्त लगता है ।
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कच्चा रह जायेगा भीतर से पकने दो धीरे - धीरे ,
अग्नि में तपकर ही स्वर्ण अधिक निखरता है ।
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लक्ष्य पाने के लिए तुम्हें धीरज रखना है जरूरी ,
सींचो जितना भी वृक्ष मौसम आने पर फलता है ।
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क्षणभंगुर है यह कुछ हासिल कर लो जीवन में ,
देख लो रेत की तरह वक्त मुट्ठी से फिसलता है ।
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स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग ,छत्तीसगढ़
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