Friday, 3 July 2020

ग़ज़ल

विधाता ने जो जख्म  दिया पी गई मैं ,
तेरे  प्यार  और दुआ  से  जी गई मैं ।

बन्द आँखों से तुझे महसूस कर लिया ,
 प्रेम के धागों से ये  घाव सी गई मैं ।

इक आस है जो दौड़ रही इन रगों में ,
हादसों के द्वारा  अक्सर  छली गई मैं ।

 ठोकर लगी जब मुझे सम्भाला  तुमने ,
इन बाँहों के  सहारे  चलती गई  मैं ।

सूख रही  थी जिंदगी गर्दिशे दौर में ,
इस प्यार की बारिश से सींची गई मैं ।

यह प्यार ही है जो लड़ जाता मौत से ,
विश्वास की  ये सीढ़ियां चढ़ती गई मैं ।

महफ़ूज है ज़िंदगी तेरी  पनाह  में ,
'दीक्षा' यह  सोच मौत से लड़ती गई मैं ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग ,छत्तीसगढ़








चलचित्र काव्य सृजन - 01
तिथि - 19/06/2020
वार - शुक्रवार
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जो जख्म विधाता ने  दिया पीती गई मैं ,
तेरे  प्यार  और दुआ  से  जीती गई मैं ।

आँखें बंद कर महसूस कर लिया तुझे ,
 प्रेम के धागों से ये  घाव सीती गई मैं ।

इक आस है जो दौड़ रही इन रगों में ,
हादसों के द्वारा  अक्सर  छलती गई मैं ।

 ठोकर लगी जब मुझे सम्भाला  तुमने ,
तेरी बाँहों के  सहारे  चलती गई  मैं ।

सूख रही  थी जिंदगी गर्दिशे दौर में ,
इस प्यार की बारिश से सींचती गई मैं ।

यह प्यार ही है जो लड़ जाता मौत से ,
विश्वास की  ये सीढ़ियां चढ़ती गई मैं ।

महफ़ूज है ज़िंदगी तेरी  पनाहों  में ,
'दीक्षा' यह  सोच मौत से लड़ती गई मैं ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग ,छत्तीसगढ़














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