रेत की देह पर पर किले गढ़ता हूँ मैं ।
तू आये न आये तेरी खुशबू आ गई ,
संग होने के खयाल से महकता हूँ मैं ।
चलते- चलते मुझे तेरे दुपट्टे ने छू लिया ,
शबाब के इंतखाब से बहकता हूँ मैं ।
तुझे छूकर जो हवा घुल गई है साँसों में ,
बाहों में लेने के एहसास से मचलता हूँ मैं ।
खुद को जला दुनिया में उजाला करने ,
तेरे इश्क की आँच में पिघलता हूँ मैं ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़
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