Friday, 3 July 2020

मर्यादा ( लघुकथा )

पिता अपनी नव - विवाहिता बेटी शुभा से मिलने एक दिन अचानक पहुँच गए थे । साड़ी के आँचल से लगभग पूरे चेहरे को ढकी शुभा बाहर आई । यह क्या ? जिस बेटी को बाईस वर्ष अपने घर - आँगन में फूल की तरह सँवार कर रखा ,वह कुम्हला सी गई थी । "बिटिया ! सच बताओ , तुम खुश तो हो यहाँ ? "  " जी पापा ! सब ठीक है , कहते हुए शुभा चाय देने झुकी तो पीठ और गले पर खरोंच का निशान देख लिया था
उन्होंने । पिता की आँखें तो बेटी के मन के घाव पढ़ लेती हैं ,यह चोट तो ऊपर से ही दिख रहा था ।
         " बिटिया ! मैं जानता हूँ ससुराल व रिश्तों की मर्यादा तुम्हें सच कहने से रोक रही है पर तुम्हारे पति सुयश ने मनुष्य होने की मर्यादा भंग कर दी है इसलिए अब तुम्हें कोई और रस्म निभाने की आवश्यकता नहीं है । चलो बेटा , तुम अपने घर चलो ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

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