गीत
बेचारगी घुटन पीड़ा बन , अंतस को दहकाती है ।।
अनचाही , बिन माँगी पीड़ा , जीवन को झुलसाती है ।।
अभिव्यक्ति जब दे नहीं पाती , अन्तर्भासित भावों की ।
जीवन -पथ में धूप ही मिली ,चाह रही जब छाँवों की ।
सहने की हद टूट गई तो , आँसू बन ढल जाती है ।
बेचारगी घुटन पीड़ा बन , अंतस को दहकाती है ।।
कभी दुहाई अधिकारों की , दायित्व कभी आड़े आते ।
फूलों को चुन लिया सभी ने , काँटे भला कहाँ जाते ।
बलिवेदी पर अरमानों की , हँसते हुए चढ़ जाती है ।
बेचारगी घुटन पीड़ा बन , अंतस को दहकाती है ।।
मतलब की इस दुनिया में तो , सच अक्सर ठोकर खाता ।
फल देने वाला तरुवर भी , केवल पत्थर ही पाता ।
जीवन भर की सघन साधना , वृद्धाश्रम पहुँचाती है ।
बेचारगी घुटन पीड़ा बन , अन्तस् को दहकाती है ।।
पद बिकते हैं बाजारों में , प्रतिभा का है मोल कहाँ ।
खंडित होती मर्यादाएँ , आदर्शों का घोल कहाँ ।
लगा तंत्र में रिश्वत का घुन , प्रतिभा को खा जाती है ।
बेचारगी घुटन पीड़ा बन , अंतस को दहकाती है ।।
साथी पर विश्वास किया था , सौंप दिया अपना तन - मन ।
कलुषित हुई मानव कर्मों से , गंगाजल निर्मल पावन ।
रस पीकर उड़ जाता भँवरा , छली कली ही जाती है ।।
बेचारगी घुटन पीड़ा बन , अंतस को दहकाती है ।।
उच्चाकांक्षाओं की कारा , बंदी हैं सपन-सलोने ।
चाहत मन की मृगतृष्णा-सी , आई है धूप भिगोने ।
अनचाही पोषित बिटिया यह , माँ का तन झुलसाती है ।
बेचारगी घुटन पीड़ा बन , अंतस को दहकाती है ।।
डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग ,छत्तीसगढ़
No comments:
Post a Comment