Monday, 30 December 2019

नया साल

31 दिसंबर की सर्द रात...शहर रोशनी से जगमगा रहा था.... शीत लहर शरीर के भीतर घुसकर हड्डियों तक को कंपकंपा रही थी पर उस पार्टी हॉल  में  इसका कोई असर नहीं था । जगह - जगह  जल रहे अलाव और स्लीवलेस ड्रेसेस में युवतियाँ ठंड को चुनौती दे रहे थे ।गरमागरम भोजन परोसा जा रहा था , जाम पर जाम छलक रहे थे । डांस फ्लोर पर लोग थिरक रहे थे । विविध प्रकार के व्यंजनों का स्वाद चखते लोग 
पेट में कम प्लेट में अधिक भोजन छोड़ रहे थे  । ठहाकों के बीच लोगों की नजर घड़ी के काँटों पर लगी थी वहीं सड़क के फुटपाथ पर बैठे कुछ अधनङ्गे ठिठुरते लोगों की नजर इन पर ।
आग के सहारे वे पार्टी खत्म होने का इंतजार कर रहे थे ताकि बचा - खुचा व जूठा भोजन पाकर वे भी नये वर्ष की शुरुआत कर सकें । तभी आस - पास से लोगों की जोरदार आवाज आई - "हैप्पी न्यू ईयर "....नया साल सभी के लिए लेकर आया था.. उमंग , उत्साह और खुशियाँ ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Saturday, 14 December 2019

कागज

मन के कोरे कागज पर लिख दिया तेरा नाम पिया ,
कुछ सोचा न समझा बस तुझसे ही प्यार किया ।

मन में तेरी छबि अंकित , सोच में  बस तू ही तू ,
सामने जब तुम आ जाते ,धड़कता मेरा जिया ।

बातें तेरी अच्छी लगती मिलने को तड़पे दिल ,
उड़ गई नींदें रातों की सुकून तूने छीन लिया ।

इंतजार में कटते दिन  करवटों में कटी रातें ,
प्रेम किया मैंने तुमने विरह का उपहार दिया ।

चातक को सुकून मिलता है चाँद को देखकर ,
"दीक्षा" आस के धागे से प्रेम का चूनर सिया ।

स्वरचित -  डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़





Friday, 13 December 2019

देह की देहरी

देह की देहरी पार ना कर सके ।
 दिल से दिल के मिलन की शुभेच्छा करें ।।

 हो सका ना मिलन इस जनम में अगर ।
हम अगले जनम की प्रतीक्षा करें ।।

बातें क्या थीं जो दरमियाँ आ गई ।
कारणों की चलो हम समीक्षा करें ।।

प्यार की परख को और क्या चाहिए ।
धैर्य की आज अपनी परीक्षा करें ।।


स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीस

संस्मरण

कई बार हम बिना किसी स्वार्थ या मतलब के यूँ ही झूठ बोल देते हैं जबकि सच बोलने पर भी हमारा कोई विशेष नुकसान नहीं होता । परन्तु उस झूठ से यदि आपकी छबि खराब होती है , किसी का विश्वास टूट जाता है तो ऐसे झूठ से बचना चाहिए । जीवन की एक घटना ने मुझे यह बड़ा सबक सिखाया कॉलेज पूरा करने के बाद मैं संविदा नियुक्ति पर कवर्धा महाविद्यालय में सहायक प्राध्यापक के पद पर एक वर्ष रही । वहाँ पापा जी के एक परिचित थे वर्मा अंकल , उनसे बात करके पापा जी ने उनके घर के पास ही एक कमरा किराये पर लिया । वे आते - जाते मेरी कुशल - क्षेम पूछते रहते ।मेरा बहुत ध्यान भी रखते । अक्सर छुट्टियों में मैं घर आ जाती , उस बार भी कोई छुट्टी पड़ी थी तो मेरी एक सहेली ने बहुत जिद करके मुझे अपने घर रोक लिया । दरअसल उसने मुझे खाना खाने बुलाया था रात हो गई तो मैं वहीं सो गई । इसके बारे में मैंने अंकल को बताया नहीं था तो अचानक जब उन्होंने मुझे पूछा कि कल तुम घर गई थी तो हड़बड़ाहट में मैं हाँ कह गई।
बाद में बता दूँगी सोची थी पर अब क्या बताना सोचकर नहीं बताया । सहेली के यहाँ रुक गई थी बताने में क्या बुराई थी , ऐसा अपराधबोध कई बार हुआ । पर मम्मी - पापा को तो मैंने बता दिया है तो उनसे क्या डरना सोचकर मैंने इस बारे में उनसे कोई बात नहीं की ।
   बाद में मैंने महसूस किया कि वो कुछ कटे से रहने लगे हैं ,कॉलेज आते - जाते मुझसे बात भी नहीं करते थे । उनकी बेटी ने बहुत बाद में बताया कि मेरे इस छोटे से झूठ के कारण उन्हें बहुत दुःख हुआ और उनका विश्वास टूट गया है । यह बात मुझे वहाँ से आने के बाद मालूम हुई नहीं तो मैं उनसे माफी माँग लेती । सचमुच जब वे एक पालक की तरह मेरी परवाह करते थे तो मुझे उनकी उपेक्षा नहीं करनी थी और उनसे सच कहना था हालांकि ये कोई बड़ी बात नहीं थी पर वे मेरे प्रशंसक थे और मेरे व्यवहार की बहुत तारीफ किया करते थे । अपनी गलती पर मुझे बहुत शर्मिंदगी हुई और उस घटना के बाद मैंने यह सीखा कि किसी का विश्वास नहीं तोड़ना चाहिए । हर रिश्ते को महत्व देना चाहिए , अनजाने में भी किसी की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए । अफसोस अंकल इस दुनिया में नहीं हैं पर मैंने पश्चाताप के आँसुओं से अपना मन धो लिया है ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Thursday, 12 December 2019

मुक्तक

हर किसी के भीतर कुछ न कुछ अच्छा रहता है ,
ऊपर से पकने लगे पर अन्दर से कच्चा रहता है ।
मचलने  लगता है , रो देता है  कभी - कभी  _
जिस्म की दहलीज के भीतर एक बच्चा रहता है ।।

मुश्किलों के आगे न शीश झुकाना है ,
दूर बहुत दूर अभी चलकर जाना है ।
थककर न बैठ ओ राह के मुसाफिर_
बाधाओं को पारकर मंजिल को पाना है ।।

अच्छी सोच बनाती तेज कलम की धार ,
इनकी निर्भय वाणी से डरता संसार ।
समाज में परिवर्तन के वाहक  हैं ये_
नव - निर्माण को राह दिखाते कलमकार ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

बाल गीत

मेरे आँगन आना चिड़िया ,
आकर खाना दाना चिड़िया ।
सूना - सूना लगता है घर ,
कभी नहीं फिर जाना चिड़िया ।
पेड़ लगाया है एक मैंने ,
घोंसला तुम बनाना चिड़िया ।
करते रहना ची - ची ,ची - ची ,
खुशी के गीत गाना चिड़िया ।
हर हाल में चहकते रहना ,
हम सबको सिखलाना चिड़िया ।
फुदक - फुदक कर इधर- उधर तुम,
जीने की राह दिखाना चिड़िया ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Friday, 6 December 2019

आप भी बनें किसी का सुकून

            अरे ! सुना सिया का चक्कर चल रहा है किसी से ..सुनते ही सभी सहेलियाँ रोमा को घेर खड़ी हो गई थी । बस फिर तो सभी ने मजे ले लेके यह वर्णन सुना । किसी ने भी इस समाचार के सही होने की खोज नहीं की । यहाँ से वहाँ इस बात का प्रसार करती रही और निर्दोष सिया की गृहस्थी खतरे में पड़ गई । स्त्रियाँ खुद क्यों विश्वास नहीं कर पाती स्त्री पर । किसी स्त्री पर उंगली उठाने में उनका अपना महकमा ही आगे रहता है पता नहीं क्यों ? शायद जलन या झुँझलाहट इस बात की कि सामनेवाली जो कार्य कर रही है वह नहीं कर पा रही । उन्हें वह अवसर नहीं मिल पाया आगे बढ़ने का या उन्होंने स्वयं को मिले अवसर का लाभ नहीं उठाया । अभी उस दिन किसी विभाग में कार्यरत एक महिला के बारे में चर्चा हो रही थी कि उसका किसी के साथ चक्कर चल रहा है तो एक मैडम ने झट फैसला सुना दिया - " जितनी औरतें ऑफिस में काम करती हैं सबके सब ऐसी होती हैं ।" किसी एक स्त्री की वजह से आप पूरी कौम को चरित्रहीन कैसे साबित कर सकती हैं ? बोलते वक्त लोग यह  भूल जाते हैं कि उनके भी कई अपने कहीं न कहीं काम कर रहे हैं । अपनी गरिमा को बनाये रखना आपके अपने हाथ में है , आप स्वयं अपने वर्ग की बेइज्जती न करें । आप कामकाजी हैं तो दूसरी कामकाजी महिलाओं की परिस्थितियों को बेहतर समझ सकती हैं ।घर से बाहर निकल कर कार्य करने वाली स्त्री के सामने न जाने कितनी चुनौतियों रहती हैं । उन्हें घर - बाहर के कामों में सामंजस्य स्थापित करने में कितनी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है ,कैसे - कैसे लोगों को झेलना पड़ता है ,जरा इस बात को समझें । कार्यालय में अपना सहयोगी चुनना आपके अपने हाथ में नहीं होता । परन्तु अपने गरिमा बनाये रखना भी स्त्रियों को आना चाहिए ।कोई कहता है कौआ कान ले गया तो आप उसके पीछे मत भागिए । किसी अफवाह को फैलाने में आप योगदान मत दीजिए । स्त्री विरोधी माहौल को हवा देंगी तो आग की लपटें फैलेंगी और हो सकता है कल इससे आपका घर ही जल जाए । दूसरों के नजरिये से भी परिस्थितियों को देखने का प्रयास करें , किसी महिला कामकाजी को आप सहयोग नहीं दे पा रहे हैं कोई बात नहीं , सामान्यतः पुरूष साथी बेहतर मददगार साबित होते हैं । जब पुरूष साथी यह कार्य करता है तो उन पर कोई इल्जाम न लगाइये , उन पर शक न कीजिए क्योंकि हो सकता है कल आपको भी इसी स्थिति का सामना करना पड़े । एक स्त्री के लिए अधिक आसान है स्त्री को समझना क्योंकि वह हर उस दर्द , अनुभव , अपेक्षाओं , आकांक्षाओं की साझेदार है जो उसने स्वयं महसूस किया है । तो ऐसा क्यों न हो कि जब भी उसे सहयोग , मार्गदर्शन की आवश्यकता हो तो कोई न कोई महिला उसके लिए खड़ी रहे चाहे वह उसकी कोई रिश्तेदार , सखी , बहन हो चाहे सिर्फ एक स्त्री हो । कई बार अकेले में घबराते मन को वहाँ अचानक उपस्थित महिला सम्बल प्रदान कर जाती है , किसी अनजान राह पर चलते हुए किसी अपरिचित स्त्री का साथ भी सुकून दे जाता है तो क्यों न प्रत्येक स्त्री इस आनन्द का अनुभव करे किसी अपनी का सुकून बनकर । 
स्वरचित -  डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़


