Friday, 31 July 2020

छत्तीसगढ़ी गीत

देखत हावव रस्ता तोर , तरिया के पार मा ।
आ जाबे गोरी तैं हर , सोलह सिंगार मा ।।

धान  कस सुघ्घर हरियर तोर लुगरा हे ,
बादर कस करिया तोर आँखी के कजरा हे ।
 ददरिया गाबो दुनो झन , बुता करत खार मा ।
आ जाबे गोरी तें हर , तरिया के पार मा ।।

लाली लाली चुरी पहिरे ,कनिहा करधनिया ओ ,
सुरुज असन दमकत हे ,माथे के बिंदिया ओ ।
झूम जाथे मोर जियरा  ,पैरी के झनकार मा ।
आ जाबे गोरी तें हर , सोलह सिंगार मा ।।

तोर बोली कोइली असन , अब्बड़ नीक लगथे ,
नागिन सही तोर केश म , मोर नैन अरझथे ।
जिवरा हर मोर भेदागे , तोर नैन के कटार मा ।
आ जाबे गोरी  तैं हर , सोलह सिंगार मा ।।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग ,छत्तीसगढ़









राखी ( लघुकथा )

  राज की अपनी सहकर्मी नेहा से बिल्कुल नहीं जमती थी , अकड़ू , घमंडी इत्यादि उपनामों से कई बार सुशोभित किया था उसे । नेहा  की भी राज के बारे में यही राय थी कि वह अपने आपको तीसमार खान समझता है जैसे उससे होशियार दुनिया में कोई और है ही नहीं । सच भी था कि राज अपने कार्य में एक्सपर्ट था । पिछले कई वर्षों से देख रही थी नेहा ,राज पूरे वर्ष अपनी बहन की राखी नहीं उतारता था । राखी के दिन ही पुरानी राखी तोड़कर नई बंधवाता था । इस बार उसने नई राखी नहीं बाँधी थी ,वही पुरानी राखी पहने घूम रहा था तो नेहा ने उसे सुना दिया " इस बार दीदी से लड़ लिया क्या लड़ाकू तभी दीदी ने राखी नहीं भेजी "। हमेशा बहस करनेवाले राज की आँखें नम हो गई और वह बिना कुछ कहे चुपचाप वहाँ से चला गया । उसके दोस्त निहार ने बताया कि राज की बहन का निधन हो गया है । नेहा को अपने बर्ताव पर बहुत पछतावा हुआ । वह ऑफिस में सबके सामने जोर से रोने लगी और राज से माफी माँगने लगी । उसने अपने बैग से राखी निकाली और राज की कलाई पर बाँधते हुए बोली - "अब यह कलाई कभी खाली नहीं रहेगी , यह अकड़ू बहन चलेगी न । "
  राज ने हँसते हुए कहा - "सोच लो , फिर तो तुम्हें डाँटने का कॉपीराइट मिल जाएगा मुझे "।  " चलेगा ..भाई - बहन के प्यार में लड़ाई तो चलता है, इस लिहाज से पहले ही हम भाई बहन बन चुके हैं ,है ना.." दोनों की आँखों से खुशी के आँसू झर रहे थे ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग ,छत्तीसगढ़

Thursday, 30 July 2020

दोहे ( अहंकार )

चार दिनों की जिंदगी , मत कर तू अभिमान ।
महल काम आए नहीं , छूटे सब सामान ।।

जाना है सबको यहाँ , अहंकार को त्याग ।
बहुत दिनों सोया रहा , बीती बेला जाग ।।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग ,छत्तीसगढ़

शिक्षादान ( लघुकथा )

*शिक्षादान* (लघुकथा )
         शादी के बाद रुचि को पति के साथ मुंबई आना पड़ा । उसे अपनी चार वर्ष की नौकरी छोड़नी पड़ी , यह बात उसे बहुत पीड़ा दे रही थी । पति के ऑफिस चले जाने के बाद वह बहुत   बोर होती , पहले  उसकी कितनी व्यस्त दिनचर्या रहती थी । एक दिन उसके पड़ोस में रहने वाली चाची अपनी बेटी प्रिया को लेकर आई जिसे अपनी पढ़ाई में कुछ समस्या आ रही थी । रुचि ने उसे कुछ दिन पढ़ाया , प्रिया को उसके पढ़ाने की शैली पसंद आई और उसने आगे भी पढ़ाने के लिए रुचि  से निवेदन किया । प्रिया की दो - तीन सहेलियाँ भी पढ़ने आने लगी थीं । रुचि को अपनी शिक्षा सार्थक लगने लगी थी । शिक्षित होने की अंतिम परिणति सिर्फ नौकरी ही क्यों ? थोड़ा ही सही पर समाज को वह अपना योगदान तो दे रही थी । शिक्षादान करके उसे अत्यंत सन्तुष्टि और आनन्द की प्राप्ति हो रही थी  ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Wednesday, 29 July 2020

बेटी पर दोहे

दोहे
विषय - बेटी

बेटी पढ़ती है  यहाँ , जीवन रुपी किताब ।
मन के कोरे स्लेट पर , मिलते लिखे जवाब ।।

पढ़ी लिखी बेटी  करे , राष्ट्र जगत  कल्याण ।
 बदलें सभी विचार तब  ,  मिले दुखों से त्राण ।

पढ़ - लिखकर बेटी बने  , मात- पिता का मान ।
सफल रही हर क्षेत्र में  , सभी काम आसान  ।

मलयज की पावन महक  , मधुबन की है शान ।
बेटी पढ़ -लिख कर बनी , दो घर का अभिमान ।

दीपक के उजियार से, अँधियारा हो दूर ।
पढ़-लिख बेटी हो सफल , प्रियजन करें गुरूर ।।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़




मुक्तक

मर्यादित है नीर नदी के तटबंध में ,
पलता है विश्वास प्रेमाकुल सम्बन्ध में ।
प्रेम देना पड़ता है प्रेम पाने के लिए_
रीत की सौगंध है प्रीत के अनुबंध में ।।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग ,छत्तीसगढ़ 

Monday, 27 July 2020

गीत 18

गीत

जीवन-पथ पर चलने की, सही राह दिखलाई है ।
रामकथा लिखकर तुलसी ने , जन-जन तक पहुँचाई है ।।

मात-पिता का मान बढ़ाया , पाठ पढ़ाया संयम का।
वनवास लिया हँसते- हँसते ,वचन निभाया रघुकुल का।
महलों का वैभव त्याग दिया , कुल की रीति निभाई है।।
रामकथा लिखकर.....

शबरी के जूठे बेर चखे, गुहराज-राम मित्र बने ।
 उद्धार अहिल्या का करके, अनुकरणीय चरित्र बने।
 दैत्यों को यमलोक दिखाया, संतों की पहुनाई है ।
रामकथा लिखकर.....

बाली वध कर शासन भार्या , मित्र सुखद उपहार दिया ।
पत्नी की रक्षा की खातिर , रावण का संहार किया ।
मर्यादित आचरण सिखा कर , राहें नई दिखाई है ।।
रामकथा लिखकर....

पालनहार बने जनता के , दीन-दुखी को अपनाया ।
समरसता का पाठ पढाकर ,जंगल को नगर बनाया ।
राम -राज्य  में सुखी रहें सब , राज नीति सिखलाई है ।
रामकथा लिखकर.....

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग ,छत्तीसगढ़

Saturday, 25 July 2020

लक्ष्य ( मनहरण घनाक्षरी )

मनहरण घनाक्षरी

लक्ष्य का संधान कर , नीति का विधान कर ,
श्रम अनुष्ठान कर , जग मिल  जाएगा ।

निशा को विहान कर ,नीचे आसमान कर ,
त्याग तप जो करे , सुख वही पाएगा ।

हौसला उफान पर , जोश की उड़ान भर ,
झुका कर आसमान , तारे तोड़ लाएगा ।

भूमिजा बने उर्वर  , स्वेद जल सींच कर ,
जीवन सफल कर , सुख फल खाएगा ।

- डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Friday, 24 July 2020

उम्मीद (लघुकथा )

     आज खाली बैठे दो माह हो गये थे  , रामू  बड़ी निराशा के साथ अपने ठेले को देख रहा था । उसके मटर चाट और पापड़ी भेल का ठेला प्रसिद्ध था । शाम होते ही उसके ठेले पर भीड़ उमड़ पड़ती थी । महीने के बीस - पच्चीस हजार आराम से कमा लेता था । कोरोना के कारण काम बंद हो गया , जमा पूँजी भी कब तक चलेगी , अब उसे चिंता हो रही थी । तभी उसने अपने दोस्त जिसका चाट , गुपचुप का ठेला था उसे सब्जियाँ बेचते देखा । रामू के मन में भी उम्मीद की किरण जाग उठी । उसने देखा कि उसके मोहल्ले के लोगों को दूध लेने मुख्य सड़क तक जाना पड़ता है । रामू ने दूध के पैकेट बेचना शुरू कर दिया और उसे अच्छी आमदनी होने लगी ।
यदि हम उम्मीद का दामन थामे रखें तो  जीवन में  आने वाली हर कठिनाई से लड़ सकते हैं , रामू ने यह समझ लिया था ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग ,छत्तीसगढ़

Wednesday, 22 July 2020

विधाता ( दोहे )

भाग्य विधाता ने रचा , यह सुंदर संसार ।
अद्भुत उसकी सर्जना , लोचन सुखद अपार ।।

गढ़े विधाता ने यहाँ , भाँति - भाँति के लोग ।
सरस सलिल सरिता बहे , मनुज करे उपभोग ।।

धरती माँ पोषण करे , पर्वत पिता समान ।
विपिन विधाता ने दिए , कर इनका सम्मान ।।

पारस पावन अनल है , शीतल मंद समीर ।
दान विधाता ने दिया , निर्झर निर्मल नीर ।।

गढ़े विधाता ने यहाँ , सुंदर दृश्य अभिराम ।
उपवन सी दुनिया बनी , पावन सुरभित धाम ।।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग ,छत्तीसगढ़

Tuesday, 21 July 2020

रूप घनाक्षरी

अंधकार निराशा का , एक दिन जाएगा ही ,
लंबी चाहे कितनी हो , बीतेगी जरूर रात ।
तम गया रवि आया , जीवन उजास लाया ,
एक नवीन उत्साह , ले आया नव प्रभात ।
सुमन महक उठे , गगन लहक उठे ,
पवन के आगोश में , प्रमुदित हुआ गात ।
आस्था बनाये रखना ,यत्न करते रहना ,
साधना करते रहो ,बनेगी जरूर बात ।।

सुविधा साधन मिला , सुख का भाजन मिला ,
जिंदगी में सब मिले , मिले नहीं पितु - मात ।

दोहे ( पावस )

हरियाली बिखरी रहे , निखरे वसुधा रूप ।
रंग जगत का निखर रहा , मिले वायु जल धूप ।।

पावस का है आगमन , मुदित भया संसार ।
गाते किसान खेत पर , गीत मेघ मल्हार ।।

प्रकृति की  मनोरम छटा , वसुधा का शृंगार ।
मिला चैन संसार को , खुशियाँ मिलीं अपार ।।

हरियाली के शुभ दिवस , बैल हल पूजें आज ।
खेतों की शोभा हैं ये , पूर्ण करें सब काज ।।

ईश्वर की पूजा करें , मानें रीति - विधान ।
कलुष मिटे मन के सभी , मिले दुखों से त्राण ।।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

रूप घनाक्षरी ( पावस )

विधा - रूप घनाक्षरी
वर्ण 32 / 888 8 पर यति
कहीं सूखा कहीं बाढ़ , कहीं बरसे असाढ़ ,
कितने पावस तेरे , हैं रूप और विधान ।
नजरें गड़ाए बैठे , आसरा लगाए बैठे ,
सूखे खेत देखकर , परेशान हैं किसान ।
बाढ़ में मवेशी बहे , घर टूटे गाँव छूटे ,
गलियों में  पानी भरे , नदियों में है उफान ।
कहीं बीज सूख रहे , कहीं लोग बह रहे ,
अपना ही कर्मफल , भुगत रहा इंसान ।
बार - बार यही रोना , पड़े कब तक खोना ,
छोड़ो बातचीत अब , ढूँढो कोई समाधान ।।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग ,छत्तीसगढ़

