विधाता ने जो जख्म दिया पी गई मैं ,
तेरे प्यार और दुआ से जी गई मैं ।
बन्द आँखों से तुझे महसूस कर लिया ,
प्रेम के धागों से ये घाव सी गई मैं ।
इक आस है जो दौड़ रही इन रगों में ,
हादसों के द्वारा अक्सर छली गई मैं ।
ठोकर लगी जब मुझे सम्भाला तुमने ,
इन बाँहों के सहारे चलती गई मैं ।
सूख रही थी जिंदगी गर्दिशे दौर में ,
इस प्यार की बारिश से सींची गई मैं ।
यह प्यार ही है जो लड़ जाता मौत से ,
विश्वास की ये सीढ़ियां चढ़ती गई मैं ।
महफ़ूज है ज़िंदगी तेरी पनाह में ,
'दीक्षा' यह सोच मौत से लड़ती गई मैं ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग ,छत्तीसगढ़
चलचित्र काव्य सृजन - 01
तिथि - 19/06/2020
वार - शुक्रवार
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जो जख्म विधाता ने दिया पीती गई मैं ,
तेरे प्यार और दुआ से जीती गई मैं ।
आँखें बंद कर महसूस कर लिया तुझे ,
प्रेम के धागों से ये घाव सीती गई मैं ।
इक आस है जो दौड़ रही इन रगों में ,
हादसों के द्वारा अक्सर छलती गई मैं ।
ठोकर लगी जब मुझे सम्भाला तुमने ,
तेरी बाँहों के सहारे चलती गई मैं ।
सूख रही थी जिंदगी गर्दिशे दौर में ,
इस प्यार की बारिश से सींचती गई मैं ।
यह प्यार ही है जो लड़ जाता मौत से ,
विश्वास की ये सीढ़ियां चढ़ती गई मैं ।
महफ़ूज है ज़िंदगी तेरी पनाहों में ,
'दीक्षा' यह सोच मौत से लड़ती गई मैं ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग ,छत्तीसगढ़
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