अस्तित्व ( लघुकथा )

आज  रमा  के नये शोरूम का शुभारंभ था , एक सामान्य घरेलू महिला का सिलाई - कढाई का शौक बुटीक से बढ़कर शो रूम तक  पहुँच गया था , यह इतना आसान नहीं था । जब रमा ने अपने पति महेश से काम करने की इच्छा जताई तो उसने तल्ख स्वर में उस पर व्यंग्य किया था - " इतनी कम पढ़ी - लिखी होकर क्या काम करोगी तुम ? तुम न चूल्हे - चौके तक ही ठीक हो ।" पति की बात चुभ गई थी रमा को , बचपन से ही सिलाई - कढाई से बेहद लगाव था उसे। कठिन से कठिन डिज़ाइन देखकर ही बना लेती । पति की कटुक्ति को चुनौती के रूप में लिया था उसने और घर के कामों के साथ - साथ सिलाई का काम शुरू कर दिया । मोहल्ले की कुछ औरतें उससे सीखने भी आने लगीं । उसकी मेहनत रंग लाई और लोगों को उसका काम पसन्द आने लगा । जगह कम पड़ने लगी और दुकान किराये पर लेनी पड़ी । आज उसकी आय पति से अधिक है, सबसे बड़े सन्तोष की बात है कि उसने अपने जैसी कई घरेलू महिलाओं के सपनों को पंख दिये और उन्हें भी उनके अस्तित्व का बोध कराया । महेश ने तो पहले ही उसकी इच्छाशक्ति के आगे घुटने टेक दिए थे और अपने कहे शब्द वापस ले लिए थे ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे 
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Wednesday, 4 December 2019

ग़ज़ल

प्रीत में बंधकर मन हुआ आजाद है ,
यादों से तेरी दिल का चमन आबाद है ।

प्यार की ताकत है त्याग और समर्पण ,
भव्य बना ताज क्योंकि इश्क की बुनियाद है ।

जीना नहीं सिर्फ दिल का धड़कते रहना ,
उम्रदराज़ करती प्रियतम की याद है ।

खुशियों से आबाद रहे सदा तेरा चमन ,
मेरे दिल से निकलती बस यही फरियाद है ।

तूफानों के आगे न झुकेगी ' दीक्षा ' ,
इश्क में इरादे हो जाते फौलाद हैं ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़


Monday, 2 December 2019

लौट आओ

क्या तुम इतने बड़े हो गये ,
न जाने कहाँ  खो गये हो ।
चले गये हो हम सबसे दूर ,
कैसे - कैसे लोगों के संग ।
अपनों को भूल कर ,
बेगानों के हो गये हो ।
बेदर्द , संगदिल , बेरहम
जुर्म , नशे की गलियाँ ।
लोभ की मृगतृष्णा में फँस,
सन्मार्ग से भटक गये हो ।
सही - गलत की पहचान ,
तुम क्यों न कर पाये ।
हार गये अपनी कमजोरी से ,
क्यों न लड़ पाये ।
घर के बाहर सुख नहीं ,
आँखें खुली रख सो गये हो ।
लौट आओ घर वक्त रहते ,
दरवाजे पर बैठी माँ राह तकते ।
सूनी आँखों में उजास भर जाओ ,
आस टूटने से पहले घर लौट आओ ।
इतने पत्थर दिल क्यो हो गये हो ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़



Thursday, 28 November 2019

बेजुबान ( लघुकथा)

पायल बेजुबान सी पुलिस द्वारा उसके पति सुनील को पकड़कर ले जाते देख रही थी । उसके कोई प्रतिरोध न करने पर लोग हतप्रभ थे परंतु वह तब भी नहीं बोली थी जब उसकी मर्जी के बिना उसकी शादी कर दी गई । तब भी नहीं जब सुनील शराब पीकर उसे मारता - पीटता । जब जी चाहे घर आता जब जी चाहे कहीं चला जाता । तब भी कुछ नहीं कहा जब उसकी मर्जी के बगैर कई बार..... आज पहली बार अपने बेजुबान होने पर उसे अफसोस नहीं हो रहा था ।

स्वरचित -डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Wednesday, 27 November 2019

दिन है तू रात मैं

दिन है तू रात मैं , मिले कहाँ  कोई कहे ।
क्या करूँ बात मैं , दूरियाँ दरमियाँ रहे ।
वक्त की धार में ,ख्वाहिशें बनके पात बहे ।
मार मुश्किलों  की ,बता कोई कब तक सहे ।
दिन और रात मिल , एक नया क्षितिज गढ़ें ।
प्रेम के उजास में , थामकर  हाथ आगे बढ़ें ।
दो विपरीत रंग घुल - मिलकर नया रंग बनें ।
एक पथ के साथी हम एक जिस्म के अंग बनें ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , छत्तीसगढ़

अनपढ़ ( लघुकथा )

 अनपढ़ (लघुकथा )

     अस्पताल के बिस्तर पर लेटे हुए राज के आँसू अनवरत बह रहे थे... उच्च अधिकारी होने का दंभ उन आँसुओं में तिरोहित हो गया था । आज रेणु ने अपनी एक किडनी देकर उसकी जान बचा ली थी जिसे अनपढ़ समझकर उसने जिंदगी भर उपेक्षित किया था । माता - पिता के दबाव के कारण उसने रेणु से शादी तो की थी लेकिन कभी दिल से उसे अपनाया नहीं
। रेणु बिना किसी शिकायत के अपने दायित्व निभाती रही , आज उसने साबित कर दिया था निःस्वार्थ प्रेम और त्याग किसी डिग्री का मोहताज नहीं होता , साथ ही अपने पति के हृदय में वो स्थान बना चुकी थी जिसकी वह हकदार थी ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

किस्मत ( लघुकथा )

" किस्मत का लिखा कौन टाल सकता है बेटा ! पर तुमको बच्चों के लिए अपने - आपको सम्भालना होगा " - रश्मि को घेर कर बैठी औरतें विलाप कर रही थीं । पैतीस वर्ष  की रश्मि के पति का आकस्मिक निधन हो गया था । आठ वर्ष और दस वर्ष की दो बेटियों के साथ अब वह जीवनपथ  पर अकेली हो गई थी ।  सही कहा था बुआ ने - अपनी किस्मत पर रोने की बजाय अब उसे धैर्य व साहस के साथ जीना होगा , परिश्रम से अपने प्रारब्ध को बदलना होगा । दृढ़ निश्चय ने  निराशा व दुःख की इस घड़ी में  भी उसके चेहरे की आभा बढ़ा दी थी ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग  , छत्तीसगढ़

Monday, 25 November 2019

कुछ खट्टी कुछ मीठी

कुछ खट्टी कुछ मीठी यादें मन को भिगो गई ,
मानो रिमझिम फुहारें अम्बर- धरा को धो गई ।

दौड़ गई फिर एक बार बचपन की गलियों में ,
वो लड़कपन वो मस्ती जाने कहाँ खो गई ।

वो शैतानियाँ , नादानियाँ , बदमाशियाँ ,
न जाने गुड़िया के किस पिटारे में सो गई ।
 
माँ की डाँट से बचने को पापा के कंधे चढ़ी ,
रहती वैसी गुड़िया सी क्यों मैं बड़ी हो गई ।

सखियों की सब बातें याद मुझे आने लगीं ,
रोक न पाई जज्बातों को न जाने कब रो गई ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़




Sunday, 24 November 2019

बोलती तस्वीर

समाज रूपी वृक्ष की दो शाखाएं नर और नारी ,
सींचते , सँवारते मिलकर देखती दुनिया सारी ।
जड़ें  यदि मजबूत हो तो वृक्ष भी फल देगा ,
समन्वय व सहयोग सफलता की अधिकारी ।
नन्हीं - नन्हीं शाखें विकसित हो रही तनों से ,
प्रेम और सद्भावना से सींचें जग की क्यारी ।
व्यक्तिगत स्वार्थ से ऊपर उठकर चलें अब ,
फैलाएँ सौरभ अमन का महका दें फुलवारी ।
राष्ट्रप्रेम की लौ जलाकर रौशन कर दें जहां ,
उड़ान को मिला  गगन परिंदे  हुए आभारी ।।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Friday, 22 November 2019

किसके लिए ( लघुकथा )

आज  मेरी सहेली सुहानी बहुत गुस्से में थी । जब से आई थी दूसरों पर अपनी खीझ उतार रही थी और चिडचिड़ा रही थी ।
दरअसल  वह अपने पति और बच्चे पर उसका कहा कोई काम न कर पाने के कारण होने वाले नुकसान पर बरस कर आई थी । मैंने उससे पूछा कि उसने इतनी उम्र में क्या पूँजी बनाई है । विषय से हटकर अब वह अपनी सम्पत्ति गिनाने में लग गई थी । उसके बाद मेरा अगला प्रश्न था कि उसके पति और बच्चों के बिना इस सम्पत्ति का उसके लिए क्या महत्व है ? वह निरुत्तर हो गई थी क्योंकि सचमुच उसके जीवन की सबसे बड़ी सम्पत्ति उसका परिवार था । फिर यह गुस्सा किसके लिए ? अपने - आप से पूछे गये इस प्रश्न ने उसे शांत कर दिया था ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Thursday, 21 November 2019