Monday, 20 July 2020

गीत 15

गीत ( ताटँक छंद )
16/14 मात्रा $$$
जीवन कौशल सीखा मैंने , खेत और खलिहानों में ।
स्वेद कण यहाँ मोती बनते , श्रमिकों के अवदानों  में ।।

मिट्टी की सोंधी खुशबू है , दिल के भोले - भालों में ।
अहंकार छल दम्भ नहीं है , इनके सरल  सवालों में ।
समरसता है मन में इनके  , हों अपनों बेगानों में ।।
जीवन कौशल सीखा मैंने , खेत और खलिहानों में ।।

सम्मान यहाँ एक - दूजे का  , मिलजुल कर सब रहते हैं।
आपस में कोई भेद नहीं , सुख - दुख साझा करते हैं ।
आगे बढ़ने चाल न चलते  ,  होड़ नहीं नादानों में ।।
जीवन कौशल सीखा मैंने , खेत औऱ खलिहानों में ।।

गाँव मुझे अब भी प्यारा है ,  शोभा यहाँ निराली है ।
मन में कोई खोट नहीं , जेब भले ही खाली  है ।
मन का आँगन बहुत बड़ा है , ममता भरी मचानों  में ।।
जीवन कौशल सीखा मैंने , खेत और खलिहानों में ।।

छोटे - छोटे सपने पलते ,  इनके निश्छल नैनों में ।
मधुरस सी मिठास भरी , इनके देशज बैनों में ।
संस्कारों को जीते हैं ये , परम्परा के गानों में ।।
जीवन कौशल सीखा मैंने , खेत और खलिहानों में ।।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग ,छत्तीसगढ़

गीत 13

सावन गीत

सावन में झूलों का उत्सव ,खुशियाँ लेकर आया है ।
बूँदें  छेड़े भीगे तन को , पावस मन को भाया है ।।

मोती की लड़ियाँ मनभावन , याद दिलाती हैं प्रिय की।
हाथों में थामो जब इनको , प्यास बढ़ाती हैं मन की।
विरहा के प्यासे अंबर में , सुख का बादल छाया है ।
लौट रहे घर साजन मेरे , यह संदेशा लाया है ।।

सुधियों की बारिश में भीगा , मन-मयूर मेरा झूमा  ।
चुपके से उस छली भ्रमर ने , फूलों के मुख को चूमा ।
मदमस्त पवन के झोंकों ने , अलकों को सहलाया है ।
खुशियाँ पाकर नाच उठा तन , झूम-झूम मन गाया है ।।

मधुर मिलन की याद दिलाती , मुझको भाती यह बारिश।
बाँहों में प्रियतम के झूलूँ , बस इतनी-सी है ख्वाहिश ।
मन की इस महकी बगिया में , प्रेम-पुष्प मुस्काया है ।
बारिश की छम-छम बूँदों में , प्यार पिया का पाया है ।।

वसुधा का शृंगार कर रही , उमड़-घुमड़ वारिद माला ।
रंग-बिरंगे पुष्प मनोहर , मोती से सजती बाला ।
खुशबू आई प्रथम मिलन की , प्रिय की यादें लाया है ।
संग सजन के झूला झूलूँ  , सोच जिया हरषाया है ।।

- डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Sunday, 19 July 2020

कुण्डलिया

 कुण्डलिया : 1

" बोलें हम मीठे वचन , मन लें सबका जीत ।
हिलमिल सबसे रहे हम , सब पर अपनी प्रीत ।
सब पर अपनी प्रीत , रखें हम मन को चंगा ।
मन पावन रहे तो , कठौती में है गंगा ।
कह दीक्षा करजोरि , मधुरिमा जीवन घोलें ।
सफल हों जीवन में , मीठे वचन हम बोलें ।।
2
दीपक सम जलते रहो , जग को करो उजास ।
जीवन में रहना नहीं , दुःखी और निराश ।
दुःखी और निराश  , रहते अगर जीवन में ।
होता नहीं विकास , काँटे मिलते चमन में ।
दीक्षा का संदेश , बनो खुशियों के द्योतक ।
स्वस्थ सुखी सफल हो , बनो तुम कुल के दीपक ।।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग ,छत्तीसगढ़

अस्मत (मुक्तक )

#अस्मत पर आये कोई आंच गवारा नहीं हमको ,
झूठ जो ढक ले सांच  वो प्यारा नहीं हमको ।
खेल जायेंगे जान पर  बचाने अपनी इज्जत -
भूलकर भी समझना नाकारा नहीं हमको ।

गुल ही नहीं तुम्हें खार में भी खिलना होगा ,
वक्त के साथ खुद को भी बदलना होगा ।
खेल न सके कोई # अस्मत से तुम्हारी_
जरूरत पड़े तो आग में भी चलना होगा ।

परिवार

#पिता जीवन के समंदर में नाव से ,
संघर्षों के तेज धूप में वट की छांव  से  ।

#माँ सूखी धरती में बरसी बारिश सी  ,
मौत को देख जी लेने की ख्वाहिश सी  ।

#बेटा दृढ़ निश्चयी पहाड़ सा रहा  अटल   ,
बना परिवार का आधार  दिया संबल  ।

#बेटी नदियों सी पावन निश्छल बहाव  ,
दो कुलों के स्वाभिमान का खूबसूरत पड़ाव ।

सूरज की रोशनी  चाँदनी की शीतल फुहार ,
अपनेपन ,प्यार से समृद्ध खुशहाल # परिवार ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

मुक्तक

दिखाते सही राह देकर ज्ञान ,
मुश्किलों को करते आसान ।
ईश्वर भी उन्हें शीश नवाते _
गुरु का सबसे  ऊँचा स्थान ।

सुर के बिना अधूरा  तान ,
गुरु के बिना न मिलता ज्ञान ।
हो जायेगा जीवन सफल_
सदैव गुरु का कहना मान ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

मतलब की यारी

कल तक पौधों में लगे हुए थे 
जो खूबसूरत फूल ,
आज उनकी पंखुड़ियाँ 
धरा पर टूटकर बिखरी थीं ,
 वही रंगत और महक लिए
कुछ ऐसा ही हमारा रिश्ता
टूटकर भी दे गया ,
खूबसूरत यादें , मीठा एहसास ।
भूल नहीं पाती वो लम्हे
तुम्हारा मुझे प्यार से ताकना ,
रहना दिल के पास ।
माथे पर गिर पड़ी लटों की उठाना
चूमकर मेरा माथा बाहों में कस लेना 
ठोढ़ी पकड़कर  मेरा चेहरा उठाना ।
लाज से झुकी पलकों को
उठाने की मिन्नतें करना ,
जीवन भर साथ निभाने की कसम खाना ।
ऐतबार किया तुझ पर ,
किया प्रेम पुष्प अर्पण
तुझे चाह कर कुछ न चाहा
किया तन - मन समर्पण
थी मतलब की  यारी ,
तुमने  निभाई न जिम्मेदारी
मुझसे मुख मोड़ गये 
बीच राह में छोड़ गये
पर मैंने तुमसे  सच्चा प्यार किया
तुम बिन जीवन क्या जिया
आ जाना जब भी महसूस करो ,
जिंदगी में मेरी कमी 
ठहर गई हूँ मैं उसी मोड़ पर
नजरें  वहीं थमी 
तुम्हारी बाट जोहते
सिर टिकाये घर की दहलीज पर ।
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स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़



मुक्तक

 प्रेम
ढाई अक्षर के इस शब्द का , बहुत गहरा अर्थ है ।
जो छू न पायें आपका हृदय , लिखना मेरा व्यर्थ है ।।

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लगता अंतर्मन  शांत पर बाहर कोलाहल है ,
हृदय घट अमृत से भरा , जग यह हलाहल है ।
बेचैनी से भरा ,भीड़ में  जो बीता जीवन _
अपनों के  संग बीता वही सुकून का पल है ।।
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पंछी उड़ने के लिए वृहद आकाश माँगता है ,
थका देह विश्राम के लिए अवकाश माँगता है ।
भर देता है जीवन को सहज ही खुशियों से_
प्रेम टिकने के लिए अटूट विश्वास माँगता है ।।
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जी हलकान होगे

तिपय भुंइया , जरत भोंभरा
गर्मी के मारे जी हलाकान होगे ।
बन गेहे सब्बो झन घर खुसरा 
गली मोहल्ला हर सुनसान होगे ।।

चट चट जरथे हाथ गोड़ 
देह ले चुचुवावय पसीना ।
जीव जंतु पियासे मरत हे
पानी बिना जग सुन्ना ।
 काबर रिसागे सुरुज देवता
हमरे करम ले तोर अपमान  होगे ।।
गर्मी के मारे जी हलाकान होगे ।।

पेड़ कटागे माटी  नन्दागे
सिरमिट म भुइँया बन्धागे ।
गमला म फूल लगाय बर
माटी  ल तें खोजे जाबे ।
सुक्खा परगे तरिया नदिया
सुघ्घर खेत हर दइहांन होगे ।।
गर्मी के मारे जी हलाकान होगे ।।

हर हर झंझा चलत हे
कइसे बुता म जाबे ।
रुख राई कुछु नई दिखय
तें छईया कहाँ ले पाबे ।
बरसय नहीं भिनजोवय नहीं
बादर घलोक बईमान होगे ।।
गर्मी के मारे जी हलाकान होगे ।।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़








मुक्तक ( पर्यावरण )

मानव को सुख सुविधा देने कितने पेड़ कट गये ,
दरारों के कारण भूमि शुष्क हो टुकड़ों में बंट गये ।
एक पेड़ के नीचे है दुनिया के सब सुख - साधन_
फिर भी हरे - भरे पेड़ आज गमलों में सिमट गये ।।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

दुनिया ल छोड़ के ( छत्तीसगढ़ी )

दुनिया के रीत ल छोड़ के ,
इनसान तैं हर कहाँ जाबे ।
दया धरम ल छोड़ देबे त ,
 भगवान ल कहाँ ले पाबे ।।

धन - दौलत कमाय बर ,
तैं अपन जमीर ल मारे ।
सुख - साधन ल पाय बर ,
खेत खलिहान ल बेच डारे ।
के दिन उड़बे अगास मा ,
भुईएच म आके थिराबे ।।

अन्टी म पइसा हे त ,
कतको सगा संगवारी ।
आन तान मन हितैसी बनगे ,
छुटगे बाप भाई महतारी ।
कोख ल भले बिसा ले ,
दाई के मया दुलार कहाँ लाबे ।।

कतको तरक्की कर ले बाबू ,
फेर मौत ल नई जीत पाये ।
अकाल , बाढ़ , महामारी म ,
तैं थर थर  कांपे  ,थर्राए ।
जा बिधाता के सरन मा ,
ओखरे आघु मुड़ी नवाबे ।।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

ज्ञानी ( दोहे )

ज्ञानी पंडित सभी हैं , दिल की न सुने कोय ।
 दिल की बातें सुने जो , सच्चा  ज्ञानी होय ।।

प्रेम भाव की धार को  , मोड़ सके तो मोड़ ।
ज्ञान चाह की  राह  में ,  अहंकार को छोड़ ।।

द्वेष , दम्भ को त्याग कर , नेह सुमन तू खिला ।
प्रेम भाव  से कर्म कर  ,  ज्ञान  धर्म से मिला ।।

विनत रहे जो सदा ही  ,   झुकी रहे ज्यों दूब  ।।
आँधी बिगाड़  सके क्या , फले - फूले वह खूब ।।

ज्ञानी ध्यानी  गये कह , नशा नाश  का मूल ।
गुनी धनी सब  गये बह  , जाओ इसको भूल ।।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

मुक्तक

माँ🙏🙏
**********
जब - जब किसी ने  मंदिर की घण्टी बजाई है ,
साँझ ढले जब तुलसी  की आरती सजाई  है ।
आँचल के साये में झिलमिल तेरी सूरत माँ_
रुँधे कंठ , तेरी याद में  आँख भर आईं  है ।।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे🌹
दुर्ग , छत्तीसगढ़

पीरा ( छत्तीसगढ़ी गीत )

