वहाँ पर एक बड़ा संग्रहालय है जहाँ कुमायूँ रेजीमेंट का इतिहास , हथियारों , तोप वगैरह को बहुत सम्भाल कर रखा गया है । लाइट साउंड शो के द्वारा वहाँ लड़ी लड़ाइयाँ तथा इतिहास के बारे में बहुत सुंदर जानकारी दी जाती है । ऊँचे - ऊँचे चीड़ के वनों के बीच झाँकता आसमान अद्भुत छटा बिखेर रहा था । जानकारी हुई कि चीड़ के फूलों की सुगंध से टी. बी.के मरीज अपने - आप ठीक हो जाते हैं । प्रकृति के अनुपम सौंदर्य को आँखों और तस्वीरों में भर कर भी मन नहीं भर रहा था । ठंड के समय यहाँ बर्फ पड़ी रहती है तब ढेर सारे सैलानी यहाँ स्केटिंग के लिए आते हैं । मन तो वहीं रुक जाने का कर रहा था पर हमें अपने अगले पड़ाव कौशानी के लिए निकलना था अतः अपने मन को समझा कर आगे बढ़े । लगभग पाँच छः घण्टे लगातार सफर कर शाम के धुंधलके में हम कौशानी पहुँचे । वहाँ पहुँचते ही बारिश की बूंदों ने हमारा स्वागत किया । यहाँ से हिमालय की अधिकतम चोटियों के एक साथ दर्शन होते हैं , वह दृश्ग बहुत ही अद्भुत , मनोरम होता है । इस दुर्लभ नैसर्गिक सौंदर्य को देखने के लिए ही लोग यहाँ आते हैं । यहाँ के लगभग सभी होटल ऊँचाई पर बने हुए हैं ताकि अपने कमरे की बालकनी से ही वह अद्भुत नजारा देख सकें । अस्ताचलगामी सूर्य की किरणें जब इन बर्फीली चोटियों पर पड़ती हैं तो वह बचपन में पढ़े सोने के पहाड़ों वाली कहानियाँ याद दिला जाती हैं । रुपहले बादलों , हल्की बारिश के बीच धुंधली सी दिखती बर्फीली चोटियों को देखकर हम मंत्रमुग्ध हो गए थे । बारिश और बदली के कारण अधिक चोटियाँ ( पीछे की ) नहीं देख पाए पर इंटरनेट द्वारा प्राप्त जानकारी और देखे गए दृश्यों को मन में बसाते हुए उस पूरे सौंदर्य का अनुमान तो कर ही लिया कि जब बादल न हों तो कैसा अद्भुत विहंगम दृश्य रहता होगा । दूसरे दिन की भोर में उठकर हम अपनी खिड़कियों, बॉलकनी में खड़े हो गए थे ताकि कौशानी के अनुपम सौंदर्य को अपने चित्त में भर सकें । बिल्कुल नाउम्मीद तो नहीं हुए , बहुत सारे मनमोहक दृश्य भिन्न - भिन्न आकार बनाते हुए दिखाई पड़े । पहाड़ों के मौसन के बारे में कोई भविष्यवाणी नहीं कर सकता , कभी भी बारिश और कभी भी आसमान साफ , परन्तु प्रकृति का हर रूप मनभावन होता है । तरह - तरह के फूलों व फलों से भरपूर पहाडों के हर रूप में जीवन खिल उठता है । पहाड़ों के बीच सूर्यदेव को उगते और डूबते देखने का अलग ही आनन्द है , ऐसा लगता है कि हम उनके अधिक करीब आ गए हैं । बादल सहचर बन हमारे आस - पास क्रीड़ा करते रहते हैं और कभी हाथों , गालों को भी सहला कर अपना एहसास दिला जाते हैं । पहाड़ों के ऊपर रुई के फाहे रख दिये हों किसी ने , चोटियों पर ठहरे बादल कुछ ऐसा ही दृश्य सृजित करते हैं । जगह - जगह फूटते झरने , चाय के बागानों व नाशपाती के छोटे - छोटे फलों से लदे पेड़ों को छूना भी एक नया अनुभव था । उत्तराखंड के पहाड़ों का हर पड़ाव अपने विशेष नैसर्गिक सौंदर्य के कारण हृदय में एक स्थायी ,अविस्मरणीय यादें सँजोता जा रहा था ।
क्रमशः
डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़
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