माँ

भारतीय परिधान में सुसज्जित नारी ,
सुकोमला,सुलक्षणा, अलंकृता ,
पोषिका, वन्दनीया , शिक्षिता ,
देश रहे सदा उस माँ का आभारी ।।
उसकी देखरेख में सबल परिवार  ,
देती  ज्ञान - विज्ञान का आधार ।
सिखाती - पढ़ाती अपने बच्चों को ..
बनाती सुयोग्य  , सुशिक्षित ,सुसंस्कारी ।।
बेटा - बेटी हैं  एक समान ,
भेद  न कोई  उनमें मान ,
परन्तु बेटी की शिक्षा बने...
निश्चित ही दो परिवारों के लिए हितकारी ।।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़


Monday, 18 November 2019

मधुर मिलन

टिम - टिम करते तारे झाँक रहे ,
व्याकुल चाँद घूमे गगन - गगन ।
चाँदनी में  वह मुखड़ा ताक रहे ,
 यामिनी कहाँ  बैठी बन दुल्हन ।।

नीरवता सखी  सदा साथ रहे ,
शीतल , पुलकित मन्द समीरन ।
चूनर में जुगनू को टांक रहे ,
खिले श्वेत पुष्प बने आभूषण ।।

पर खोल रहे गुंचे अपने ,
उड़े रंगोआब महका गुलशन ।
इंतजार में  हैं सदियाँ  बीती   ,
आस लगाये है  बैठी विरहन ।।

आ गई है बेला पूनम की ,
होगा अब तो उनका मधुर मिलन ।
निशा की प्रीत में  खिला चाँद ,
चन्द्र - स्पर्श से हुई निशा रौशन ।।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़







Friday, 15 November 2019

ग़ज़ल

इश्क में सरस जीवन लगता  है ,
पुष्पित सुरभित उपवन लगता है ।

यूँ तो हसीं लगते सारे नजारे ,
सबसे प्यारा साजन लगता है ।

जवां हो रही कली ख्वाहिशों की ,
पुलकित  सरसिज सा मन लगता है ।

लट उलझाये , दुपट्टा उड़ाये ,
कुछ मनचला यह पवन लगता है ।

उमंगें हुई समंदर  सी गहरी ,
हृदय नीलाभ गगन लगता है ।

उड़ते रहते पंछी के मानिंद ,
सुंदर प्यार का बंधन लगता है ।

नजरें मिला हुई बेसब्र " दीक्षा ",
चुगली न करे धड़कन लगता है ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Wednesday, 13 November 2019

करुण रस

अभी - अभी वह अस्पताल से आई है ,
देह के साथ मन भी झुलसा लाई है ।
चन्द सवाल हैं उन भीगती आँखों के ,
जो अश्कों के साथ दर्द से  भारी हैं  ।
जो सजा थी उसके खूबसूरत होने की ,
जिद अपनी इज्जत , सम्मान न खोने की ।
लड़की होना क्या गुनाह है उसका ,
या उसने ना कहने की सजा पाई है ।
कुसूर क्या था उसका ? किया था इंकार ,
उस पागल प्रेमी का प्रेम नहीं किया स्वीकार ।
एकतरफा प्रेम की भेंट चढ़ गई जिंदगी ,
छीन लिया उसका सब कुछ , उसकी खुशी ।
पीड़ा उसके हिस्से ही क्यों आती ?
वह खौफनाक मंजर अभी तक नहीं भुलाई है ।
उन करुण आँखों के सवालों के जवाब,
परिवार , समाज को  ही देना होगा ।
क्यों नहीं देते संस्कार लड़कों को कि ,
लड़की की ना भी सुनना होगा ।
सिखाओ अपने लड़कों को कि लड़की
नहीं कठपुतली  , न कोई परछाई है ।
अभी - अभी वह अस्पताल से आई है ,
देह के साथ मन भी झुलसा लाई है ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़


Monday, 11 November 2019

सजल - 3

समांत - ई
पदांत - सी है
मात्रा भार - 17
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आँखों में ये जो नमी सी है 
होंठों पे वो* हँसी थमी सी है 
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सोचा  था जो वो पाया नहीं 
सीने में थोड़ी गमी सी है 
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कोशिश तो की थी पूरी मगर
हौसलों की जरा कमी सी है 
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पिघलेगी  मेहनत की तपिश से
इरादों में बर्फ जमी सी है 
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जल्दी सूरत बदल जायेगी 
बदहाली ये मौसमी सी है 
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स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़



Friday, 8 November 2019

मुक्तक

मजहब के नाम पर लड़ना नहीं ,
धार्मिक उन्माद में भिड़ना नहीं ।
मानव धर्म  हो सबसे  ऊपर _
व्यर्थ के विवाद में पड़ना नहीं ।।

डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

शब्द सीढ़ी

विष्णुप्रिया तुलसी मनभावन ,
करती पावन घर -  आँगन ।
शाखित , विस्तृत, मंजरी शोभित ,
नित्य दीप प्रज्वलित  करूँ पूजन ।
रोगनाशिनी  तू पापनाशिनी ,
स्वच्छ कर दे पूरा वातावरण ।
धूप , दीप , पुष्प अर्पित कर,
विधि - विधान से करूँ अर्चन ।
सुख - सौभाग्य देना मुझे माता ,
सद्भाव , सुविचार ले करूँ नमन ।
 करो कृपा यही मेरी आराधना ,
श्याम संग देती रहो  मुझे दर्शन ।
वृन्दा - विष्णु की भक्ति पाकर ,
पुलकित हो गया मेरा अंतर्मन ।

स्वरचित  - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़





Wednesday, 6 November 2019

इच्छाशक्ति

अच्छाई को ग्रहण करती , बुराई छोड़ देती हूँ ।
दर्द को घटाती हूँ ,  खुशी को जोड़ लेती हूँ ।
ये मुस्कान जो रहती है सदा मेरे होंठों पर _
दुःखों की झील में खिला कमल तोड़ लेती हूँ ।

कुविचारों के गर्द से मैं अपना मन साफ रखती हूँ ।
मुफलिसी से गुजरकर भी दामन पाक रखती हूँ ।
ये उजाला सा रहता है सदा जो साथ मेरे _
अंधेरों  की कलाई को जरा मैं मरोड़ देती हूँ ।

 हौसलों की कश्ती से दरिया पार करती हूँ ।
अपने अधिकारों को पाने जमाने से लड़ती हूँ ।
दृढ़ विश्वास है मुझको मिलेगी जरूर  मंजिल _
अपने मजबूत इरादों से मैं राहों को मोड़ देती हूँ ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Tuesday, 5 November 2019

सूफियाना इश्क

मेरी रूह में बसी हो तुम ,
फूलों में खुशबू की तरह ।
दिल में धड़कती  रहती हो ,
जीने की  आरजू की तरह ।
कानों में कुछ कह जाती हो ,
पैरों में  घुंघरू की तरह ।
लब चूम लेती हैं निगाहें ,
दीवाने भँवरों की तरह ।
भिगो जाती हैं तन मन ,
सागर की लहरों की तरह ।
पाक हो  तुम मेरे लिए ,
पूजा के फूलों की तरह ।
तुझे याद करना है ज्यों ,
खुदा के इबादत की तरह ।
मुश्किल प्यार को भूलना ,
खाक होता नहीं जिस्मों की तरह ।
सूफियाना इश्क मेरा ,
जीवित रहेगा किस्सों की तरह ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Monday, 4 November 2019

संस्मरण

जीवन की कई घटनाएं हमें यह सोचने को मजबूर करती हैं कि सचमुच पुण्य - पाप का हिसाब यहीं इसी दुनिया में हो जाता है। हम लोगों को राजहरा शिफ़्ट हुए कुछ समय ही हुए थे ,वहीं पास में एक परिवार रहता था जो अपनी बहू को बहुत प्रताड़ित करता था । माँ , बेटा और पिता मिलकर सीधी - सादी बहू को परेशान करते थे । शायद दहेज ही कारण रहा होगा । एक दिन उनके घर में आग लग गई और जैसा हमेशा होता है उसमें बहू ही फँस गई । ये तीनों बाहर निकल आये थे और फायर बिग्रेड वाले भी आ गये थे । वे अंदर जाकर मुआयना कर पाइप लगाने के लिए बाहर आये । तभी पता नहीं पिता - पुत्र को क्या सूझा वे उस कमरे में गये जहाँ वह लडक़ी जल रही थी । शायद वे अपनी तसल्ली करने गये थे कि वह जिंदा तो नहीं है।
तभी उसी कमरे में रखा एक्स्ट्रा सिलिंडर फट गया और वे पिता - पुत्र बाहर नहीं निकल पाये  , वहीं जलकर खाक हो गये । बाहर खड़ी माँ इस सदमे से पागल हो गई । अपनी बहू के साथ उन्होंने जो किया उसका न्याय ईश्वर ने तुरंत कर दिया था । उस जले हुए घर के अवशेष बहुत दिनों तक उस हादसे की याद दिलाते रहे साथ ही मन में इस आस्था को भी जागृत करते रहे कि ईश्वर गलती करने पर दण्ड अवश्य देता है 
स्वरचित -  डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Sunday, 3 November 2019

छठ पर्व

जय हो जय छठी  मैया  आये हम तेरे द्वार ।
दीर्घायु सुत पाने को माँ  कर रहे तेरी पुकार ।
उदित सूर्य को अर्ध्य देकर व्रतारम्भ उषाकाल ,
विविध  फल- फूलों से भर लाई मैं अपनी थाल ।
माथे सिंदूर तिलक भाल पर मेहंदी सजे हाथ ,
मन श्रद्धा से भरा हुआ प्रार्थना को झुके माथ ।
कमर तक तालाब में डूबी हुई तप करती आज ,
तीन दिवस का कठिन व्रत पूरे करता सारे काज ।
भास्कर की सुनहरी किरणें जग में उजाला भर गईं ,
छठ माता का पूजन कर  सुतों की माताएँ तर गईं ।
हे मात ! मेरे सुहाग को सदा अमर बनाये रखना ,
मेरे परिवार को खुश रखना सुख - समृद्धि भरना ।।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़