अन्नदाता तैं कर्जा के...
फंदा मा कहां फंदागे जी
बियाज उपर बियाज चढ़त हे
मूलधन ह लुकागे जी ।

सुक्खा परगे खेत खार..
बरसात हर रिसागे जी
परिया  परगे बारी बखरी
साग भाजी बिसाबे जी

बनिहार घलो मिलय नहीं
खेती बारी बेचागे जी
बुता खोजे बर चलिन सहर
गांव के गली हर रितागे जी

महंगाई के नागर म
बइला सही फंदागे जी
बांचे के रददा नई दिखय
पीरा म जिनगी बंधा गे जी ।।

स्वरचित .... डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

दोहे ( दिव्यांग )

अपाहिज तन व स्वस्थ मन , नहीं माँगता भीख ।
पेट सभी का पालता , अपनी रिक्शा खींच ।।

विकलाँगता बनी नहीं , उसके लिए अभिशाप ।
रक्षा कर स्वाभिमान का , मिटा दिया परिताप ।।

डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

तन्हाई

मेरी स्वरचित कविता - 
तेरी राह तकते - तकते
फिर आँख भर आईं है...
तारों के संग चाँद 
चल पड़ा है सफर पर...
यादों के गलियारे में घूमते ,
मेरे हिस्से रात  सूनी आई है ।
फिर वही शाम , वही गम ,वही तन्हाई है 
अपनों के छल से आहत मन ,
सन्देह के पत्थर से टूटा...
अनुराग का दर्पण ।
विश्वास भरे हृदय के 
हर टुकड़े में...
तेरी छबि समाई है ।
फिर वही शाम , वही गम , वही तन्हाई है ।।
डॉ. दीक्षा चौबे

मुक्तक

पाँवों में चुभते हैं , बैर के शूल हटा देंगे ।
राहों में तेरी हम , नेह के फूल खिला देंगे ।
हमारी आस्था पर तुम , कभी संदेह मत करना ।
वतन की आन की खातिर , अपना सिर भी कटा देंगे ।।
*******
भावों के चंदन से , माथे तिलक सजा देंगे ।
आरती की थाली से , जगत पावन बना देंगे ।
कमजोरी न समझना हमारी चुप्पियों को तुम ,
बात इज्जत की आई तो , दाँव पर जान लगा देंगे ।

दोहे ( बेटी )

बेटी से रौनक  बढ़े , मिले मान - सम्मान ।
उन्नति की सीढ़ी चढ़े , वह मेरा अभिमान ।।

बेटी है यह जानकर , दिया कोख में मार ।
कन्या - पूजन के समय , ढूँढे यह संसार ।।



स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़


कुण्डलिया ( बेटी )

कुण्डलिया  -
बेटी घर का मान है , बेटी है अभिमान ।
बेटी जिनके घर बसे ,घर वह स्वर्ग समान ।
घर वह स्वर्ग समान , जहाँ नारी की पूजा ।
कन्या देवी जान , पावन न कोई दूजा ।
कह दीक्षा करजोरि , धन विद्या की है चेटी ।
पुण्य कर्म प्रभाव से, मिलती है  हमें बेटी ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

दोहे ( तारा )

भावपूर्ण ही हो मनन , हृदय भरा हो नेह ।
तारे ज्यों आकाश में , प्रेम भरा हो गेह ।।

तारों - सा शीतल बनो , जग में भरो उजास ।
घनी छाँह ज्यों पेड़ की ,पंथी को दे आस ।।

मंजिल पाना तुम्हें तो ,राह न रोड़े  देख ।
तारों जैसे अटल हो , बाँच भाग्य के लेख ।।

टूटा तारा देखकर , माँग लिया वरदान ।
साथ रहें प्रिय सदा यूँ , तन से निकले प्राण ।।

चाँद सैर पर चल पड़ा , ले तारों की फौज ।
बिखरी शीतल चाँदनी , निशा मनाए मौज ।।

तारे टिमटिम कर रहे , उजियारा आकाश ।
सबका अपना स्थान है , ध्रुव तारा है खास ।।

तारा माँ की आँख का , बेटा गुण की खान ।
अपनी रचना में कमी  ,  ढूँढे कहाँ  इंसान ।।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग  , छत्तीसगढ़

गीत ( छत्तीसगढ़ी )

नैया डोलय बीच भँवर म , मोला तार देबे न ।
धकधक बोलय मोर जिवरा  तें सम्भार लेबे न ।

कुहू - कुहू कुहूकय कोयलिया , मन के अमराई म ।
छन - छन छनकय पायलिया , पीरा के गहराई म ।
डूबत हंव  मया के तरिया म  , तें  उबार लेबे न ।।

 बईमानी  के जरी फैले  हे , लबारी के चिखला म ,
छल छिद्दर के फर लगे हे , जिनगी के रुख्वा म ।
दुनिया काजर के कोठरी , तें उजियार देबे न ।।

लड़थे भाई ले भाई  , टूटय रिश्ता व्यवहार म ,
बेटी नइहे इहाँ सुरक्षित , अपनेच घर - दुवार म ।
बिगड़े हे दुनिया के रीत तें सुधार देबे न ।।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

कुण्डलिया

वानर बैठा डिस्क में , 
                 सबकी हँसी  उडाय ।
सता रहा कल मुझे था , 
                 आज हुआ असहाय ।
आज हुआ असहाय , 
                 दुबक कर बैठा भीतर ।
शांत है  धरा - गगन ,
                 घूमे सड़क पर  जानवर ।
मानव- मन अशांत है ,
                  खुशी  से झूमे वानर ।।

डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

सजल

सजल
समांत - आम
पदांत -  वाले हैं
मात्राभार - 25
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कुछ न उन्हें  कहना  वे बड़े नाम वाले हैं
                  साथ  उनके  रहना वे बड़े काम वाले हैं

बेदाग ही रहे  वे काजल की कोठरी में
                     आता है  उन्हें बचना  बड़े दाम वाले हैं

काँटे  में फँसती हैं मछलियाँ  छोटी - छोटी
                     मगरमच्छ तो बड़े  ही इंतजाम वाले हैं

 झूठ को सच बनाना आसान नहीं इतना
                   यह दावा जो करते बड़े मुकाम वाले हैं

 गोष्ठियों में जाकर वे करते हैं  बड़ी बातें
                   काम इन के सारे बुरे अंजाम वाले  हैं 

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़
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गीत 10

शृंगार  गीत
मधुमालती छंद 14 मात्रा , यति 7,7
मापनी 2212 , 2212
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शीतल सरस एहसास है ,
प्यारा सुखद मधुमास है ।

                        सुरभित सुमन , मकरन्द सा ,
                          संगीत  मादक छंद सा ।
                           मधुबन महक आभास है ।।
                             प्यारा सुखद मधुमास है ।।
चंचल नयन , पुलकित बदन ,
विहँसित सदन , पुहुपित चमन ।
चारों दिशा , उल्लास है ।।
प्यारा सुखद मधुमास है ।।
                         हर्षित हृदय , कम्पित अधर ,
                         महका हुआ जीवन सफर  ।
                          साथी अटल विश्वास है ।।
                           प्यारा सुखद मधुमास है ।।

आठों पहर , ढूँढे नजर ,
रसपान को , तरसे भ्रमर ,
 प्रेम को कारा वास है ।
प्यारा सुखद मधुमास है ।।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग ,छत्तीसगढ़

मुक्तक ( विवेकानंद , छल , मजदूर , शहीद )

पांडित्य , पराक्रम , शौर्य में मार्तण्ड हो जाए ,
सुविचार और सद्भावना अखण्ड हो जाए ।
सिरमौर बनेगा दुनिया का  अपना राष्ट्र  ही _
हर घर का एक बालक विवेकानंद हो जाए ।।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग ,छत्तीसगढ़

चंद रुपयों में ही तकदीर यहाँ बिकता है ,
छल की स्याही से अपना इतिहास लिखता है ।
फरेब  की नींव पर ओ महल बनाने वालों _
रेत में बना हुआ प्राचीर कहाँ टिकता है ।

थक जाए मजदूर तो जग में क्रंदन हो जाए ,
श्रमवीरों  के स्पर्श से मिट्टी चंदन हो जाए ।
अपमानित न करना कभी उस माटीपुत्र को_
उसको मान दिया वसुधा का वंदन हो जाए।।


हाथों के स्पर्श से मिट्टी को कंचन बना देते हैं ,
अथक परिश्रम कर मरु को कानन बना देते हैं ।
वीर शहीदों का लहू जिस भूमि पर गिरता है ,
 हर कण को  गंगा जल सा पावन बना देते हैं  ।।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा  चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

मुक्तक

चन्द्रमौलि , नीलकंठ , वे बाघम्बरधारी हैं ,
 शिवशक्ति संग कैलाश विराजे त्रिपुरारी हैं ।
सहज भक्ति में खुश हो कर ,कहलाते  आशुतोष_
भुजंग गले में  हार लिए भोले - भंडारी हैं ।।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग ,छत्तीसगढ़


शीशे सा दिल है जरा देखभाल  कर रखना ,
शब्दों के नश्तर कभी न निकाल कर रखना ।
 गहरे होते हैं मन के घाव ,भरते नहीं  ये _
बातों का लहजा  जरा संभाल कर रखना ।।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़


दूर के ढोल

स्वार्थ के तराजू में , इस दिल को न  तू तौल  ,
सोने के चंद सिक्के , चुका न पायें इसका मोल ।

बिकता न हाट बाजार , न कर इसका व्यापार ,
कद्र कर  सहेज इसको  , ये प्यार बड़ा अनमोल ।

छल कपट से परे रह ,  मधुर  रख  व्यवहार ,
दिलों को जीत लोगे  , बस बोल दो मीठे बोल ।

सही - गलत की परख कर, पकड़  सही राह ,
न भटक अंधेरी गलियों में ,आँखें अपनी खोल ।

मीठी बातों के जाल हैं , दिखावे की दुनिया ,
बचकर रहना  इनसे ,बड़े सुहाने दूर के ढोल ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

दोहे ( गुरु )

गुरु-वंदना

गुरु की कर आराधना , पाना है जो ज्ञान ।
ईश्वर  को पाना अगर , गुरु का कहना मान ।।

माता होती प्रथम गुरु , देती ज्ञान , विचार ।
शिक्षा और संस्कार से , चरित्र मिले निखार ।

मात-पिता-गुरु को नमन , करता यह संसार ।
दीक्षा-विवेक- ज्ञान ही , जीवन के आधार ।।

दीपक सम जलकर सदा ,  मन में भरें उजास ।
ज्योति जलाएँ ज्ञान की , भरते पंथ प्रकाश ।।

राह दिखाते हैं जगत , नहीं बिना गुरु ज्ञान  ।
गुरु-चरणों की वंदना , करें सदा सम्मान ।।

महिमा गुरुवर की सदा , जग यह गाए आज ।
कलुष अज्ञान का मिटा , करते स्वच्छ समाज ।

 - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग ,छत्तीसगढ़

काश ! ( लघुकथा )

ट्रेन में गाने गाकर वह भीख माँगती थी । किसी ने उसका गाना रिकॉर्ड कर व्हाट्सएप में डाल दिया था । मीडिया में उसके गाने की धूम मच गई थी । एक बहुत बड़े संगीतकार ने अपनी एक फ़िल्म में गाने का ऑफर भी दे दिया । बेबसी की जिंदगी से उठकर चकाचौंध भरी दुनिया में पहुँच गई थी वह । दूध के उफान की तरह शोहरत की चमक कुछ दिन ही रही पर उसके जीवन में अंधेरा कर गई । आँखों में ख्वाहिशों के सजते  सपने अब उसे वापस लौटने भी नहीं दे रहे थे । अभावों में भी संतुष्ट थी वह , काश ! उसकी आँखों को कोई सपना दिखाया ही नहीं जाता ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

तेरी सास ने कुछ नहीं सिखाया ( आलेख )

