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जीवन कौशल सीखा मैंने , खेत और खलिहानों में ।
स्वेद कण यहाँ मोती बनते , श्रमिकों के अवदानों में ।।
मिट्टी की सोंधी खुशबू है , दिल के भोले - भालों में ।
अहंकार छल दम्भ नहीं है , इनके सरल सवालों में ।
समरसता है मन में इनके , हों अपनों बेगानों में ।।
जीवन कौशल सीखा मैंने , खेत और खलिहानों में ।।
सम्मान यहाँ एक - दूजे का , मिलजुल कर सब रहते हैं।
आपस में कोई भेद नहीं , सुख - दुख साझा करते हैं ।
आगे बढ़ने चाल न चलते , होड़ नहीं नादानों में ।।
जीवन कौशल सीखा मैंने , खेत औऱ खलिहानों में ।।
गाँव मुझे अब भी प्यारा है , शोभा यहाँ निराली है ।
मन में कोई खोट नहीं , जेब भले ही खाली है ।
मन का आँगन बहुत बड़ा है , ममता भरी मचानों में ।।
जीवन कौशल सीखा मैंने , खेत और खलिहानों में ।।
छोटे - छोटे सपने पलते , इनके निश्छल नैनों में ।
मधुरस सी मिठास भरी , इनके देशज बैनों में ।
संस्कारों को जीते हैं ये , परम्परा के गानों में ।।
जीवन कौशल सीखा मैंने , खेत और खलिहानों में ।।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग ,छत्तीसगढ़
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