कैक्टस के फूल ( कहानी )

राजीव जब भी बालकनी में आते एक बार जरूर मुझे टोकते - " ये क्या कैक्टस लगा रखे हैं तुमने...सिर्फ काँटे ही काँटे... इन्हें फेंकती क्यों नहीं हो । घर शिफ्ट करते वक्त ही कहा था मैंने ,  इन्हें वहीं छोड़ दो पर नहीं तुम तो किसी की बात मानती नहीं  ..ले ही आई ।ऐसे भी इस घर में कितनी कम जगह है , उस पर तुम्हारे ये कैक्टस " । अरे ! कितने अच्छे तो लगते हैं ये , फिर इन्हें विशेष देखभाल की आवश्यकता नहीं होती । मेरे जैसे लापरवाह मालियों के लिए यही ठीक हैं  । जैसे जीवन में सुख तभी महत्वपूर्ण होते हैं जब दुःख का एहसास कर लिया जाये वैसे ही फूलों के साथ काँटों को भी रखना चाहिए ।" सब दिन होत न एक समान " हमें जीवन के हर पहलू के लिए तैयार रहना चाहिए । जीवन की विषमताओं को सहन करने की प्रेरणा देते हैं ये कैक्टस  और जनाब ! जब इन कंटीले कैक्टस के फूल देखोगे न तुम तो दाँतों तले उंगलियाँ दबा लोगे तुम । इतने खूबसूरत होते हैं ये --अपनी हथेलियों को अपने सिर के ऊपर तक फैलाते हुए रश्मि ने कहा तो राजीव हँस पड़ा ।  " तुम और तुम्हारी ग्रेट फिलॉसफी "..मैंने तो देखे नहीं कभी तुम्हारे इन कैक्टस को खिलते हुए । मुझसे तो दूर ही रखो इन्हें , डर लगता है मुझे इनके काँटों से -- राजीव ने मुँह बनाते हुए कहा तो उसकी अदा पर रश्मि भी हँस पड़ी । राजीव और रश्मि की शादी को  लगभग आठ वर्ष होने को आये हैं ।  रश्मि को राजीव ने पहली बार अपने भैया की शादी में देखा था ।  दिखने में आकर्षक तो वह थी ही , बातचीत में भी कुशल थी । भाभी की चचेरी बहन होने के कारण और भी कई कार्यक्रमों में उससे मुलाकात हुई । परिवार भी ठीक था इसलिए राजीव की  चाहत जाहिर करते ही दोनों परिवार के बड़ों को रिश्ता मंजूर हो गया ।
              दोनों के बीच बहुत अच्छा सामंजस्य है । बहुत ही सुघड़ता से रश्मि ने अपनी गृहस्थी को सजा रखा है । पर कहते हैं न कि हर किसी के जीवन में कोई न कोई कमी जरूर होती है । उनके आँगन में किसी फूल का न खिलना उन्हें कभी - कभी बहुत दुखी कर देता है । पर वे दोनों इस कारण को अपने बीच दीवार नहीं बनाते बल्कि यह उन्हें एक - दूसरे के अधिक करीब लाता है । वे दोनों अन्य बातों में खुशी ढूँढने का प्रयास करते हैं और खुश व व्यस्त रहते हैं । तीन - चार वर्ष घर पर रहने के बाद इसी वजह से राजीव ने जिद करके उसे पास के एक स्कूल में एक शिक्षिका के रूप में  ज्वाइन करवा दिया ताकि वह हमेशा व्यस्त रहे और अपनी उच्च शिक्षा का सदुपयोग भी कर सके ।
          सास - ससुर व अन्य रिश्तेदारों के साथ भी उसके मधुर सम्बन्ध हैं । हर त्यौहार वे परिवार के साथ ही मनाते हैं और फिर अपनी नौकरी में वापस आ जाते हैं । यहाँ वह कोई न कोई सृजनात्मक कार्य करती रहती है तो बोर नहीं होती पर कुछ दिन वहाँ रहकर आने के बाद उसे बहुत  सूनापन महसूस होता है क्योंकि वहाँ शायद सबके पूछने पर कि कुछ है तो नहीं , कुछ इलाज क्यों नहीं कराते तुम लोग , ध्यान दो अब समय निकलने लगा है... जैसे सवाल उसके मन को छलनी कर देते । जीवन की जिस कमी के बारे में वे सोचते भी नहीं घर जाने पर नाते - रिश्तेदार  सभी उसके बारे में ही बात करते हैं ।  इस मामले में  उसके शहर  के लोग अच्छे हैं जिन्हें किसी के बारे में सोचने की फुरसत ही नहीं है । भले  ही यह आदत उन्हें असामाजिक बना देती है , लोग अपने  पड़ोसी  को भी नहीं पहचानते । जितना बड़ा शहर उनके दायरे भी उतने ही सीमित , गाँवों में तो लोगों को हर घर के एक - एक सदस्य की जानकारी रहती है इसलिए हर छोटी बात पर फुसफुसाहट शुरू हो जाती है ।
             रश्मि शाम को स्कूल  से आकर थोड़ा आराम कर बालकनी में आ जाती है । उसने जो छोटी सी बगिया लगाई है , उसकी साज - संवार करती है । उसके घर के पास ही एक बड़ा सा मैदान है जिसमें बच्चे खेलते रहते हैं , वह अपना काम करके उन्हें देखती रहती है । उत्साह से भरे मासूम चेहरे ...कभी लड़ते झगड़ते कभी हँसते -  मुस्कुराते । क्रिकेट खेलते हुए कई बार उनकी गेंद उसकी बालकनी में आ जाती है तो उनकी प्यार भरी मनुहार रश्मि को स्नेहसिक्त कर देती है । "आंटी बॉल दीजिये न  " जब तक दो - चार मनुहारें नहीं आ जाती वह चुपचाप अपने काम में लगी रहती है फिर मुस्कुरा कर धीरे से बॉल फेंक देती है । जब वे खुश होकर " थैंक्यू आंटी " कहते हैं , वह पुलकित हो उठती है किसी बच्चे की तरह मानो वह भी उनके खेल का हिस्सा हो । 
              वह पल उसे बचपन की स्मृतियों में ले जाता है और याद आता है पीहर का आँगन  । कितनी खिलंदड़ी थी वह भी । शाम को स्कूल से आने के बाद खेलने के लिए बाहर निकलती थी तो वापस जाने का नाम ही नहीं लेती । मम्मी की डांट पड़ने पर ही घर जाती  । दीदी उससे बिल्कुल अलग थी , वह तो घर से बाहर निकलना ही पसन्द न करती । माँ बड़बड़ाते रहती - दो बच्चे दोनों दो विपरीत दिशा में भागती हैं , मैं किसके पीछे भागूँ ।
               वक्त कैसा भी हो रुकता नहीं है । साल दर साल बीतते गये । अब तो सभी सलाह देने लगे थे कि एक बच्चा गोद ले लो । कितने ही बच्चे अनाथालय में पलते एक घर की आस पाले रहते हैं , उन्हें एक घर , परिवार  मिल जायेगा ।  उसने राजीव से भी यह बात कही पर वे कोई निर्णय नहीं ले पा रहे थे । बच्चा गोद लेकर उसका पालन - पोषण  कर वे अपनी जिंदगी सार्थक बना  सकते  हैं पर क्या जीने की सिर्फ यही राह है ? 
                राजीव संजीवनी फाउंडेशन से जुड़ा हुआ था । एक बार उनके इवेंट में  रश्मि भी  गई थी वृद्धाश्रम । वहाँ वे लगभग तीन घण्टे रहे , बुजुर्गों के साथ बातें की  , उनके साथ  कुछ वक्त बिताकर उन्हें अकेलेपन के अंधेरों से बाहर निकालने की कोशिश की । वहाँ से लौटते वक्त उन बुजुर्गों के मुस्कुराते चेहरों के साथ ढेर सारा स्नेह व आशीर्वाद भी वे अपने दामन में समेट कर ले आये थे ।
           उस दिन की घटना ने विचलित कर दिया था रश्मि को ।  उसके स्टॉफ के किसी रिश्तेदार की मृत्यु हो गई थी  । उनके बेटे अमेरिका में रहते थे , मुखाग्नि देने भी नहीं पहुँच पाये । अड़ोस - पड़ोस के लोगों और दूर के रिश्तेदारों ने अंतिम संस्कार किया । जीवन का अंतिम सत्य यही है तो बच्चे के होने या न होने से क्या फर्क पड़ता है । बच्चे को जन्म देने और उसका पालन - पोषण करने तक ही क्या जीवन की सार्थकता है ? जिंदगी को इतनी छोटी परिधि में सीमित  क्यों रखना ? अपनी ममता को एक बच्चे  के पालन - पोषण तक ही सीमित न रखकर उसे वृहद आकाश भी तो दे सकते हैं । बहुत  दिनों से दुविधा में फंसा मन आज निर्णय ले सका था  । अपने जीवन को सार्थक बनाने के लिए अपनी सेवा वह अनाथालय और वृद्धाश्रम को भी दे सकती है , अपनी सुविधानुसार ।  बिना किसी बन्धन , निःशर्त जीवन जीना चाहिए  न  कि  किसी रिश्ते में बंधकर  इसे  मजबूरी में निभाना ।  उसने अपना विचार राजीव को  बताया तो वह भी बहुत खुश हुआ । उसने महसूस किया  उसके आँगन के कैक्टस में ढेर सारे  फूल खिल आये  हैं  ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

सजल - 2

समांत - आर
पदांत - स्वेच्छिक
मात्रा भार - 18

कुछ ऐसा चमत्कार हो जाये ,
ईश्वर से साक्षात्कार हो जाये ।

मिले न किसी को कोई बुरी खबर ,
सकारात्मक अखबार हो जाये ।

दुआ जो  माँगो मिल जायेगा ,

दुनिया न कोई बाजार हो जाये ।


 दिल में बहे स्नेह की गंगा ,
जिंदगी प्रेम रस धार हो जाये ।

हो चारों ओर  सुकून ,अमन - चैन ,
धर्म व कर्म  एकाकार हो जाये ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Friday, 1 November 2019