जब मेरी शादी हुई मैं बी. एड. की पढ़ाई कर रही थी । घर पर छुट्टियों में ही आ पाती थी । मम्मी मेरी पसन्द की चीजें बनातीं , तब कहाँ सोचते कि शादी के बाद यह सब खुद करना होगा । पूरे घर को सजाने - जमाने , खाना बनाने की जिम्मेदारी स्वयं निभानी है ।  स्कूली जीवन में मम्मी के कभी बाहर रहने पर जैसे - तैसे खाना बना लेती थी । जरूरी चीजें बनानी आती थीं पर कभी अकेले सब कुछ नहीं किया ।
         शादी के बाद सासूमाँ ने मेरी गृहस्थी जमाने में मदद की । मुझे खाना  ,तरह - तरह का नाश्ता बनाना भी सिखाया । इस घर की परंपराओं , रीति - रिवाजों से परिचित कराया , रिश्तों से परिचय कराया ।मुझे तो पहले दिन अलमारी और कपड़ों का ढेर देखकर ही चक्कर आने लगे थे ,समझ ही नहीं आया कि कहाँ क्या जमाऊँ । सासूमाँ और जेठानी की मदद से सब काम किया , फिर धीरे - धीरे सब सीखती गई । आज अपनी ही कार्य - कुशलता पर अचरज होता है । लगभग सभी घरों का यही हाल है , लड़कियों के जीवन के  इक्कीस - बाईस वर्ष घर में पढ़ाई करते रहने के कारण , कैरियर बनाने के चक्कर में बीत जाते हैं । समय ही नहीं मिलता कि घर के काम सीखा जाए ,दूसरी बात अपने घर में कोई जिम्मेदारी भी नहीं रहती ।मम्मी के रहते निश्चिंत भी रहते हैं इसलिए शादी के बाद जब यह सब करना पड़ता है तो उन्हें कई प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ता है । जीवन की असली चुनौती तो विवाह के पश्चात प्रारम्भ होती है । ससुराल पक्ष को इस सच्चाई को स्वीकारना चाहिए और बहू को सहयोग भरा वातावरण प्रदान करना चाहिए । सास की भूमिका इसमें बहुत महत्वपूर्ण है । लड़कियों को अपनी जिम्मेदारी समझ कर ,सीखने की रुचि भी रखनी चाहिए और सास को माँ की तरह आदर व प्यार देना चाहिए । दोनों के बीच सामंजस्य भरा व्यवहार उनके सुखी जीवन का आधार बनता है । जहाँ इन बातों की कमी होती है वहाँ सास - बहू का एक छत के नीचे रहना मुश्किल हो जाता है। तो अब लड़कियों को ये ताने देने के दिन गये कि तेरी माँ ने कुछ नहीं सिखाया , कहिए तेरी सास ने तुझे कुछ नहीं सिखाया ।
साथियों ! मेरे साथ बने रहने के लिए धन्यवाद 🙏🙏
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग ,छत्तीसगढ़

जिंदादिली का नाम है जिंदगी

मेरे एक परिचित हैं द्विवेदी जी , बहुत ही जिंदादिल इंसान ...हमेशा हँसते - मुस्कुराते ही मिलेंगे । उनके बेटे से मालूम हुआ कि उनके लगभग पाँच ऑपरेशन हो चुके हैं और उन्हें बहुत सारी शारीरिक परेशानियाँ हैं । उन्हें मैंने कभी भी अपनी तकलीफों का रोना रोते हुए नहीं देखा । सब कुछ भूलकर वे सिर्फ खुश रहने की बातें करते हैं । पूछने पर कहते हैं शिकायत करने से क्या होगा ? जो होना है वो तो होकर रहेगा , उसके लिए अभी से दुखी क्यों होना । अपने वर्तमान को खुशी से जी रहा हूँ  , भविष्य में क्या होगा यह सोचकर दुखी क्यों होना । सच ही तो कहते हैं वे , हम अपने वर्तमान को हमेशा भूलकर भविष्य या अतीत के बारे में सोच - सोचकर दुखी होते रहते हैं । जो बीत गया अब उसका दुख क्या करना और भविष्य हमारे हाथ में नहीं है , कल क्या होगा कोई नहीं कह सकता ।  आज जो हमारे पास है वही सच्ची दौलत है  । परेशानियों से लड़कर आगे बढ़ने में ही भलाई है न कि अपने दुखों के बारे में सोचने में ।  किसी ने सच ही कहा है " जिंदगी जिंदादिली का नाम है मुर्दादिल क्या खाक जिया करते हैं " । तो चलिए अपने जीवन में आने वाली कठिनाई को चुनौती देकर सफलता प्राप्त करने का प्रयास करते हैं , जिंदगी को नये सिरे से जीने की शुरुआत करते हैं । उस हँसते- खिलखिलाते बच्चे की तरह जिसे न आने वाले कल की चिंता है और न कुछ खोने की । जो एक खेल जीतकर खुश हो जाता है या बारिश में भीगकर । खुशी की कोई शर्त नहीं है , कोई सीमा नहीं है , कोई बंधन नहीं है ...बस , दिल से बच्चे हो जाएं ..मन से सच्चे हो जायें ।।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग ,छत्तीसगढ़

दोहे ( ज्योति )

ज्योति जली है ज्ञान की , अन्तस्  हुआ प्रकाश ।
निकल पड़ा हो चाँद ज्यों , धवल हुआ आकाश ।।

दीपक की हूँ ज्योति  मैं , तम को दे दूँ  मात ।
गुरुवर की पाकर कृपा ,पुलक उठा यह गात ।।

सभी दुखों को दूर  कर , बनें नैन की ज्योति ।
राह दिखाएँ  रात में , ईश्वर में हो प्रीति ।।

पेड़ों से छाया मिले  ,  सूरज मिले प्रकाश ।
साँझ ज्योति ज्यों दीप की , तम में भरे  उजास ।।

शिक्षा -ज्योति जले रहे   , घर - घर पहुँचे ज्ञान ।
 आगे बढ़ें लोग सभी  , देश का  बढ़े मान ।।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग ,छत्तीसगढ़

मुक्तक

जब समय रहता है मौन तब बोलते अल्फ़ाज़ मेरे ,
जब हृदय  होता है बेचैन तब गूँजते आवाज मेरे ।
बेअसर हो जाती हैं जब मन , वाणी की ध्वनियाँ_
तरंगित से कर जाते हैं  मधुर भावों के साज मेरे ।।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

नुस्खा ( लघुकथा)

शाम को घूमने निकले श्रीवास्तव जी का मन उदास और कदम शिथिल थे । पत्नी के न होने की कमी आज बेइंतहा महसूस हो रही थी । बेटे - बहू पर बहुत अधिक निर्भर कभी नहीं हुए वो बल्कि  अपनी तरफ से उन्हें स्वतंत्र ही रखा , रिश्तों में संतुलन बनाने की कोशिश की । आज एक सामान्य प्रश्न के जवाब में बहू झल्ला पड़ी थी , पहली बार बेरुखी से पेश आई थी । बस वही बातें उन्हें व्यथित कर रही थीं । पार्क में बैठकर बहुत देर तक सोचते रहे ,  बहू  नौकरी व घर की जिम्मेदारी में संतुलन बनाये रखती है , बच्चों की देखभाल करती है हो सकता है आज उसकी तबीयत ठीक न हो या ऑफिस में कुछ गलत होने पर उसका मूड खराब हो । इस सोच ने उनका मन हल्का कर दिया और लौटते वक्त वह उसके लिए पानीपुरी पैक करवा कर ले आये थे । बहू की आँखें खुशी से चमक उठी थी पानीपुरी के तीखे स्वाद ने ऑंखों के साथ दिलों में नमी ला दी थी " बाबूजी ! मैंने किसी और बात का गुस्सा आप पर उतार दिया था आप मुझे माफ़ कर देंगे न । " गुस्से का इलाज सिर्फ प्यार ही हो सकता है , श्रीवास्तव जी का नुस्खा काम कर गया था ।

दोहे ( किसान )

किसान
पीड़ा उसका भाग्य  है ,  सदा रहा कंगाल ।
सूखे ने  मारा उसे ,   किसान है बदहाल  ।। 

रातों को वह जागता , करता  दिन भर काम ।
मेहनतकश  किसान  को , कभी नहीं आराम ।।

  सूखी रोटी है भली , करे न उल्टे काज ।
 कल के लिए कुछ भी नहीं , जो कुछ है वह आज ।।

जीवन के संग्राम का , योद्धा बना किसान  ।
धरती का है लाल वह ,  माँ भारती की शान ।।

खेतों में अन्न उगा रहा   ,  खाली पेट  किसान ।
जरूरतें  पूरी  नहीं ,   खत्म हो गए धान ।।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़


दोहे ( सावन )

सावन आया झूम के ,  धरा की बढ़ी शान ।
चूनरी हरी ओढ़कर  ,  सुनाये कोकिल तान ।।


मेरे लिए

नीला आसमां , हरी - भरी वादियाँ ,
                                             यह जहाँ मेरे लिए है ।
रंग - बिरंगे फूल , पंछी , तितलियाँ ,
                                            यह  फ़िजां मेरे लिए है ।
समंदर की लहरें , छल - छल बहती नदियाँ ,
                                              यह समां मेरे लिए है ।
कल - कल करते झरने , ये मोती की लड़ियाँ ,
                                            यह कारवाँ मेरे लिए है ।
 सुनहरी उषा अलबेली , बादलों की अठखेलियाँ ,
                                         यह गुलसिताँ मेरे लिए है ।
शांत ,धवल योगी हिमालय ,सम्मोहन करती घाटियाँ ,
                                          यह करिश्मा मेरे लिए है ।
लुटाया प्रकृति ने कोष ,अनुपम सौंदर्य  की रश्मियाँ ,
                                        यह कहकशां मेरे लिए है ।
जीते जी देख लिया जन्नत ,क्यों कहूँ कुछ नहीं मेरा ,
                                          सारा जहाँ मेरे लिए है ।
******    स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे **********
दुर्ग ,छत्तीसगढ़

गीत 14

बचपन🌹🌹
********************
सुंदर फूलों के समान ,
कहाँ है मेरा दिल नादान ,
मैं उसको ढूँढ रही हूँ.... मैं उसको ढूँढ रही हूँ ।
न था अच्छे - बुरे का ज्ञान ,
न कोई मान न अपमान ।
मैं उसको ढूँढ रही हूँ.....

भोला - भाला वो बचपन ,
गुड्डे - गुड़ियों का जहान ,
गंगा जल सा था पावन ,
सब दुखों से था अनजान ।
मैं उसको ढूँढ रही हूँ.....

दो उंगली की कट्टी - बट्टी ,
गोलियाँ मीठी और खट्टी ,
भेंट अमिया और इमली की ,
लाती चेहरे पर मुस्कान ।
मैं उसको ढूँढ रही हूँ.....

न कोई बड़ा न कोई छोटा ,
न जाने खरा और खोटा ,
पड़ोसी लगते सब अपने ,
सारे घर थे एक समान ।
मैं उसको ढूँढ रही हूँ....

गर्मी की चाँदनी रातें ,
दादी - नानी की बातें ,
बड़े जो कहते लेते मान ,
मन कोरे कागज के समान ।
मैं उसको ढूँढ रही हूँ...

दिन थे रेशम से हल्के ,
नींदों से बोझिल पलकें ,
सपनों की ऊँची उड़ान ,
रोना - हँसना था आसान ।
मैं उसको ढूँढ रही हूँ.....

