कभी ऊपर कभी नीचे ।
गिरा देती कभी धरा पर ,
कभी हाथ पकड़ खींचे ।
चलते रहना निरंतर ,
संघर्ष भरा यह सफर है ।
पार करने बनो आत्मनिर्भर ,
बड़ी लम्बी यह डगर है ।
यादों के कारवाँ संग ,
चल आगे न देख पीछे ।
ऊँचाईयों में उड़ना पर ,
रखना पाँव जमीं पे ।
ख्वाहिशों का यह समन्दर ,
न उतर तलहटी पे ।
बाजार ये नुमाइशों का ,
मकड़जाल में अपने भींचे ।
हैं राहें घनी अंधेरी ,
अंध गह्वर लालसा का ।
भटका जाता राही ,
मंजिलें हुई मृग - मरीचिका ।
धोखा या जादूगरी है ,
चकाचौंध इंद्रजाल सरीखे ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़
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