लौह पुरूष ( मुक्तक )

राष्ट्र के नव निर्माण में अपना योगदान दिया ,
फौलादी इरादों से देश को  पहचान दिया ।
कमजोर न होने दिया  एकता के सूत्रों को .
लौह पुरूष  बन कर  जन कल्याण किया ।।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Wednesday, 30 October 2019

एक दोस्त बहुत खास

एक दोस्त बहुत खास
लगता बेहद प्यारा सा ।
सुर से सजा हुआ साज,
दिलकश उसका अंदाज़ ।
भटकता रहता इधर - उधर ,
एक बादल आवारा सा ।
एक दोस्त बेहद प्यारा सा ।
लगता बेपरवाह ,
पर बेहद संजीदा ।
हर किसी को कराता एहसास,
कुछ खास होने का ।
प्रकृति उसकी स्थिर पर ,
लगता है मन बंजारा सा ।
एक दोस्त बेहद प्यारा सा ।
पढ़ लेता वो आँखों को ,
उनमें छुपे जज़्बातों को ।
परवाह उसको सबकी ,
समझ लेता मन की बातों को ।
चहेता है वह दोस्तों का ,
सबकी आँखों का तारा सा ।
एक दोस्त बेहद प्यारा सा ।
डॉ. दीक्षा चौबे



Tuesday, 29 October 2019

दीपावली

चन्दन-सा हो महका ऑंगन , दीपों-सा घर-आँगन रोशन ।
पूजा के फूलों-सा पावन , जीवन जगमग हो मनभावन ।
क्लेश द्वेष से दूर रहे मन, स्नेह नीर की निर्मलता हो।
धन-वैभव से छलके दामन, माँ लक्ष्मी के चरण सुपावन।।
आप सभी को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं -
समीर  , दीक्षा , शुभदा , क्षितिज

Saturday, 26 October 2019

शरारत

जब - जब शाखों के पत्ते हिलते हैं ,
दिल हवाओं के मचलते हैं ।
सहला जाते हैं  वो चुपके से गाल ,
गुलाबी फूलों के रंग निखरते हैं ।
फूल मुस्कुरा उठते हैं जब,
भौरों की गुंजार सुनते हैं ।
मादक मकरन्द महक उठते,
मदहोशी में मधुप झूमते हैं ।
मृदुल मृणाल लचक उठती ,
रवि गुलाबी अधर को चूमते हैं ।
खिल उठा सारा समां ,
मदना ( मैना )की तरह सभी कूकते हैं ।
कोकिल भी क्यों चुप बैठे ,
वो मीठे सुर में कूजते हैं ।
हरी घासों ने बिछा दी है चादर ,
पंछी आकर  यहाँ चहकते हैं ।
खुशियाँ मना रहे हैं सभी ,
फिजाओं में बहार महकते हैं ।
मेघों की सरगोशियों में ,
मनचले  मोरों के कदम बहकते हैं ।

छत्तीसगढ़ की पौराणिक कथाओं का महत्व

छत्तीसगढ़ की पौराणिक लोककथाओं का महत्व

           छत्तीसगढ़ की संस्कृति पौराणिक , धार्मिक लोकगाथाओं से समृद्ध है । यहाँ की वसुंधरा बहुमूल्य खनिजों के साथ साथ तीज - त्यौहार , रीति - रिवाज व परम्पराओं की सोंधी  महक से सुवासित है । छत्तीसगढ़ में त्यौहारों का विशेष महत्व है । सूखी धरती पर बारिश की फुहार की तरह हैं ये त्यौहार जो हमारे अंतर्मन को भिगो जाते हैं । तीज - त्यौहार और परम्पराएं लोक के मानस से जुड़ी हैं और जीवन को अद्भुत रस प्रदान करती हैं । आस्था , पवित्रता , भक्ति
और विश्वास जनमानस को अपनी परम्पराओं से जोड़े रखती हैं । अगर ये त्यौहार न होते तो हमारा जीवन बेरंग हो जाता । इनके बहाने मिलना - जुलना , आपसी प्रेम , भाईचारे की भावना में वृद्धि होती है , पारिवारिक रिश्ते प्रगाढ़ होते हैं , सामाजिक संरचना मजबूत होती है।
      हमारे सारे त्योहारों , परम्पराओं के पीछे कई पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं जो मनुष्य को नैतिक मूल्यों की शिक्षा प्रदान करती हैं , परिवार में बुजुर्गों की महत्ता प्रतिपादित करती हैं , साथ ही स्वास्थ्य व पर्यावरण की सुरक्षा के लिए प्रेरित करती हैं । इन पौराणिक कथाओं का संसार अत्यंत वृहद है जो पीढ़ी दर पीढ़ी मौखिक रूप से स्थानांतरित होती आई हैं । ये देवी देवता , ऋषि मुनि , दैत्य , राजा रानी , परी , जीव जंतु , पेड़ पौधे , सूर्य , चाँद , वायु , जल , अग्नि , नदी , पर्वत इन सभी अवयवों से सम्बंधित हैं और मानव - प्रकृति सम्बन्ध को पुष्ट करती हैं ।
      इन्हें पढ़कर , सुनकर सहज ही जीवन - मूल्यों की शिक्षा प्राप्त होती है  तथा बदलते मौसम के साथ स्वास्थ्य की देखभाल के महत्वपूर्ण सुझाव भी मिलते हैं। मौसम के अनुकूल व्यंजन बनाने की परम्परा हमें अपने पूर्वजों की वैज्ञानिक सोच पर स्तम्भित कर देती हैं। औषधीय पौधों जैसे तुलसी , नीम , हल्दी , आँवला का प्रयोग , ऑक्सीजन प्रदान करने वाले वृक्षों जैसे पीपल , बरगद आम , बेल की अधिकाधिक  अनुष्ठानों में अनिवार्यता लोगों को इनके संरक्षण को बढ़ावा देती है । तालाब , कुंआ खोदवाने , पेड़ लगाने , धर्मशाला बनवाने जैसे कार्यों को पुण्य - प्राप्ति के साधन बताकर
लोक कल्याण की भावना को सबल बनाती हैं ये कथाएं । लगभग सभी कथाओं में बुराई पर अच्छाई की जीत का वर्णन व्यक्ति को कुछ अच्छा करने व बनने को प्रेरित करता है । सभी पौराणिक कथाओं की चर्चा करना असम्भव है पर कुछ प्रचलित कथाओं का वर्णन अपरिहार्य है ।
      छत्तीसगढ़ में मनाए जाने वाले वट - सावित्री ( बरसाइत ) की कथा में सावित्री अपने पति की प्राणरक्षा के लिए यमराज से लड़ जाती है और सफल होती है । इस व्रत में स्त्रियाँ बरगद की पूजा कर अपने पति के दीर्घायु जीवन की प्रार्थना करती हैं । देवउठनी एकादशी की कथा में वृन्दा ( तुलसी )  और विष्णु के विवाह की कथा है जिसमें विष्णु वृन्दा के पति दैत्य बाणासुर की  मृत्यु के लिए उसका रूप लेकर वृन्दा के पास जाते हैं और  इस छल के लिए वह उन्हें पत्थर बनने का श्राप देती है
इसलिए विष्णु अगले जन्म में उनसे विवाह का  वचन देते हैं । देवउठनी एकादशी के दिन तुलसी और विष्णु का विवाह होता है जिसमें गन्ने का मंडप बनाया जाता है । इस अवसर पर कृष्ण द्वारा सत्यभामा के गर्व को तोड़ने की भी कहानी कही जाती है जो कृष्ण को सोने चाँदी से तौलने चली थी परन्तु सब कुछ चढ़ाने पर भी तुला सम पर नही आया था , अंत में जब रूखमणी ने तुलसी का एक पत्ता चढ़ाया तो तराजू झुक गया । इसी
प्रकार सोमवती अमावस्या में पीपल व शीतला अष्टमी में नीम की शाखा का महत्व बताया गया है। हलषष्ठी भाद्र पक्ष की षष्ठी को  मनाया जाता है जिसमें  तालाब ,
दूध - दही , छः प्रकार की भाजी व अनाज का महत्व है । इसकी कथाओं में ईमानदारी , प्रेम , सहयोग सहित अनेक मानव -  मूल्यों की रक्षा की प्रेरणा मिलती है।
     भादो माह में मनाये जाने वाले पोला में बैल की पूजा की जाती है जो कर्मशीलता को महत्व प्रदान करती है ।
हरितालिका तीज में विवाहित पुत्री को मायके लाने की परम्परा है । पति की लंबी उम्र या अच्छे वर की प्राप्ति के लिए किए जाने वाले इस व्रत में माता पार्वती व शिव
विवाह की कथा सुनाई जाती है । तीज की पूर्व संध्या पर करुभात (करेला) खाने का रिवाज है जो स्वास्थ्य की दृष्टि से उत्तम है । इसमें ठेठरी और खुरमी नामक व्यंजन बनाया जाता है जो पौष्टिक होता है ।
     अश्विन माह कृष्ण पक्ष की अष्टमी को बेटा जुतिया मनाया जाता है जिसमें सन्तान प्राप्ति या उसकी रक्षा के लिए व्रत रखा जाता है । इसकी कथा में एक ब्राह्मण के अल्पायु  सन्तान की उम्र बढ़ने की कहानी है । इसमें पीपल वृक्ष की पूजा , जलाशय के पास जाकर सूर्य को अर्ध्य देना , फलाहार इत्यादि नियम वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी उचित माना जाता है । सूर्य की रोगनाशक शक्ति और विटामिन डी देने की क्षमता के बारे में सभी जानते हैं ।
     भादो माह की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को मनाया जाने वाला व्रत बहुला चौथ में राजा द्वारा ब्राह्मण को भेंट किये गए गाय की कहानी है जिसकी सच्चाई व ईमानदारी वनराज को अपना फैसला बदलने को मजबूर करती है । इसी प्रकार कृष्ण जन्माष्टमी , हरेली ,
रक्षाबंधन , नागपंचमी , दशहरा , दीपावली , होली प्रत्येक त्यौहार की अपनी विशिष्ट कथा है जो परस्पर प्रेम , सौहार्द , स्नेह के रेशमी धागे से हमें बांधती है।
   इन सभी कथाओं का अंत एक वाक्य से होता है " जइसे वोखर दिन बहुरिस , तइसे सबके बहुरय ।" अर्थात जैसे कहानी के पात्र के साथ अच्छा हुआ वैसे हमारे साथ भी हो । पौराणिक कथाओं का हमारे जीवन पर , संस्कारों पर बहुत गहरा प्रभाव है क्योंकि ये हमारी आस्था से जुड़ी हैं साथ  ही पर्यावरण संरक्षण , मानव मूल्यों की रक्षा और सम्बन्धों की प्रगाढ़ता को पोषित करती हैं ।
     ये हमें विपरीत परिस्थितियों से लड़ना सिखाती हैं , अपने मनोमालिन्य को दूर कर विशालहृदयी बनने को प्रेरित करती हैं तथा प्राकृतिक स्त्रोतों के संरक्षण को बढ़ावा देती हैं । आधुनिक पीढी के पास इन्हें पढ़ने ,सुनने का समय नहीं है परन्तु यही किस्से किसी मोटिवेशनल गुरु की स्पीच का हिस्सा बनते हैं तो वे इन्हें बड़ी खुशी से सुनते हैं । वर्तमान में व्हाट्सएप या फ़ेसबुक में इन कहानियों को पढ़ती हूँ तो खुशी होती है कि किसी माध्यम से इनका प्रसार तो हो रहा है । कुछ
ऐसे प्रयास अवश्य किये जाने चाहिए कि इन पौराणिक कथाओं का संरक्षण किया जा सके तथा युवा पीढ़ी के आगे सरलतम रूप में रखा जा सके ताकि वे इन्हें अक्षुण्ण बनाये रख सकें और इनसे लाभान्वित होते रहें ।
     -----०---
प्रस्तुति --डॉ. दीक्षा चौबे
W/O  समीर कुमार चौबे
आदित्यनगर  , दुर्ग , छत्तीसगढ़