रेतों में बीने जो  शंख ,
नाव , पत्थर , लकड़ी , पंख ,
कीमती थे ये सब सामान ,
खुशियाँ मिलती थीं बेदाम ।
मैं उनको ढूँढ रही हूँ.....।।

सुंदर फूलों के समान ,
कहाँ है मेरा दिल नादान ,
चेहरे की निश्छल मुस्कान ,
मन कोरे कागज के समान ।
मैं उसको ढूँढ रही हूँ ....मैं उसको ढूँढ रही हूँ ।।

🌹स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़











मुक्तक ( बरसात )

ढेर सारी यादें लेकर आती बरसात ,
बचपन की मस्ती और शरारतों की बात ।
शाखों को हिलाकर चेहरे को भिगोना _
छई - छपाक करके गीले कर लेते गात ।।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

मुक्तक ( दोस्त )

दोस्त दूर होकर भी दिल के पास होता है ,
आम सा लगता है पर बहुत खास होता है ।
उसके आने से आती हैं खुशियों की दस्तक_
छुपा लेता वह खुद को जब उदास होता है ।।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

दोहे ( नीति )

मुदित मगन हो करें सभी , राम चरण की प्रीति ।
सौंप उसे दें आप को , यही भक्ति की रीति ।।

जाना है संसार से , ले लो प्रभु का नाम ।
पार करें दुखभार से , बन जाये सब काम ।।

जीना तो ऐसे जियो , जैसे सूरज- चाँद ।
सबको उजास बाँट कर , अंधकार ले बाँध ।।

सागर जल कर्षित करे , बादल बन बरसाय ।
राजा ऐसा चाहिए , लेत न देत अघाय ।।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

दोहे ( मेरा देश )

नदी जहाँ पर मात है , पर्वत पिता समान ।
वंदन वेद पुराण  को , मेरा देश महान ।।
💐
भासित प्रचण्ड पुंज सम , अम्बर ज्यों मार्तण्ड ।
विराट जन मानस लिए , मेरा देश अखण्ड ।।
💐💐
दधीचि जैसे संत ने , अस्थि किया निज दान ।
 माटी  मेरे देश की ,  वीरों की है खान ।।
💐💐💐
चंदन सी माटी जहाँ , रंग - बिरंगा वेश ।
गंगा जल पावन यहाँ , ऐसा मेरा देश ।।
💐💐💐💐
ज्ञानी बढ़ चढ़कर हुए , जनमे सन्त महान ।
मीरा  कबीर सूर से , देश का बढ़े मान ।।
💐💐💐💐💐
भाषा जाति भिन्न यहाँ ,  भिन्न भिन्न परिवेश  ।
प्रेम से सब गले मिलें ,  मेरा देश विशेष ।।
💐💐💐💐💐💐
देवी हर बाला यहाँ , बच्चा - बच्चा राम ।
काशी प्रयागराज हैं , पावन शिव के धाम ।।
💐💐💐💐💐💐 💐
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग ,छत्तीसगढ़

दोहे

पुलकित पलकें खुल पड़ीं , पाकर स्नेह दुलार ।
हौले से रवि ने छुआ  ,  विहँसी उषा अपार ।।
  
मेघ साँवरे देख कर , अलसाई है भोर ।
श्रांत क्लांत आभा लिए , ताके अंबर छोर ।।

पावस की अद्भुत छटा ,  देख मस्त सब लोग ।
भोर की ताजी हवा , रखती हमें निरोग ।।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग ,छत्तीसगढ़


मुक्तक

जीवन पथ पर मिले सदा अनगिनत अवरोध ,
कुविचारों , कुमार्गों का करो सदा विरोध ।
सफलता के लिए छोटी सीढ़ी न ढूँढना_
परिश्रम और तपोबल बढ़ाता आत्मबोध ।।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग ,छत्तीसगढ़

मुक्तक

वो छोटे - छोटे पत्थर , बहती धार में अड़े हैं अब भी ,
छोड़ गए थे जहाँ हमें , उसी मोड़ पर खड़े हैं अब भी ।।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे

दोहे ( मानवता )

 त्याग तप करूणा क्षमा  , मानव  की पहचान ।
मीठे बोल सजाइए , मानवता की  आन ।।

साथ दे दुःख में सदा  , पीड़ा अपनी  मान ।
साथी इस संसार में ,सफल वही इंसान ।।

मानवता का सार है  , संयम नियम विधान ।
शुद्व आचार विचार हों , जग का हो कल्याण ।।

बुरे लोग भी हैं यहाँ ,  करते नित खिलवाड़ ।
कुवृत्ति फैला रहे ले ,  मानवता की आड़ ।।

तरुवर से पत्ता गिरे , लगे न फिर से डाल ।
मानवता से जो गिरे ,  क्षमा नहीं चिरकाल ।।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग ,छत्तीसगढ़


मुक्तक ( गिद्ध )

टूटती हैं मर्यादाएँ  ,  आज शिष्टता निषिद्ध है ।
घायल हुआ अंतर्मन , अपमान - शर से बिद्ध है ।
देख लेती  हैं निगाहें , वसन के उस पार भी _
इंसान वेश में घूम रहे  कुछ चालबाज गिद्ध हैं ।।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग छत्तीसगढ़

सफर जारी रखो

जिंदगी है एक बड़ा इम्तिहान  ,
इसमें बैठने की पूरी तैयारी रखो ।
चलना नहीं आसान फिर भी सफर जारी रखो ।

अंधेरों ने हमें हरदम डराया है ,
इनसे लड़ना जुगनुओं ने सिखाया है ।
सिर्फ ताकत नहीं हौसला जरूरी है ,
नन्हें से दिये ने यह पाठ पढ़ाया है ।
कमजोरियों को हरा दाँव एक भारी रखो ।
चलना नहीं आसान फिर भी सफर जारी रखो ।।

असफलता ,निराशा बार - बार तुम्हें घेरेंगे,
आगे बढ़ने के अवसर अक्सर मुँह फेरेंगे ।
आड़े आयेंगी  तेरे आगे हजारों चुनौतियाँ  ,
बाधाएँ मन में अविश्वास के भाव भरेंगे ।
लड़ना है इनसे डटकर उम्मीद सारी रखो ।
चलना नहीं आसान फिर भी सफर जारी रखो ।।

डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग ,छत्तीसगढ़





लक्ष्य ( घनाक्षरी छंद)

लक्ष्य का संधान कर , नीति का विधान कर ।
श्रम अनुष्ठान कर , जग मिल जाएगा ।

निशा को विहान कर , नीचे आसमान कर ।
तप - त्याग जो किया , सुख वही पायेगा ।

हौसला उफान पर , जोश की उड़ान भर ।
झुका कर आसमान , तारे तोड़ लाएगा ।

धरा को उर्वर बना , श्रम - जल सींच कर ।
जीवन सफल कर , तोष फल खायेगा ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Saturday, 18 July 2020

मुक्तक , गीत समीक्षा ( भाव पक्ष )



भाव हैं , संवेदना हैं  , अर्थ व्यंजना का प्रवाह है ।
परिष्कृत भाषा शैली , व्याकरण का निर्वाह है ।।
अभिधा है , व्यंजना है , अनुपम शब्द प्रयोग है ।
सूक्ष्म का स्थूल से , देह का आत्मा से योग है ।।
उपमेय  उपमान  है  , नवीन शब्द  - विधान है , 
सौंदर्य अनुपमेय है ,भावों का विस्तृत वितान है ।।

साधना ही मानव को महान बनाती है ,
नैतिकता मनुष्य को इंसान बनाती है ।
हृदय- भावों को कलुषित नहीं होने देना_
श्रद्धा ही पत्थर को भगवान बनाती है ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग ,छत्तीसगढ़

स्वागत गीत

गीत
मात्राभार 16/14 ताटँक छंद
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मधुरिम भावों से अभिनन्दन ,स्नेह पुष्प गुँथे  हार हैं ।
 श्रद्धाभाव के बने तोरण ,  प्रेम के बंदनवार हैं ।
मीठी वाणी के चन्दन से ,  करते  हैं माथे  तिलक ,
नयन दीप से पूजन - अर्चन , मनभावन  मनुहार  हैं ।

रंगोली सजी अनुराग की  , अधरों पर मुस्कान सजी ।
महक उठी जीवन की बगिया , अंतर्मन की कली खिली ।
लेकर आई पवन बसन्ती  , खुशियों की नव बहार है ।
नयन दीपों से पूजन - अर्चन , मनभावन मनुहार हैं ।।

 हृदयांचल में सुमन खिले हैं  ,भाव - विव्हल हुए नयन ।
छलके  नीर नेह निर्झर से ,हों पुलकित पखारें चरण ।
 आरती लेकर मन्नतें खड़ी , चाहत सजा दरबार है ।
नयन दीपों से पूजन- अर्चन , मनभावन मनुहार हैं ।।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Friday, 17 July 2020

पीड़ा (गीत )16

गीत


बेचारगी घुटन पीड़ा बन , अंतस को दहकाती है ।।
अनचाही , बिन माँगी पीड़ा , जीवन को झुलसाती है ।।

अभिव्यक्ति जब दे नहीं पाती , अन्तर्भासित भावों की ।
जीवन -पथ में धूप ही मिली  ,चाह रही जब  छाँवों की ।
सहने की हद टूट गई तो , आँसू बन ढल जाती है ।
बेचारगी घुटन पीड़ा बन , अंतस को दहकाती है ।।

कभी दुहाई अधिकारों की , दायित्व कभी आड़े आते ।
फूलों को चुन लिया सभी ने , काँटे भला कहाँ जाते ।
बलिवेदी पर अरमानों की , हँसते हुए चढ़ जाती है ।
बेचारगी घुटन पीड़ा बन , अंतस को दहकाती है ।।

मतलब की इस दुनिया में तो , सच अक्सर ठोकर खाता ।
फल देने वाला तरुवर भी   , केवल पत्थर ही पाता  ।
जीवन भर की सघन साधना , वृद्धाश्रम पहुँचाती है ।
बेचारगी  घुटन पीड़ा बन , अन्तस् को दहकाती है ।।

पद बिकते हैं बाजारों में , प्रतिभा का है मोल कहाँ ।
खंडित होती मर्यादाएँ , आदर्शों का घोल कहाँ  ।
लगा तंत्र में रिश्वत का घुन , प्रतिभा को खा जाती है ।
बेचारगी घुटन पीड़ा बन , अंतस को दहकाती है ।।

साथी पर विश्वास किया था , सौंप दिया अपना तन - मन ।
कलुषित हुई मानव कर्मों से , गंगाजल निर्मल पावन ।
रस पीकर उड़ जाता भँवरा , छली कली ही जाती है ।।
बेचारगी घुटन पीड़ा बन , अंतस को दहकाती है ।।

उच्चाकांक्षाओं की कारा , बंदी हैं सपन-सलोने ।
चाहत मन की मृगतृष्णा-सी , आई है धूप भिगोने ।
अनचाही पोषित बिटिया यह , माँ का तन झुलसाती है ।
बेचारगी घुटन पीड़ा बन , अंतस को  दहकाती है ।।

डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग ,छत्तीसगढ़

संस्कार ( लघुकथा )

नीमा का स्वास्थ्य आजकल ठीक नहीं रहता था , घर - नौकरी के बीच संतुलन बनाते हुए बच्चों व बूढ़े  सास - ससुर की देखभाल वह अच्छी तरह नहीं कर पा रही थी । पता नहीं उसके पति नरेश उसकी परीक्षा ले रहे थे या सच में पूछ रहे थे कि नीमा यदि तुम चाहो तो माँ - पिताजी को मैं कुछ दिन दीदी के घर छोड़ आता हूँ । सुनकर नीमा गुस्से से बोली - " यह आप क्या कह रहे हैं ? वे हमारे माता - पिता हैं जिन्होंने अपना सब सुख अपने बच्चों को पालने के लिए त्याग दिया , वे हम पर बोझ नहीं । यदि समस्या का समाधान ढूँढना है तो मैं घर के काम के लिए  नौकर रखने या नौकरी छोड़ने की सोचूँगी पर माता - पिता को छोड़ने की बात कभी नहीं ।" पत्नी की बातें सुनकर नरेश को उसके अच्छे संस्कारों पर गर्व महसूस हुआ और बाहर खड़े उसके माता - पिता  की आँखों में खुशियों के तारे झिलमिला उठे थे ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग ,छत्तीसगढ़

Thursday, 16 July 2020

गीत 5

गीत

आतप के प्रचंड प्रभाव ने ,
तन - मन को झुलसाया है ।
प्यास बुझाने वसुंधरा की ,
रिमझिम पावस आया है ।

वसुधा ने है चूनर ओढ़ी ,
पल्लव के मुख हरियाली  ।
सद्यस्नाता हैं पात - पात ,
तृण के मुख मोती आली ।
फूट पड़ा अंकुर बीजों से ,
किसलय बन मुस्काया है ।।


