Tuesday, 7 July 2020

वजूद ( लघुकथा)

संयुक्त परिवार की सबसे छोटी बहू थी संध्या , सुबह से शाम तक सबकी व्यवस्था करते वह थक जाती । उसकी जेठानी गाँव में रहती थी और संध्या  शहर में रह कर आने - जाने वालों , जेठ के बच्चों  की पढ़ाई , अपने बच्चों की देखभाल इन सब जिम्मेदारियों में पिसी जा रही थी । शुरुआत में उसे यह सब अच्छा लगता था परंतु उसे कोई सराहना या प्रोत्साहन नहीं मिलता अपितु उसके कामों में गलती निकलना सबकी आदत हो गई थी । कोल्हू के बैल की तरह दिन भर जुटे रहने के बाद भी उसे अपना जीवन अस्तित्वहीन लगने लगा था । पढ़ी - लिखी तो थी ही , उसे शासकीय स्कूल में व्याख्याता की नौकरी मिल गई थी जहाँ उसके परिश्रम  की प्रशंसा हुई और उसे आत्मविश्वास और संतुष्टि मिली । उसने अपना खोया वजूद पा लिया था ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग ,छत्तीसगढ़

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