बदलते रिश्ते ( लघुकथा )


        उमा के पति का  पिछले कई महीनों से इलाज चल रहा था । इसमें उनकी  सारी जमापूंजी खर्च हो गई थी । मजबूरी में अपने जेठ , ननद , भाई सबके पास मदद के लिए गई...सबने अपनी असमर्थता जाहिर की । उसकी विपरीत परिस्थितियों के बारे में जानकारी होने पर उसके दोस्तों ने बिना कहे मिलकर पूरी राशि जुटा दी ..उमा के लिए यह अप्रत्याशित था...जिंदगी भर जिन्हें आदर दिया , जब जो भी आवश्यकता पड़ी , उनका साथ दिया वो रिश्तेदार वक्त पर काम नहीं आये जबकि दोस्तों के लिए कभी कुछ विशेष नहीं किया ..उनसे कभी कोई अपेक्षा नहीं रखी.. उन्होंने अपनी जिम्मेदारी निभाई थी ।बदलते रिश्तों ने उसे बहुत दुःखी किया था पर देर से ही सही  वक्त ने उसे सच्चे रिश्तों का मोल समझा दिया था ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़
साहित्य सागर

सुरता

मोर छत्तीसगढ़ के माटी ,
तोला बन्दथव..मैं तोला सउरत हंव ।

छलकत  रहय तलाव
पीपर अउ नीम के छांव
तरिया पार के महादेव
सुरुज देवता ल अर्धांव
तोला बन्दथव ..तोला सउरत हंव ।

खुमरी पहिरे सियान
नाव झन ले मितान
गाय गरू के बरदी लेके
बिहनिया पहुँचय दइहान
तोला  गोहरावथव  ..

बासी अउ चटनी के स्वाद
धुस्का चीला फरा हे याद
नूनचरा अउ अथान
खावै लइका अउ सियान
तोला सुरता वत हंव ...

चूल्हा म चुरत भात
बरी जिमिकांदा के साग
बटलोही के दार
सिंघाड़ा तिखुर के फरहार
ओ सुवाद बर तरसथव...

तीजा पोरा तिहार
ठेठरी खुरमी के इंतजार
बहिनी फूफू के लेवाल
खुसी के वो भंडार
तोला खोजत हंव...

कथरी चिथरा फरिया
कोनो रहय न दूरिहा
छोटे बड़े के न भेदभाव
जम्मो रहय एके ठाव
ओला सुमिरत हंव....

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

सृष्टिकर्ता

मूर्तिकार गढ़ रहा विघ्नहर्ता को ,
जिसने जग को रचा उस सृष्टिकर्ता को ।

माया उसकी कैसी निराली ,
कितनी बारीकी से मूरत बनाई ।
हर इंसान है एक - दूजे से जुदा ,
खासियत सबमें कुछ न कुछ समाई ।

नमन है उस सृष्टि रचयिता को ।
जिसने जग को रचा उस सृष्टिकर्ता को ।

बाजार में बिकने  सज गये हैं आज ,
बिककर भक्तों का करते उद्धार ।
बच्चे की आँख में आस - विश्वास ,
दिखा दे ईश्वर कोई चमत्कार ।

अनुग्रहित करें इनकी कर्मशीलता को ।
जिसने जग को रचा उस सृष्टिकर्ता को ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

असली मर्द ( लघुकथा )

रुचि अपने कॉलेज से लौट रही थी तभी रास्ते में भीड़ देखकर रुक गई । दो लड़कियाँ अपनी स्कूटी से गिर गई थी और लोग तमाशे की तरह देख रहे थे । किसी ने उन्हें उठाया नहीं , न ही  देखा कि उन्हें कितनी चोट आई है । रुचि उन्हें उठाने के लिए आगे बढ़ी तो एक - दो लोग और साथ आये  । उन्होंने उन दोनों को अस्पताल पहुँचाया  । वहाँ बहुत लोग खड़े थे पर संवेदनशीलता
प्रदर्शित करने वाले एक - दो लोग ही असली मर्द निकले ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

मिशन चन्द्रयान

चंद्रमा का राज़ जानने , निकल पड़ा #चन्द्रयान ,
हौसले व परिश्रम का , सुखद निकला  परिणाम ।

किये प्रयोग कई वर्षों से , #इसरो प्रमुख #के. सिवान,
मिलकर सभी वैज्ञानिकों ने , मिशन को दिया अंजाम ।

बाईस जुलाई वह खास दिन , प्रक्षेपित हुआ चन्द्रयान ,
'ऑर्बिटर 'हुआ स्थापित , सफल रहा प्रथम अभियान ।

'लैंडर 'न सीधे उतर सका ,सम्पर्क टूटा सब हुए परेशान ,
पाकर # नरेंद्र का कंधा ,फफक  कर रो पड़े के.सिवान ।

निराश न हो ' इसरो ' कभी ,सदैव साथ खड़ा हिंदुस्तान ,
कामयाब होंगे अवश्य , होगा पूर्ण " मिशन चन्द्रयान " ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

गुरु का महत्व

  गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरोदेवः महेश्वर ।
गुरू साक्षात परमब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ।
   बच्चे की प्रथम गुरु माँ  होती है जो  उंगली पकड़ कर उसे चलना सिखाती है ,  संस्कार देती है , पिता सही - गलत का ज्ञान कराते  हैं । भारतीय संस्कृति ऐसी है जहाँ गुरु को भगवान से ऊपर का दर्जा दिया गया है । इतिहास में कई उदाहरण देखने को मिलते हैं जब गुरु की कृपा से शिष्य अपना नाम अमर बना गये । अरस्तू , सुकरात , प्लेटो , एकलव्य , अर्जुन , कर्ण , आरुणि , चन्द्रगुप्त कुछ ऐसे नाम हैं जो गुरुदेव की कृपा से सफल हुए । कबीर जी ने  भी कहा है -
  "गुरु - गोविंद दोऊ खड़े काके लागू पांय ।
बलिहारी गुरु आपनो गोविंद दियो बताय। "
     गुरु पथ -प्रदर्शक होते हैं , यदि जीवन में सही गुरु मिल गये तो जिंदगी सफल हो जाती है परंतु सही गुरु न मिलने पर  शिष्य राह भटक जाता है और अंधेरे में ही रहता है ।  कहा गया है -
"जाके गुरु है अंधला ,चेला खरा निरंध ।
अंधा अंधही ठेलया दोनों कूप पड़न्त । "
गुरु अपने शिष्य के हित के लिए कड़वे शब्द बोल दे तो भी बुरा नहीं मानना चाहिए क्योंकि वे हमारे भले के लिए बोलते हैं । सतगुरु के ज्ञान के बिना ईश्वर भी नहीं मिल सकते ।
सतगुरु की किरपा अनन्त , महिमा अपरंपार ।
लोचन अनन्त उघाड़िया , अनन्त दिखावनहार ।
       वर्तमान स्थिति में गुरु का सम्मान घट रहा है क्योंकि अब न तो शिक्षा को समर्पित गुरु रहे और न ही आज्ञाकारी शिष्य । आज्ञाकारी शिष्य सिर्फ आवेदन पत्रों तक ही सिमट गये हैं । गुरु के प्रति आदरभाव में कमी आती जा रही है क्योंकि ट्यूशन व कोचिंग संस्थानों ने सिर्फ रुपये कमाने के लिए गुरु - शिष्य परम्परा को तिलांजली दे दी है । विद्या दान न होकर व्यवसाय हो गया है । समाज में बदलाव ने लोगों की सोच भी बदल दी है । यह बात सभी के लिए लागू नहीं होती क्योंकि अच्छे और बुरे हर क्षेत्र में होते हैं । यदि गुरु शिक्षा के प्रति समर्पित होंगे तो वे छात्रों से आदर भी पायेंगे ऐसा मेरा मानना है । समर्पण की भावना गुरु - शिष्य के सम्बंध को मजबूत बनाती है । जिंदगी भी एक गुरु से कम नहीं जो हमें कई पाठ पढ़ाते रहती है । गिरकर ही हम सम्भलना सीखते हैं । बुरा वक्त हमें कई नई बातें सिखा जाता है , दोस्त भी कई बार हमें सही - गलत की सीख दी जाते हैं । हमारे बुजुर्ग , उनके अनुभव भी हमें बहुत कुछ सिखाते हैं । कभी बहन , भाई तो कभी पत्नी भी गुरु बनकर हमें सही राह दिखा जाते हैं । गुरु पूर्णिमा के पावन दिवस  पर अपने गुरुओं को सादर नमन करते हुए अपनी लेखनी को विराम देना चाहती हूँ । आप सभी को शिक्षक दिवस की बधाई और शुभकामनाएं ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

बच्चे तो बच्चे... बाप रे बाप?