छलक उठी हैं नदियाँ निर्झर ,
बोल उठे हैं दादुर  मोर ।
फूट पड़ा उत्साह सभी का,
नहीं खुशी का कोई  छोर ।
बूँदों जैसे थिरक उठा मन ,
जन-जीवन हरषाया है ।।


माटी की सोंधी खुशबू ने ,
घोला साँसों में चंदन ।
चंचल होने लगे हैं भ्रमर ,
कलरव करते खग वंदन  ।
किया भोर ने है अभिवादन ,
संध्या - दीप जलाया है ।।

 भीग उठा धरती का कण- कण  ,
 सुरभित शीतल हुआ  पवन ।
कर्मवीर चल पड़े काम पर ,
उमगित पुलकित है तन-मन ।
बाट जोहते नैनों में अब ,
मेह खुशी का छाया है ।
प्यास बुझाने इस धरती की ,
रिमझिम पावस आया है ।।

डॉ. दीक्षा चौबे








Tuesday, 14 July 2020

संवेदना ( लघुकथा )

 संवेदना (लघुकथा )
           रीता अपनी सहेली रमा के पति की मृत्यु के पश्चात उससे मिलने उसके घर संवेदना प्रकट करने गई थी । वहाँ शोकाकुल वातावरण था , रमा खामोश बैठी हुई थी । रमा का पति एक नम्बर का अय्याश , शराबी और बदमिजाज इंसान था । उससे हमेशा मारपीट करता , रमा की कमाई छीनकर शराब में उड़ा देता । रीता कभी रमा के पति की निर्जीव देह की ओर देखती कभी रमा के निर्विकार , सुकून भरे चेहरे को । वह चुपचाप वहाँ से उठकर चली आई ...उसे समझ ही नहीं आया कि वह रमा के सामने संवेदना प्रकट करे या उसे उसके जीवन की समस्त तकलीफों से मुक्त होने की बधाई दे ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग ,छत्तीसगढ़  

सिस्टम ( लघुकथा )

                 *सिस्टम ( लघुकथा )*
             धन और पहुँच के बल पर सदैव आगे-आगे रहकर आजकल वह बहुत बड़े साहित्यकार हो गये हैं । बड़ी - बड़ी महफिलों में शिरकत करते हैं , अखबारों में छपते हैं । कुकुरमुत्ते की तरह उग आये नव साहित्यकारों पर वह टिप्पणी कर रहे थे । पता नहीं कुछ लोग लिखते ही क्यों हैं , कुछ भी लिखेंगे और अपने पैसे खर्च कर किताब प्रकाशित करवाएंगे जिन्हें शायद वे स्वयं भी नहीं पढ़ते होंगे । पूरा सिस्टम ही दूषित हो गया है...कहते - कहते उनकी नजरें उन एक जोड़ी घूरती आँखों पर पड़ीं और झुक गईं...जिनकी सहायता से वे आगे बढ़े थे , जो उनसे कहीं अधिक प्रतिभाशाली  होकर भी  गुमनामी के अँधेरे में था क्योंकि वह सिस्टम को समझ नहीं पाया था ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग ,छत्तीसगढ़

Tuesday, 7 July 2020

वजूद ( लघुकथा)

संयुक्त परिवार की सबसे छोटी बहू थी संध्या , सुबह से शाम तक सबकी व्यवस्था करते वह थक जाती । उसकी जेठानी गाँव में रहती थी और संध्या  शहर में रह कर आने - जाने वालों , जेठ के बच्चों  की पढ़ाई , अपने बच्चों की देखभाल इन सब जिम्मेदारियों में पिसी जा रही थी । शुरुआत में उसे यह सब अच्छा लगता था परंतु उसे कोई सराहना या प्रोत्साहन नहीं मिलता अपितु उसके कामों में गलती निकलना सबकी आदत हो गई थी । कोल्हू के बैल की तरह दिन भर जुटे रहने के बाद भी उसे अपना जीवन अस्तित्वहीन लगने लगा था । पढ़ी - लिखी तो थी ही , उसे शासकीय स्कूल में व्याख्याता की नौकरी मिल गई थी जहाँ उसके परिश्रम  की प्रशंसा हुई और उसे आत्मविश्वास और संतुष्टि मिली । उसने अपना खोया वजूद पा लिया था ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग ,छत्तीसगढ़

Sunday, 5 July 2020

सजल

सजल
समां त - अह
पदांत - जाती
मात्राभार - 26
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अपने बच्चे की खातिर माँ सब दुःख सह जाती 
     पीड़ा  मत हो बच्चे को सोचकर चुप रह जाती 

आँखों में बाँधे रखती है लड़ियाँ  पीड़ा  की
   स्नेहमयी निर्झरिणी वह सुख - दुःख में बह जाती

बाधाओं के आगे अड़ जाती पर्वत बन
    अंतस जब चोटिल हो कच्ची दीवार* ढह जाती 

वात्सल्य भाव से भरी हुई छलकती गागर है
    होठों ने जो नहीं कहा आँखे सब कह जाती

एक ताबीज में भर देती है अपनी दुआएँ
     स्वर्ग  बन जाती वह धरती माँ जिस जगह जाती
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स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़
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Friday, 3 July 2020

पाती पिया के नाम

सुनो...
            बाबुल  का  आँगन  छोड़कर  पिया के घर आने तक न जाने कितने विचार बदली की तरह मन के आसमान में उमड़ - घुमड़ रहे थे । चौबीस वर्ष
   तुम्हारे खूबसूरत साथ ने जीवन के इस सफर को  भी खूबसूरत  और आसान बना दिया है । मुझे वो सब मिला जिसकी मैंने आरजू की थी और वो भी मिला जो मैंने सपने में भी नहीं सोचा था । प्यार  और खुशियों  से भरपूर घर - संसार ...मेरा भरपूर ख्याल रखने वाले पति और बच्चे... मैं आज अपने जीवन से  पूर्णरूपेण सन्तुष्ट  हूँ... कहीं कोई असंतोष  या दुविधा नहीं है । हाँ.. तुम्हें शायद यह गलतफहमी है कि मैं सन्तुष्ट नहीं । मैं बहुत शिकायतें करती  रहती हूँ पर वह ऊपरी ही हैं...अंतर्मन की गहराई में बैठने वाली नहीं हैं । वो शिकायतें करके मैं भूल भी जाती हूँ उन्हें  तुम  भी दिल में मत रखा करो । अक्सर कई बातों के लिए तुम मुझे चिढ़ाते रहते हो...और मैं चिढ़ जाया करती हूँ , छोटी - छोटी बातों पर । मैं चाहूं तो अपनी यह आदत सुधार सकती हूँ... पर जान - बूझकर नहीं सुधारती क्योंकि मुझे अच्छा लगता है   तुम्हारा चिढाना...तुमसे अटेंशन पाना । मैं चिढ़ना बंद कर दूँगी तो तुम चिढाना बंद कर दोगे..न कोई छेड़छाड़ होगी और न रूठना -  मनाना । बिना रूठे - मनाये दुनिया बेरंग लगने लगेगी न !   गृहस्थ जीवन  को चटपटा और मजेदार  बनाने के लिए यह सब जरूरी है  है ना । तुम क्या सोचते हो   बताना ।

तुम्हारी ही ❤️

वक्त

सूरज संग उगता व ढलता रहा ,
जिंदगी के हर दौर में  ,
वक्त साथ चलता रहा ।
तन्हाई कभी महफ़िल ,
दर - बदर भटकता रहा ।
बुरे - भले वक्त में ,
इंसान रंग बदलता रहा ।
अपने  और पराये की ,
पहचान कराता रहा ।
सही और गलत का ,
फर्क समझाता रहा ।
जिंदगी की  राह  में ,
साथी बदलता  रहा ।
रुक गया कारवां ,
वक्त साथ चलता रहा ।

दीक्षा

ग़ज़ल


मन में जीने की आस रहे ,
रिश्तों में  यदि विश्वास रहे ।

लेते हैं दिलों को जीत वे ,
वाणी में जिनकी मिठास रहे ।

मिलेगी मंजिल  निश्चित ही ,
 गर कुछ पाने की प्यास रहे ।

जिंदा होने का प्रमाण है ,
दिल में बाकी अहसास रहे ।

वसुधा  है उसका कुटुंब जिसे ,
पर पीड़ा का आभास रहे ।

कुछ खास  जगत में कर जाये ,
जीवित उसका इतिहास रहे ।

"दीक्षा " दृष्टि यही ढूँढ रही  ,
दिल में प्यार का उजास रहे ।


स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

समय की रेत

 पीछे मुड़कर देखो तो याद आता बचपन ,
सुनहरे कल के आगमन की चाहत में मन ,
ख्वाबों के ताबीर की हसरत को बढ़ाती  है ।
समय  की रेत मुठ्ठी से फिसलती जाती है ।।

अरमानों की सीढ़ियाँ चढ़ता रहा  यह तन ,
अनजानी राहों से भ्रमित, विस्मित  यौवन ,
मंजिल ए जिंदगी अपनी ओर बुलाती  है ।
समय की रेत मुठ्ठी से फिसलती जाती है ।।

गुलों के संग खार भी देता है यह गुलशन  ,
जिंदगी की राहों में  आते कई उलझन ,
सुरसा सी लालसा निज मुख फैलाती है ।
समय की रेत मुठ्ठी से फिसलती जाती है ।।

पतझड़  और बहार से गुजरता उपवन ,
सुख - दुःख के हिंडोले में झूलता जीवन ,
जिंदगी हर दिन एक नया सबक सिखाती है ।
समय की रेत मुठ्ठी से फिसलती जाती है ।।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़





ग़ज़ल

आँखों  ने चाहत का इज़हार कर दिया ,
पलकें झुकाकर प्यार का इकरार कर लिया ।

कुछ तो हुई होगी हलचल उनके सीने में ,
कातिल अदा ने सीधे दिल पर वार कर दिया ।

चोरी - छिपे हम पर नज़र रखते हैं वो ,
उन चुराती नज़रों से हमने प्यार कर लिया ।

इज़हारे मोहब्बत से इनकार है उनको  ,
उनकी कशमकश हमने स्वीकार कर लिया ।

मंजूर नहीं हार कर अब पीछे मुड़ जाना ,
वफ़ा की राह में जीना दुश्वार कर लिया ।

उथली नदी नहीं दिल गहरा समंदर है ,
ताकयामत प्यार का इंतजार कर लिया ।

पाने को ही प्यार कहते नहीं " दीक्षा ",
एहसास कर जिंदगी गुलज़ार कर लिया ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़


गजल

दिल पर लिखा नाम रोज पढता हूँ मैं ,
रेत की देह पर  पर किले गढ़ता हूँ मैं ।

तू आये न आये तेरी खुशबू आ गई ,
संग होने के खयाल से महकता हूँ मैं ।

चलते- चलते मुझे तेरे दुपट्टे ने छू लिया ,
 शबाब के इंतखाब से बहकता हूँ  मैं ।

तुझे छूकर जो हवा घुल गई है साँसों में ,
बाहों में लेने के एहसास से मचलता हूँ मैं ।

खुद को जला दुनिया में उजाला करने ,
तेरे इश्क की आँच में पिघलता हूँ मैं ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़






ग़ज़ल

विधाता ने जो जख्म  दिया पी गई मैं ,
तेरे  प्यार  और दुआ  से  जी गई मैं ।

बन्द आँखों से तुझे महसूस कर लिया ,
 प्रेम के धागों से ये  घाव सी गई मैं ।

इक आस है जो दौड़ रही इन रगों में ,
हादसों के द्वारा  अक्सर  छली गई मैं ।

 ठोकर लगी जब मुझे सम्भाला  तुमने ,
इन बाँहों के  सहारे  चलती गई  मैं ।

सूख रही  थी जिंदगी गर्दिशे दौर में ,
इस प्यार की बारिश से सींची गई मैं ।

यह प्यार ही है जो लड़ जाता मौत से ,
विश्वास की  ये सीढ़ियां चढ़ती गई मैं ।

महफ़ूज है ज़िंदगी तेरी  पनाह  में ,
'दीक्षा' यह  सोच मौत से लड़ती गई मैं ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग ,छत्तीसगढ़








