सुनहरे कल के आगमन की चाहत में मन ,
ख्वाबों के ताबीर की हसरत को बढ़ाती है ।
समय की रेत मुठ्ठी से फिसलती जाती है ।।
अरमानों की सीढ़ियाँ चढ़ता रहा यह तन ,
अनजानी राहों से भ्रमित, विस्मित यौवन ,
मंजिल ए जिंदगी अपनी ओर बुलाती है ।
समय की रेत मुठ्ठी से फिसलती जाती है ।।
गुलों के संग खार भी देता है यह गुलशन ,
जिंदगी की राहों में आते कई उलझन ,
सुरसा सी लालसा निज मुख फैलाती है ।
समय की रेत मुठ्ठी से फिसलती जाती है ।।
पतझड़ और बहार से गुजरता उपवन ,
सुख - दुःख के हिंडोले में झूलता जीवन ,
जिंदगी हर दिन एक नया सबक सिखाती है ।
समय की रेत मुठ्ठी से फिसलती जाती है ।।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़
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