आजकल के बच्चे... बच्चे नहीं बड़ों के भी बाप होते हैं । इतने बातूनी और उनके तर्कों का तो जवाब ही नहीं । कई बार ऐसी बात बोल देते हैं कि बड़े हतप्रभ होकर उनका चेहरा ही देखते रह जाते हैं । एक बार हम सपरिवार अपने गाँव गये हुए थे । वहाँ  पापाजी की काकी के घर गये उन्होंने सबको रुपये पकड़ाये । मेरा भांजा अनीश उस समय दो वर्ष का रहा होगा उसे बच्चा समझ कर काकी ने कुछ चिल्हर पैसे सिक्के के रूप में पकड़ा दिया ।उसकी आदत थी वह सबको बहुत ध्यान से देखता रहता था । सिक्के हाथ में पकड़ाते ही उसने उन्हें जमीन पर फेंक दिया और अपनी तुतलाती जबान में कहने लगा--" भिखमैया समझा है क्या ? "  हम लोगों की हँसी छूट गई पर सब मुँह दबाकर ही हँसते रहे । काकी को उसकी भाषा समझ नहीं आ रही थी वह पूछने लगी " क्या बोल रहा है ये ? " जब उन्हें उसकी बात समझाई गई कि वह भिखारी को भिखमैया बोल रहा है तो वह भी हँसे बिना नहीं रह पाई । उन्होंने उसे दस रुपये का नोट दिया तभी वह खुश हुआ । ऐसे ही एक बार किसी ने उसे  उसके जन्मदिन पर टी शर्ट दिया तो वह कहने लगा - " ये क्या है ? शर्ट बस दिये हो नीचे नँगु रहूँगा क्या? "  उसी प्रकार बचपन में बिना पैकिंग के गिफ्ट देने पर वह नाराज हो जाता - " ऐसे भी कोई गिफ्ट देता है क्या ? "  बाप रे ! उसकी तर्कशक्ति देखकर   अब कोई उससे पंगा नहीं लेता  ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

लंबे बालों का राज (संस्मरण )

बात उन दिनों की है जब मेरी बेटी शुभि महज छः वर्ष की थी । मैं उसे लेकर अपनी सहेली सपना के घर गई थी । सपना के खूब लंबे व काले , घने बाल थे । शुभि उससे काफी देर तक बात करती रही । बातों ही बातों में उसके जिज्ञासु मन ने सपना को उसके काले और लंबे बालों का राज पूछ ही लिया । मैंने उसकी बातों को बाल सुलभ जिज्ञासा ही समझा था पर उसने तो इसे बहुत गम्भीरता से लिया ।
     दूसरे दिन शाम को जब मैं स्कूल से वापस लौटी तो उसकी हालत देखने लायक थी , उसके छोटे - छोटे बालों से तेल टपक रहा था । पहले मुझे लगा यह बाल गीले कर आई है लेकिन ध्यान से देखने पर माजरा समझ आ गया । मुझे उसके बालों को निचोड़ कर तेल निकालना पड़ा फिर भी ठीक से निकल नहीं पाया । कई दिनों तक लगातार बाल धोने के बाद ही तेल निकला । मैंने जब उससे पूछा कि इतना तेल कौन लगाने बोला था तो मासूमियत से कहने लगी सपना आंटी के बाल तेल लगाने से बढ़े हैं ना इसलिए मैंने भी बाल जल्दी बढ़ाने के लिए ज्यादा तेल लगा लिया । हम सबका हँसी के मारे बुरा हाल था । आज भी  उस हरकत के बारे में उसे याद दिलाओ तो वह झेंप जाती है ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Tuesday, 22 October 2019

उपहार ( लघुकथा )

     दीपावली का त्यौहार आने वाला था ।  कुम्हार  दीये
बनाने में व्यस्त था । अभी सीजन में  थोड़ी कमाई हो जाए  तो साल भर की दाल - रोटी की व्यवस्था हो जायेगी । बिजली के झालरों  , मोमबत्तियों ने पहले ही उनकी कमाई कम कर दी है , आजकल तो लोग दीये भी रंगीन और सजावटी पसन्द करने लगे हैं । यही सोच लिए हताश कदमों से वह बाजार आया था पर यह क्या ? अद्भुत ! उसके सारे दिए बिक गये थे । मिट्टी के दीयों की तरफ लोगों का रुझान इस बार बढ़ गया । बाद में उसे पता चला कि गाँव के नये युवा सरपंच ने इस बार प्लास्टिक मुक्त दीवाली मनाने और अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए अधिक से अधिक मिट्टी के दियों के प्रयोग का आह्वान किया था । यह वही बालक था जिसे वह बचपन में कुछ दीये उपहार में दे दिया करता था , आज उसने  कुम्हार को यह खूबसूरत उपहार दिया था ।  
         उसका मन खुशियों से और आँखें अश्कों से भीग गई थीं ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Wednesday, 16 October 2019

ज्ञान का महत्व और उपलब्धि

सीखना एक अनवरत और आजीवन चलने वाली प्रक्रिया है इसलिए कोई भी अपने - आपको सम्पूर्ण ज्ञानी नहीं कह सकता । माँ  के गर्भ से ही बच्चे की शिक्षा प्रारम्भ हो जाती है । जन्म के पश्चात माता - पिता का अनुसरण करके वह बोलना , चलना इत्यादि विविध गतिविधियाँ सीखता है । माँ हमारी प्रथम गुरु होती है जो हमें संस्कार व शिक्षा दोनों प्रदान करती है । परिवार से भी वह बहुत कुछ सीखता है समन्वय , सहयोग , भाईचारा , एक - दूसरे की तकलीफों को समझना , दुःख और सुख को साझा करना । मेरे कहने का अर्थ यह है कि ज्ञान सिर्फ किताबें पढ़ने से ही प्राप्त होता है ऐसा नहीं है । यह  हमें जिंदगी की हर परिस्थिति , घटनाओं , अनुभवों से भी मिलता है इसलिए हम ज्ञान को दो श्रेणियों में विभाजित कर सकते हैं - एक तो पुस्तकीय ज्ञान  दूसरा व्यवहारिक ज्ञान । पुस्तकों से प्राप्त ज्ञान की एक सीमा होती है पर व्यवहारिक ज्ञान तो अनन्त है । इसके अनेक स्रोत हैं हमें सिर्फ उनसे लाभ उठाना आना चाहिए ।
         कई बार लोग एक ठोकर से ही सम्भल जाते हैं , कुछ बार - बार धोखा खाकर भी नहीं सुधरते । पुस्तकीय ज्ञान अर्थात  डिग्री पाना भी आज बहुत बड़ी आवश्यकता है क्योंकि उसके बिना आप किसी जॉब को पाने के योग्य नहीं बन पाते । जिस कार्य के लिए  जो योग्यता चाहिए वह हममें होना अपरिहार्य है । एक डॉक्टर यदि अपने कार्यक्षेत्र का पूर्ण ज्ञान नहीं रखेगा तो वह दूसरों की जान कैसे बचा सकेगा , उसी प्रकार एक पायलट या वाहन चालक अपने कार्य में कुशल होकर ही सही ढंग से अपना कार्य कर पायेगा । प्रत्येक व्यक्ति को अपने कर्मक्षेत्र में कुशलता अर्जित करना अनिवार्य है । यही कुशलता ही उसे उपलब्धि की मंजिल तक पहुँचाती है । अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन अच्छे ढंग से करना ही इंसान की सबसे बड़ी उपलब्धि है चाहे वह कोई भी क्षेत्र हो । एक गृहलक्ष्मी अपने घर का कुशल प्रबंधन करती है तो यह उसकी बहुत बड़ी उपलब्धि है । ज्ञान की उपलब्धि व्यवहार में है ।
         अर्जित किये गए ज्ञान को यदि हम अपने जीवन में उतारते हैं तो हम चरम सुख की प्राप्ति करते हैं । प्रत्येक व्यक्ति के जीवन का एक उद्देश्य होता है और वह उसकी पूर्ति के लिए तन - मन समर्पित कर देता है । अंतिम लक्ष्य तो संतोष , खुशी की प्राप्ति है जो
हमें स्वयं ही महसूस करना है । " मन चंगा तो कठौती में गंगा " कहा गया है यानी  आप अपने - आपको जिस स्थिति में खुश रख पाये वही आपके लिए सबसे बड़ी उपलब्धि है । मेरे विचार से मनुष्य एक अच्छा इंसान बन पाये वही बहुत बड़ी बात है । अपने मन को बुराइयों का घर न बनाये , उसमें सबके लिए प्रेम व सद्भाव रखे तो उसका मानव जन्म सार्थक हो जायेगा । ज्ञान का महत्व इसी बात में है कि  वह इंसान को घमंडी न बनाकर विनम्र बनाये , उसे सभ्यता सिखाये , सुविचारों से परिपूर्ण बनाये , कुविचारों को जन्म ही न लेने दे । कर्मनिष्ठ व ईमानदार बनाये । शुभम करोति कल्याणम ।
आप सभी को सादर वंदन 🙏🙏