चलचित्र काव्य सृजन - 01
तिथि - 19/06/2020
वार - शुक्रवार
******************************
जो जख्म विधाता ने  दिया पीती गई मैं ,
तेरे  प्यार  और दुआ  से  जीती गई मैं ।

आँखें बंद कर महसूस कर लिया तुझे ,
 प्रेम के धागों से ये  घाव सीती गई मैं ।

इक आस है जो दौड़ रही इन रगों में ,
हादसों के द्वारा  अक्सर  छलती गई मैं ।

 ठोकर लगी जब मुझे सम्भाला  तुमने ,
तेरी बाँहों के  सहारे  चलती गई  मैं ।

सूख रही  थी जिंदगी गर्दिशे दौर में ,
इस प्यार की बारिश से सींचती गई मैं ।

यह प्यार ही है जो लड़ जाता मौत से ,
विश्वास की  ये सीढ़ियां चढ़ती गई मैं ।

महफ़ूज है ज़िंदगी तेरी  पनाहों  में ,
'दीक्षा' यह  सोच मौत से लड़ती गई मैं ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग ,छत्तीसगढ़














कविता

कविता 
*********
यूँ ही नहीं बनती कविता ,
किसी के चाहने से...
शब्द खामोश हो जाते हैं ,
विचार  नजरों से ओझल ...
दिमाग कर देता है सोचने से इंकार ,
कलम पर जोर चलता न किसी का
यूँ ही नहीं  बिकती कविता ।

जब किसी का दुःख  दर्द ....
कर देता है आँखें नम ,
या किसी की बातों से 
आहत हो जाता मन...
छत से सीपते जल की तरह
दरके हुए हृदय से ,
अपने - आप कागज पर..
चू जाती है कविता ।

एक मासूम सी बच्ची जब,
फेंक दी जाती है झाड़ियों में...
झकझोर जाती सम्वेदना को ,
वेदना ढल जाते हैं शब्दों में ….
असहनीय पीड़ा के अश्कों से
भीग जाती है कविता ।

झूठ बिकता बाजारों में ,
सच्चाई , ईमानदारी चिल्लाती है ...
भूख , बेबसी और लाचारी में
जब एक औरत बिक जाती है...
चीखती है कलम और 
तब रो पड़ती है कविता ।

धर्म , जाति के नाम पर ,
करते हैं हत्या , लूटपाट ...
स्वार्थ और धन लोलुपतावश ,
 भूले मानवता की बाट...
इंसान होने की दुहाई ,
दे जाती है कविता ।

सत्ताधीशों के चरणों में ,
कलुषित राजनीति  मिमियाती है ...
क्रांति का शंखनाद कर ,
मुखर हो आक्रोशित  हो जाती है...
जन - मन के स्वरों में ,
 फूट पड़ती है  कविता ।

कह नहीं पाती दिल का दर्द ,
बर्फ सा जमा  कुछ भीतर ही...
हो व्यथित कुलबुलाती ,
सुप्त ज्वालमुखी की लावा सी...
अभिव्यक्ति की बाट जोहती ,
अंतस में टूट जाती है कविता ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़



भोर ( गीत 7 )

 अलसाये  बादल लगते हैं ,
 शिथिल सी उषा रानी है ।
 छींटे शबनम शीतल झोंके ,
 तृण के मुख पर पानी है  ।
यह भोर बड़ी सुहानी है ।।

कलियों की मादक  खुशबू  से ,
लता हुई दीवानी है ।
पेड़ों  को कर के आलिंगन ,
चली  राह अनजानी है ।
यह भोर बड़ी सुहानी है ।।

नन्हें  रवि की बोझिल पलकें ,
चूनर धरा की  धानी है ।
कगार पर सोये क्षितिज ने ,
नीली चादर तानी है ।
यह भोर बड़ी सुहानी है ।।

कलरव कर रहे खगवृन्द ने ,
 कही अपनी कहानी है ।
घूँघट खोले जब कलियों ने 
 एहसास यह रूहानी है ।
यह भोर बड़ी सुहानी है ।।

सूखे  पीले पत्ते छोड़े ,
पल्लव नई उगानी है ।
जगती के उठने से पहले ,
 रंगोली बिखरानी  है ।
यह भोर बड़ी सुहानी है ।।

पत्तों के झुरमुट में छिपकर ,
कूकी कोयल मस्तानी है ।
नया - नया कर देती हर दिन ,
वसुधा बड़ी सयानी है ।
यह भोर बड़ी सुहानी है ।।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

A chat story

A chat story
 "सुनो "
" कहो "
" अब हमारे बीच कोई नहीं आयेगा "
" हाँ , बिल्कुल "
" फिर तुम्हारी माँ क्यों बीच में आ जाती है हर बार "
" क्योंकि माँ ' कोई ' नहीं है

 " मेरी हो या तुम्हारी माँ को माँ ही रहने दो ' कोई ' मत बनाओ "❤️❤️
डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

स्वाभिमान ( लघुकथा )

  स्वाभिमान (लघुकथा)
   "   सुधा तुम अब तक तैयार नहीं हुई , हमें डॉक्टर के पास जाना है न ! " सुधा के पति सुनील ने ऑफिस से आते ही आवाज लगाई । " हाँ मैं तैयार हूँ सुनील , पर डॉक्टर के पास जाने के लिए नहीं , तुम्हें छोड़ने के लिए । बस , अब और नहीं ...पिछली बार जो कुछ भी हुआ मुझे धोखे में रखकर हुआ । अब इस बार मैं न तो अपना लिङ्ग परीक्षण कराऊँगी और न ही बेटी होने पर उसे मारने दूँगी ।" सुधा के तेवर देखकर सुनील सकते में आ गया था ,आगे कुछ भी कहने की उसकी हिम्मत नहीं हुई । अपने साहस के द्वारा सुधा ने एक स्त्री के स्वाभिमान की रक्षा कर ली थी ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

नेह की डोर

 मन में अपने विश्वास रखना ,
पत्थर में भी  फूल खिलेंगे ।
नेह की डोर थामे रखना ,
प्रियजन तुझे जरूर मिलेंगे ।।

राह के काँटे चुन लेना ,
साथी तेरे साथ चलेंगे ।
दामन अपना पाक रखना ,
लांछन के छीटें न उड़ेंगे ।।

उपवन से फूल ले लेना ,
घर आँगन महकाते रहेंगे ।
नदियों से तुम नीर लेना ,
जीवन सरस बनाते रहेंगे ।।

तारों से मुस्कान ले लेना ,
खुशियों का उजास भर देंगे ।
निर्झर सा निश्छल हो जाना ,
जीवन पथ पावन कर देंगे ।।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़





मेरी अमरकंटक यात्रा ( संस्मरण )

        मेरी अमरकंटक यात्रा
मध्यप्रदेश के हृदयांचल में स्थित अमरकंटक यूँ तो कई बार जाना हुआ पर शायद अब भी जाने का अवसर मिले तो मैं ना नहीं कह पाऊँगी । नैसर्गिक सौंदर्य से भरपूर अमरकंटक के बड़े - बड़े शिखर मानो अपनी बाहें फैलाकर आमंत्रित करते हों । पेंड्रारोड़ से अमरकंटक का रास्ता सघन वन प्रान्त से होकर जाता है ।हरे - भरे वनों के बीच से गुजरना  मन को स्निग्ध ,शीतल एहसास से भर देता है । अपने आसपास घूमते बादल सरई , साल के ऊँचे - ऊँचे पेड़ों की शाखों पर रुककर बातें करते प्रतीत होते हैं । रुई के फाहों से नाजुक बादल पत्तों , वस्तुओं के साथ मन को भी भिगोते चलते हैं । विंध्य और सतपुड़ा पर्वत का मिलन यहाँ होता है जो मेकल पर्वत कहलाता है । मेकल पर्वत की अँजुरी से नर्मदा नदी का पावन जल  बहता है और हरियाली से ओत प्रोत करता है ।
      यह सोन नद  की भी जन्मस्थली है जो सोनमुडा से निकलकर पूर्व में चला जाता है । नर्मदा के ग्यारहकुंडीय उद्गम स्थल के पास बहुत सारे छोटे मंदिर बने हुए हैं । यहाँ अमरेश्वर शिव का मंदिर है जिसके कंठ से नर्मदा निकलकर कुंड में गिरती है । माई की बगिया ऋषि मार्कण्डेय की तपोभूमि भी एक पवित्र और मनोरम स्थल है जो गुलबकावली के फूलों के लिए प्रसिद्ध था ।  कपिलधारा और दुग्ध धारा जल प्रपात का अनुपम सौंदर्य मनमोहक है । यहाँ भीगे बिना निकलने का मन ही नहीं करता । पहाड़ों, हरे वनों के बीच कल्लोलिनी नर्मदा मानो हाथ पकड़कर अपने करीब बिठा लेती है  और  कुछ देर और रुकने का मनुहार करती है । बिना बुलाये मेहमान की तरह बारिश यहाँ कब आ जाये कुछ कह नहीं सकते पर यह आकर अमरकंटक के सौंदर्य को द्विगुणित कर देती है । अपनी आँखों से इस नयनाभिराम दृश्य को हृदय में सँजो कर मैं लौट आई पर अब भी उस नैसर्गिक सौंदर्य के दर्शन की प्यास अधूरी ही लगती है ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग ,छत्तीसगढ़

कुमायूं डायरी

दुर्ग से 31 मई  को सुबह सात बजे हम लोग दुर्ग - हजरत निजामुद्दीन हमसफ़र एक्सप्रेस में बैठे और  1 जून सुबह 4.30 बजे हजरत निजामुद्दीन स्टेशन में उतरे । हल्दवानी के लिए हमारी ट्रेन नई दिल्ली स्टेशन  से थी तो तुरंत ही हमें टैक्सी के द्वारा वहाँ जाना पड़ा । सुबह साढ़े पाँच बजे ही दिल्ली के ट्रैफिक जाम का सामना स्टेशन पर करना पड़ा और स्टेशन से कुछ दूर पहले ही  टैक्सी छोड़कर अपना सामान लेकर हम पैदल ही चल पड़े ।नई दिल्ली से  सुबह छः बजे हम शताब्दी एक्सप्रेस में  हल्दवानी के लिए निकल पड़े । ट्रेन में नाश्ता, चाय ,कोल्ड ड्रिंक्स वगैरह के द्वारा शानदार मेहमानवाजी की गई ।  सुबह साढ़े दस बजे हम लाल कुंआ स्टेशन में उतरे । वहाँ हमारे परिचित गिरीश जी हमें लेने आये थे ।  उनके परिवार के  साथ बिताया वह एक दिन उनकी मेहमानवाजी के नाम रहा । उन्होंने बहुत ही खुशी के साथ हमारा स्वागत सत्कार किया । हमारी ननद गीता ने एक दिन में ही पहाड़ की सारी खूबियों से हमारा परिचय करा दिया । वहाँ के फल खुबानी , आड़ू , आम ,वहाँ की स्पेशल दाल व खाना का आनंद लिया हमने । पहाड़ों का सौंदर्य दर्शन करने से पहले हमने वहाँ के लोगों के खूबसूरत दिलों  का सौंदर्य दर्शन किया जो अपनेपन और प्यार से लबरेज़ था । वो ही  नहीं उनका पूरा परिवार हमसे बड़ी प्रसन्नता से मिला मानों हम कब से परिचित हों । उन चेहरों में कोई अजनबियत नहीं थी बल्कि मिलने की ललक थी , ढेर सारा लगाव था । शाम को हम गीता की बड़ी बहन उमा दीदी के घर गये जहाँ से हम खाना खाकर  स्नेहाभिभूत होकर वापस लौटे । गिरीश जी ने न सिर्फ  हमारे लिए टैक्सी की व्यवस्था कर दी थी , बल्कि पूरी यात्रा की योजना बना दी थी कि हमें क्या क्या देखना है , किस रूट  से जाना है इत्यादि क्योंकि वे वहीं के रहने वाले हैं सारे महत्वपूर्ण दर्शनीय स्थलों की सूची उन्होंने हमें दे दी थी । चूँकि यह बहुत भीड़ वाला सीजन था तो उन्होंने सभी जगह होटल भी बुक कर दिया था । इससे बड़ी सुविधा और क्या चाहिए, हम निश्चिंत होकर यात्रा पर निकल पड़े । दो जून की सुबह गीता के हाथों की बनी स्वादिष्ट पूरी सब्जी खाकर हम हल्दवानी से पहाड़ों के लिए निकले और हमारी रोमांचक यात्रा प्रारंभ हुई ।
        
