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यूँ ही नहीं बनती कविता ,
किसी के चाहने से...
शब्द खामोश हो जाते हैं ,
विचार नजरों से ओझल ...
दिमाग कर देता है सोचने से इंकार ,
कलम पर जोर चलता न किसी का
यूँ ही नहीं बिकती कविता ।
जब किसी का दुःख दर्द ....
कर देता है आँखें नम ,
या किसी की बातों से
आहत हो जाता मन...
छत से सीपते जल की तरह
दरके हुए हृदय से ,
अपने - आप कागज पर..
चू जाती है कविता ।
एक मासूम सी बच्ची जब,
फेंक दी जाती है झाड़ियों में...
झकझोर जाती सम्वेदना को ,
वेदना ढल जाते हैं शब्दों में ….
असहनीय पीड़ा के अश्कों से
भीग जाती है कविता ।
झूठ बिकता बाजारों में ,
सच्चाई , ईमानदारी चिल्लाती है ...
भूख , बेबसी और लाचारी में
जब एक औरत बिक जाती है...
चीखती है कलम और
तब रो पड़ती है कविता ।
धर्म , जाति के नाम पर ,
करते हैं हत्या , लूटपाट ...
स्वार्थ और धन लोलुपतावश ,
भूले मानवता की बाट...
इंसान होने की दुहाई ,
दे जाती है कविता ।
सत्ताधीशों के चरणों में ,
कलुषित राजनीति मिमियाती है ...
क्रांति का शंखनाद कर ,
मुखर हो आक्रोशित हो जाती है...
जन - मन के स्वरों में ,
फूट पड़ती है कविता ।
कह नहीं पाती दिल का दर्द ,
बर्फ सा जमा कुछ भीतर ही...
हो व्यथित कुलबुलाती ,
सुप्त ज्वालमुखी की लावा सी...
अभिव्यक्ति की बाट जोहती ,
अंतस में टूट जाती है कविता ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़
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