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Tuesday, 15 October 2019

ग़ज़ल


ख्वाब जो देखे मुकम्मल हो जाए ,
पहले नींद तो मुसलसल हो जाए ।

दुआ माँगी  है तेरी खुशी के लिए ,
जुबां की हर बात पे अमल हो जाए ।

मिलोगे मुझे जो नसीब में होगे तो ,
दुश्वारियाँ राहों की बग़ल हो जाए ।

मिल जाये हमारे दिलों का काफ़िया ,
जिंदगी एक खूबसूरत ग़ज़ल हो जाए ।

उम्मीद का दामन थामे रहना ' दीक्षा ',
न जाने कब कीचड़ से कमल हो जाए ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़1

Tuesday, 8 October 2019

रावण आज भी जिंदा है

झूठ का बोलबाला यहाँ , सच हुआ जाता शर्मिंदा है ।
प्रतिवर्ष राम तीर चलाते ,पर रावण आज भी जिंदा है ।

छुपकर बैठा रहता है स्वार्थी , अहंकारी के मन में ।
सौहाद्रता की पहुँच से ऊपर उड़ता हुआ परिंदा है।

बहन , बेटी नहीं सुरक्षित अपने ही घर - आँगन में ।
रावण की अशोक वाटिका में सीता रही पाकीज़ा है ।

भ्र्ष्टाचारी , आततायी असहायों का करते कत्ल यहाँ ।
अत्याचारों से निजात दिलाने आते नहीं गोविंदा है ।

"दीक्षा " की प्रार्थना सुनो , हे कृपानिधान हे रामजी ।
इस बार रावण के साथ करना बुराइयों को विदा है ।

स्वरचित -- डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

विदाई (लघुकथा )

विदाई की बेला...अत्यंत भावुक कर देने वाला पल..अपने प्रिय को यूँ अपने सामने से जाता देख अपने - आप पर नियंत्रण रखना मुश्किल हो जाता है । आँखों से आँसू बह निकलते हैं , वेदना का प्रवाह अंतर्मन का बाँध तोड़ कर  फूट पड़ता  है । युवा बेटे की अंतिम विदाई का पल सबको रुला गया था ...उसके माता - पिता की हालत तो और भी खराब थी । उनका रुदन अम्बर- धरा को कम्पित कर देने वाला था । पूरा समुदाय  उन्हें ढाढ़स बंधाने का असफल प्रयास कर रहा था । दुर्घटना में पुत्र की असामयिक मौत ने न जाने कितने सपने एक झटके में तोड़ डाले थे और उनका जीवन अधूरा कर गया था । यह उनकी नियति थी या किसी की लापरवाही ...बस एक ही सवाल सबके मन को उद्वेलित कर रहा था ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Sunday, 6 October 2019

ईमानदारी - एक जीवन शैली (कविता )

आओ एक नया हिंदुस्तान बनायें ,
परिश्रम को अपना ईमान बनायें ।
उत्साह के रंगों से सजी हो धरती ,
हौसलों से भरा आसमान बनायें ।

अग्रणी रहे देश , हो ऊँचा नाम ,
कुछ काम हम  ऐसे कर जायें ।
नई सोच से करें नये अनुसंधान  ,
तरक्की के नये आयाम बनायें ।

हम मेहनतकश मजदूर धरा पर,
खुशहाली की फसल लहलहाएं ।
कर्मनिष्ठा, लगन , विश्वास से ,
बिना झुके , बिना रुके चलते जायें ।

ईमानदारी की जीवनशैली अपनाकर,
तरक्की के नये सोपान चढ़ते जायें ।
नई ऊर्जा व उमंग से मिलकर हम ,
देश का सुखद भविष्य गढ़ते जायें ।

ईमानदारी - एक जीवन शैली (स्लोगन )

कुविचारों से न करें मन की गंगा मैली ।
अपनायें ईमानदारी की जीवन - शैली ।।

जोश , जुनून , कर्मनिष्ठा , ईमानदारी ।
ये जीवनशैली बनाती अच्छे कर्मचारी ।।

आलस्य से कर्म प्रवाह न करें मैली ।
अपनायें ईमानदारी की जीवनशैली ।।

Wednesday, 2 October 2019

एक मिनट की जिंदगी ( लघुकथा )

अभी - अभी स्वर्ग पहुँची रितेश की आत्मा से धर्मराज ने प्रश्न पूछा - " यदि तुम्हें एक मिनट की जिंदगी दी जायेगी तो तुम अपनी किस भूल को सुधारना चाहोगे ?" रितेश ने  एक गहरी सांस भरते हुए उत्तर दिया - " उस पल जब मैंने सिग्नल रेड होते हुए देखकर भी अपनी बाइक दौड़ा दी थी और एक कार से टकरा गया था । मेरी  लापरवाही की वजह से उस कार वाले की भी मौत हो गई थी  और दो घरों के चिराग एक साथ बुझ गये थे । काश! मैं एक मिनट रुक गया होता तो यह दुर्घटना नहीं होती ।" पर अब पछतावा करके भी कुछ नहीं होना था ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Monday, 30 September 2019

प्रेम विवाह ( लघुकथा )

आज  राज फिर शराब पीकर आया था  और नियति से झगड़ा कर रहा था । कभी - कभार उस पर हाथ भी उठाने लगा था । नियति ने इतनी कोशिश की उसे समझाने की कि यह आदत सही नहीं , बेटा भी अब बड़ा हो रहा है , उसके बाल - मन  पर गलत असर पड़ेगा । नशा उतरने के बाद राज अपनी गलती पर पछताता पर अपनी आदत से मजबूर हो फिर पीकर आ जाता । चार वर्ष पहले उन्होंने प्रेम - विवाह किया था पापा ने कितना मना किया था उसे , परन्तु नियति की आँखों पर तो राज के प्रेम की पट्टी बंधी हुई थी । उसने मम्मी - पापा की बात नहीं मानी । अब किस मुँह से उन्हें अपनी तकलीफ बताने जाये । आज उसे अपने एकतरफा निर्णय पर अफ़सोस हो रहा था , अपने परिवार को विश्वास में लेकर विवाह करती तो आज अधिकार से उनकी मदद माँगने चली जाती ।
           माँ बनकर समझ आया था कि बच्चों के भविष्य को लेकर अभिभावक क्यों  चिंतित रहते हैं । आज वह अपने पिता के कंधे का सहारा लेना चाहती थी , अपने बच्चे के भविष्य के लिए अपने अहम को परे रखकर पिता से माफी माँगने का दृढ़ निश्चय कर लिया था उसने।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

काश !

काश ! अखण्ड रहता भारत ,
देश के दो टुकड़े न होते ।
न बिछड़ता भाई से भाई ,
साम्प्रदायिक दंगे न होते ।

काश ! धरा के स्वर्ग में ,
आतंक के साये न होते ।
खून से न रंगती यह धरती ,
लाडले जवानों को न खोते ।

काश !  फूलों की घाटी के ,
रहवासी बेहाल न होते  ।
हवा में न होती बारूदी गंध ,
अपनी बर्बादी पर न रोते ।

काश !  छँट जाये गम का धुंआ ,
तरक्की के द्वार खुले होते ।
खुशियों से भीगा होता समां ,
सभी नींद चैन की सोते ।

काश ! बदलाव के बादल ,
दिलों को नेह से भिगोते ।
खुशहाली की उर्वर धरा पर ,
चैन ओ अमन  के बीज बोते ।

काश ! घाटी की सर्द रातों को ,
अभावों की झील में न डुबोते ।
हर हाथ को मिलता काम यहाँ ,
सुखमय जीवन के ख्वाब पूरे होते ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Friday, 27 September 2019

लड़ने का मजा ( लघुकथा )

इति स्पष्टवादी है । कोई उसे गलत समझे या उस पर आक्षेप करे तो वह फौरन प्रतिवाद करती है और अपनी बात स्पष्ट करने का प्रयास करती है । उसकी इस आदत को उसके पति व बच्चे उसके चिढ़ने के रूप में लेते थे और अक्सर उसका मजाक उड़ाते रहते । इति को भी ऐसा लगा कि शायद उसे अपनी इस प्रवृत्ति में सुधार करना होगा और वह कोशिश करने लगी कि उन बेकार की बातों को नजरअंदाज करे जो उसे चिढ़कर जवाब देने को मजबूर करती हैं । उसके पतिदेव जो जान - बूझकर उसे खिझाने का प्रयास करते रहते वे भी इस बदलाव को महसूस कर रहे थे ।
       अक्सर शाम को ड्यूटी से आने के बाद वे टी. वी. पर बहस और समाचार देखते रहते थे लेकिन इति व उसकी बेटी आजकल कबड्डी में रुचि होने के कारण वही देखते रहते । आज टी. वी. देखते समय पतिदेव बेटी पर चिल्ला रहे थे कि  तुम लोगों के कारण मुझे न्यूज़ देखने को नहीं मिलता । इति जो रसोई में काम कर रही थी ,थोड़ी देर धैर्य बनाये रही फिर नहीं रहा गया तो बेटी से बोली -" कोई जरूरत नहीं कल से कबड्डी देखने की । कल से तेरे पापा न्यूज़ ही देखेंगे । हम लोग तेरे कमरे में लैपटॉप पर सीरीज़ देखेंगे । "
अचानक उसके पति बोल पड़े  -" वाह! मज़ा आ गया , बहुत दिन बाद तेरी मम्मी  लड़ी है । " उनका यह वाक्य सुनकर इति भी मुस्कुरा उठी  और समझ गई कि उसे अपने - आपको बदलने की जरूरत नहीं है ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

ग़ज़ल

अपनी हथेली पे प्यार  लिखा कर लाई हो ,
जिंदगी में खुशी की बहार बन कर आई हो ।

लड़ जाती हो  दुनिया से तोड़ के सारे बन्धन ,
लकीर रूढ़ियों की मिटाने की कसम खाई हो ।

संवर जायेगी मेरी तकदीर तेरा साथ पाकर ,
दुआओं से  हो रोशन राहें ,गमों की रिहाई हो ।

अरमान मचल उठे हैं दीवानों के इस अदा पे ,
बिजली -सी कोई गिरी है या  ली अँगड़ाई हो ।

मिल गई मंजूरी मेरी दीवानगी को " दीक्षा " ,
मुड़कर जो तूने  देखा और देखकर मुस्काई  हो ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़