      हल्दवानी से कुछ दूर आगे बढ़ने के साथ ही पहाड़ों के दर्शन प्रारंभ हो गये.. हरे - भरे पेड़ों युक्त ऊँचे - ऊँचे पहाड़ मानो आसमान से बातें कर रहे हों । सर्पिलाकार सड़कों और उनके कई खतरनाक मोड़  को देख कर हम सांस रोक लेते थे कि अब क्या होगा लेकिन ड्राइवर किसी कुशल मदारी की तरह आसानी से उन स्थितियों से गाड़ी बाहर निकाल ले जाते थे । प्रकृति की खूबसूरती यहाँ वहाँ छिटकी पड़ी थी जो आँखों को बाँध लेती थी । एक तरफ ऊँचे पहाड़ तो दूसरी ओर गहरी खाई ...जिंदगी के उतार - चढ़ाव का सच बयान करते नजर आ रहे थे । पहाड़ों के साथ चलती चौड़ी पहाड़ी नदी दृश्यों को मनोरम बना रही थी । स्थानीय ड्राइवर के द्वारा अनेक पहाड़ी फलों व पेड़ों के बारे में हमें ढेर सारी जानकारी मिली । काफल तोड़ कर खाये जो छोटे बेर की तरह दिखते थे पर रसदार थे । नासपाती के पेड़ की हरेक शाखाओं को छोटे - छोटे फलों से लदा हुआ देखना सुन्दर अनुभव रहा..काश ! ये थोड़े और बड़े होते तो अपने हाथों से तोड़कर इन्हें खाना और भी मजेदार होता । हरे - हरे आड़ू के फल छोटे पेड़ों पर फले हुए थे  । तरह - तरह के पहाड़ी फूल पहाड़ों के सौंदर्य में वृद्धि कर रहे थे ,  साथ ही समीर की शीतलता चेहरे के साथ मन को भी  स्निग्ध किये जा रही थी । खूबसूरत नजारों ने आँखों को बाँध सा लिया था और हम मंत्रमुग्ध हो यहाँ-  वहाँ नजरें फिराते रहे ।
        रानीखेत के रास्ते में पड़ा भवाली जहाँ अंग्रेजों के जमाने का बना  हुआ  एक T. B. Sanitorium  मिला
क्योंकि यहाँ चीड़ों के घने जंगल हैं । कहा जाता है कि चीड़ के फूलों की खुशबू से टी. बी. के मरीज अपने आप ठीक हो जाते थे । मुझे लगता है आधी बीमारी तो यहाँ की खूबसूरती व
मनभावन दृश्य को देखकर ही दूर हो जाती होगी ।
चीड़ के ऊँचे पेड़ मानो आसमान में  झाँकने का प्रयास कर रहे हों , उनके साथ बादल भी लुकाछिपी का खेल खेल रहे थे । कभी बगल में , कभी ऊपर तो कभी उनसे गलबहियाँ लगते हुए  ...घुमावदार रास्तों , घाटियों के बीच कैंचीधाम मंदिर पड़ा जो नीमकरौरी बाबा का समाधिस्थल है । नदी पर बने पुल के उस पार यह स्थल अत्यंत आकर्षक व मनोरम है और लोगों की आस्था का प्रतीक है ।  उनकी मूर्ति जीवंत सी लग रही थी ।  रास्ते में नदी पर बने लौह ब्रिज  पर जाकर नदी व पहाड़ का विहंगम  दृश्य  देखनाा अद्भुत था । यहाँ पर  एडवेंचर के प्रेेमी

 के लिये नदी के आर - पार तार बाँध कर उन्हें स्लाइड कराया जा रहा था ।     
           

कुमायूँ डायरी 2

रानीखेत पहुँचते ही देवी माँ का भव्य झूला देवी मंदिर दिखाई दिया जहाँ हजारों की संख्या में लोगों ने मन्नत की घण्टियाँ बाँध रखी थीं ।देवी दर्शन कर  हम रानीखेत के नयनाभिराम सौंदर्य का रसपान करने निकल पड़े । पहाड़ की सुदूर चोटी पर विशाल पठार की उपलब्धता  उस सृष्टिकर्ता की कला पर मानव को चकित कर देता है । इस मैदान को गोल्फ मैदान बना दिया गया है । रानीखेत के पास सेना का  एक रेजीमेंट है , उनके द्वारा इस मैदान का नियमित उपयोग होने के बारे में जानकारी हुई । समीप ही अंग्रेजों के जमाने का थियेटर बना हुआ था जिसका मनोरंजन के लिए उपयोग होता था ।
वहाँ पर एक बड़ा संग्रहालय है जहाँ कुमायूँ रेजीमेंट का इतिहास , हथियारों , तोप वगैरह को बहुत सम्भाल कर रखा गया है । लाइट साउंड शो के द्वारा वहाँ लड़ी लड़ाइयाँ तथा इतिहास के बारे में बहुत सुंदर जानकारी दी जाती है । ऊँचे - ऊँचे चीड़ के वनों के बीच झाँकता आसमान अद्भुत छटा बिखेर रहा था । जानकारी हुई कि चीड़ के फूलों की सुगंध से टी. बी.के मरीज अपने - आप ठीक हो जाते हैं । प्रकृति के अनुपम सौंदर्य को आँखों और  तस्वीरों में भर कर भी मन नहीं भर रहा था । ठंड के समय यहाँ बर्फ पड़ी रहती है तब ढेर सारे सैलानी यहाँ स्केटिंग के लिए आते हैं । मन तो वहीं रुक जाने का कर रहा था पर हमें अपने अगले पड़ाव कौशानी   के लिए निकलना था अतः अपने मन को समझा कर आगे बढ़े । लगभग पाँच छः घण्टे लगातार सफर कर शाम के धुंधलके में हम कौशानी पहुँचे । वहाँ पहुँचते ही बारिश की बूंदों ने हमारा स्वागत किया । यहाँ से हिमालय की अधिकतम चोटियों के एक साथ दर्शन होते हैं , वह दृश्ग बहुत ही अद्भुत , मनोरम होता है । इस दुर्लभ नैसर्गिक सौंदर्य को देखने के लिए ही लोग यहाँ आते हैं । यहाँ के लगभग सभी होटल ऊँचाई पर बने हुए हैं ताकि अपने कमरे की बालकनी से ही वह अद्भुत नजारा देख सकें । अस्ताचलगामी सूर्य की किरणें जब इन बर्फीली चोटियों पर पड़ती हैं तो वह बचपन में पढ़े सोने के पहाड़ों वाली कहानियाँ याद दिला जाती हैं । रुपहले बादलों , हल्की बारिश के बीच धुंधली सी दिखती बर्फीली चोटियों को देखकर हम मंत्रमुग्ध हो गए थे । बारिश और बदली के कारण अधिक चोटियाँ ( पीछे की ) नहीं देख पाए पर  इंटरनेट द्वारा प्राप्त जानकारी और देखे गए दृश्यों को मन में बसाते हुए उस पूरे सौंदर्य का अनुमान तो कर ही लिया कि जब बादल न हों तो कैसा अद्भुत विहंगम दृश्य रहता होगा । दूसरे दिन की भोर में उठकर हम अपनी खिड़कियों, बॉलकनी में खड़े हो गए थे ताकि कौशानी के अनुपम सौंदर्य को अपने चित्त में भर सकें । बिल्कुल नाउम्मीद तो नहीं हुए  , बहुत सारे मनमोहक दृश्य भिन्न - भिन्न आकार बनाते हुए दिखाई पड़े ।  पहाड़ों के मौसन के बारे में कोई भविष्यवाणी नहीं कर सकता , कभी भी बारिश और कभी भी आसमान साफ , परन्तु प्रकृति का हर रूप मनभावन होता है । तरह - तरह के फूलों व फलों से भरपूर पहाडों के हर रूप में जीवन खिल उठता है । पहाड़ों के बीच सूर्यदेव को उगते और डूबते देखने का अलग ही आनन्द है , ऐसा लगता है कि हम उनके अधिक करीब आ गए हैं । बादल सहचर बन हमारे आस - पास क्रीड़ा करते रहते हैं और कभी हाथों , गालों को भी सहला कर अपना एहसास दिला जाते हैं । पहाड़ों के ऊपर रुई के फाहे रख दिये हों किसी ने , चोटियों पर ठहरे बादल कुछ ऐसा ही दृश्य सृजित करते हैं । जगह - जगह फूटते झरने , चाय के बागानों व नाशपाती के छोटे - छोटे फलों से लदे पेड़ों को छूना भी एक नया अनुभव था । उत्तराखंड के पहाड़ों का हर पड़ाव अपने विशेष नैसर्गिक सौंदर्य के कारण हृदय में एक स्थायी ,अविस्मरणीय यादें सँजोता जा रहा था ।
क्रमशः
डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

मर्यादा ( लघुकथा )

पिता अपनी नव - विवाहिता बेटी शुभा से मिलने एक दिन अचानक पहुँच गए थे । साड़ी के आँचल से लगभग पूरे चेहरे को ढकी शुभा बाहर आई । यह क्या ? जिस बेटी को बाईस वर्ष अपने घर - आँगन में फूल की तरह सँवार कर रखा ,वह कुम्हला सी गई थी । "बिटिया ! सच बताओ , तुम खुश तो हो यहाँ ? "  " जी पापा ! सब ठीक है , कहते हुए शुभा चाय देने झुकी तो पीठ और गले पर खरोंच का निशान देख लिया था
उन्होंने । पिता की आँखें तो बेटी के मन के घाव पढ़ लेती हैं ,यह चोट तो ऊपर से ही दिख रहा था ।
         " बिटिया ! मैं जानता हूँ ससुराल व रिश्तों की मर्यादा तुम्हें सच कहने से रोक रही है पर तुम्हारे पति सुयश ने मनुष्य होने की मर्यादा भंग कर दी है इसलिए अब तुम्हें कोई और रस्म निभाने की आवश्यकता नहीं है । चलो बेटा , तुम अपने घर चलो ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

मद्धिम आँच ( लघुकथा )

आज सुबह से आँचल महसूस कर रही थी कि सासु माँ कुछ नाराज सी लग रही हैं । पति आशीष की ओर देखकर इशारों में पूछा - "बात क्या है ?" प्रत्युत्तर में उसने भी कंधे उचका दिये शायद इस बार उन्हें माँ से मिलने आने में देर हो गई थी । आँचल ने बात शुरू की  -  " मम्मी जी आपके हाथों के बड़े कितने अच्छे लगते हैं , मैंने बनाये थे तो कच्चे- कच्चे से  लगे "।  " अरे , तूने तेज आँच में जल्दी - जल्दी सेंक दिया होगा । चल आज दाल भिगा , तुझे बड़े बनाना सिखाती हूँ । " और शाम को  आशीष सास - बहू दोनों  को बातें करते हुए देख रहा था .....चूल्हे की मद्धिम आँच पर बड़े सिंक रहे थे , स्नेह और आदर की मद्धिम आँच में रिश्ते भी .. ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

सजल 18

समांत - आरे
पदांत -  ×
मात्रा भार - 16
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आकर बरसो बादर कारे
सूखी धरा तुम्हें पुकारे
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कोठी हुई खाली अन्न की
कृषक साथी बाट निहारे
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भीग गई यह श्यामल वसुधा
झूमी सृष्टि नीर बरसा रे
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सुवर्णमयी धान की बाली
धानी रंग रंगे नजारे
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आई  खुशी फसलों के संग
मस्ती में खिले लोग सारे
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अंधेरों से डरकर न बैठ
राह दिखाने आये तारे
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स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

मुक्तक

मौसम आया सावन का , तन - मन को भिगा लो ।
इस सूखी बंजर धरती को , हरा - भरा बना लो ।
महकेगी घर - आँगन में सुख - संतोष की बेल_
प्रेम से सिंचित करो मन , बीज नेह के डालो ।।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़